भूख और चाह
भूख और चाह
आदम ने, हव्वा ने
जब वर्जित फल खाया था
भूख नहीं थी उनको
बस
वर्जित था, इसी से खाने की चाह रही थी।
खाने की चाह
भूख से जीतती आई है हरदम
मस्तिष्क पर हावी होती आई है,
मन को ललचाती,
शरीर को दुलराती आईं है।
पर्त दर पर्त घढ़ती चर्बी
गुलथुल को गोलू,
और गोलू को पिलपिला गोला
बनाती रही,
खाने की चाह यों
विकास के, विज्ञान के नियमों को
ताक पर रख
भूख से दो क़दम आगे ही रही।
संवारने की अंधी दौड़ ने
ला खड़ा किया किस मोड़ पर !
पेट और पीठ हुए एक से
पसलियां
निछावर हुईं बाहुबली पर
अपने अपने हिस्से की चर्बी वार कर।
आसमान से गिर
अब, खजूर में अटक गया है,
मुस्कुराने की कोशिश में मुंह खुला रह गया है,
कल तक तरबूज था
आज त्रिकोण बन कर रह गया है।
