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Bhavna Thaker

Others

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Bhavna Thaker

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बासी खाना खाने की आदत ही नहीं

बासी खाना खाने की आदत ही नहीं

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खंजर चला कर खून कर दिया कोई संजीवनी काम न आएगी

एहसासों की लकड़ियां अब गिली हो चुकी मत जलाओ इश्क की आग लगाती तिली...


तुम्हारे सज़दे में जब झुक जाया करती थी मेरी पलकें,

तब तुम किसी ओर की इबादत में गुम थे कोई ओर तुम्हारा खुदा था...


जिस्म की खाल तक उतारकर रखनी चाही तुम्हारे मोह में मेरी चाहत ने,

बदले में तुम्हारे जाते हुए कदमों की आहट ही महसूस हुई...


थी जब मेरी आरज़ू मुन्तज़िर तुम्हारी तुम गैरों की ख़ुशामत में गुम रहे, 

नज़र भी न एक ड़ाली न महसूस किया मेरे स्पंदनों को...


अब सूखी धरा पे नमी क्यूँ तलाश रहे हो? 

बीज ही सिकुड़ गया संवेदनाओं का,

बरसो चाहे कितना भी प्रीत की कोंपलें अब नहीं पनपने वाली...


आग सी उठती बेरुख़ी की लपटों में चाहत की छाँव तलाश न करो

अश्कों सी नमकीन, छरहरी, उदास शाम में भोर की किरणों का उद्गम मत ढूँढो,

तम के ढ़ेर पर खड़े मेरे जज्बात में चोट की खरोंच के सिवा कुछ नहीं पाओगे...


थी कभी तुम्हारी एक इशारे की कायल मेरी निगाहें, 

उस वक्त मेरे हर ख़्वाब में तुम नज़र अंदाज़गी का ज़हर घोल चले...


मैं कहाँ इतनी महंगी थी दाम भी थे तुम्हारी अदाओं में, 

अपनी अकड़ की महंगाई महसूस करते उस वक्त तुम मुझे हार गए...


काश मेरी शिद्दत की पहली कशिश पर तुम पिघलते, 

तुम्हारे इकरार ए इश्क की खुशी में अपनी तकदीर का रुख़ खुद मोड़कर ताउम्र के लिए हम तुम्हारे हो जाते...


"अब लौट जाओ तुम हमें बासी खाना खाने की आदत ही नहीं।"


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