बारिश और बचपन
बारिश और बचपन
बारिश के मौसम में ना
जिस तरह नदियों में में बाढ़ आ जाती है
बादल से बरसते पानी को देख
ठीक वैसी ही बाढ़ हमारे मन में भी आती है
बाढ़....ढेर सारी यादों की
उन प्यारे पुराने दिनों की
जब हम बच्चे थे और बारिश में भीग कर
ऐसे मौसम में स्कूल जाया करते थे
क्या कोई ऐसा एक भी बच्चा होगा
जिसको स्कूल से आने या जाने में
बारिश ने अपना स्पर्श ना दिया हो
शायद नहीं....
शुरुवात घर से बस स्टॉप तक आने से होती थी
स्त्री किए हुए यूनिफॉर्म और
चमकते पोलिश किए जूते डालकर
हम अपने घर से निकलते
मौसम का मिजाज़ तक तक सुहाना रहता था
और जैसे ही हम बस स्टॉप पहुंचने वाले होते कि
ठंडी बहती हवा के साथ पानी की बूंदें हमपर गिरती
हमारे कदमों में तेजी आती और मानो जैसे बारिश
हमसे रेस लगा रही हो कि
बस स्टॉप तक जाने से पहले पूरा भीगा कर मानेगी
बस स्टॉप तक पहुंचकर जब हम नीचे जूतों की तरफ देखते
तो एहसास होता था की उनकी रंगत बदल गई है
और जिस दिन सफेद जूते हों
उस दिन की तो बात ही अलग होती थी
क्लास में टेस्ट में क्या लिखना है उससे ज्यादा
तो चिंता इस बात की होती थी कि
सफेद से मैले हुए इन जूतों को साफ कैसे करना है
क्योंकि हमारे सख्त पीटी टीचर
मौसम को कंसीडर ही कहां करते थे?
स्कूल में जब क्लास घुसो तो
बारिश के मौसम में वो क्लासरूम कम
लॉन्ड्री रूम ज्यादा लगता था
और लगे भी क्यों ना....रूम की खिड़कियों पर
बच्चों के रेनकोट जो टंगे होते और
बुक शेल्फ पर भीगे जूतों की सेल
वो भी मौजे के साथ...
हां...बारिश के दिनों में ना एक अच्छी बात होती थी
वो जो आधे एक घंटे की मॉर्निंग असेंबली होती थी ना
बारिश के कारण वो ग्राउंड में हो नहीं पाती
और जो बच्चे आधे घंटे की असेंबली में बेहोश हो जाते थे
बारिश का मौसम उनको काफी राहत देता था
टीचर्स क्लास में पढ़ा रहे होते लेकिन
हमारा सारा ध्यान खिड़की और दरवाज़े के बाहर होता था
और दिल तो करता था की बस
क्लास से भागकर जाएं और बारिश में
खेलें सारे दोस्तों के साथ
अब बात अलग है कि
हम बच्चों की ऐसी चाहत और स्कूल के नियम
एक ओर कभी जाते ही नहीं थे
पर आज भी जब यह वक्त याद आते हैं
तो दिल उन्हीं दिनों की ओर लौटना चाहता है
आज भी जब बारिश होती है
कि वो पल लौटेंगे नहीं अब
ये सोचकर नम हमारी आंखें भी होती है
नम हमारी आंखें भी होती है।
