और कितनी निर्भया
और कितनी निर्भया
क्यों आखिर हम अपने इतिहास हो भूले जा रहे हैं
रामायण और महाभारत करने बाले मोमबत्तिया जला रहे हैं
शर्म करो अब तो कुछ नारी को देवी कहने बालो
जब भेड़िये हर दिन हर पल देवियों को नोचे जा रहे हैं
किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता रोनी सूरत बनाने से
कब सुकून मिला हैं किसी की रो कर और फूल चढ़ाने से
लाख कह लो तुम चाहे इंसान या आदमी को खुद को
हम जानवर थे,जानबर रहेंगे और जानवर होते जा रहे हैं
निकाल के झाड़ लो अब संविधान को उस बंद पेटी से
तुम ही कहो कैसे नजरें मिलाऊँ अब अपनी बेटी से
गलत अर्थ लगा कर बैठे हो तुम "बेटी बचाओ" का
ये नारा नहीं था वो कब से तो चेताबनी दिए जा रहे हैं
इस जंग लगे कानून को अब कब धार लगाओगे
कितनी मासूम बेटियों को अब तुम "निर्भया" बनाओगे
कुछ पागलों जैसे होने लगा हूँ में ये हालत देखकर
अच्छे लगने लगे हैं बो जो बेटी को पेट में मारे जा रहे हैं
समझ आ गया क्या तुम सबको हुक्मरानों से कुछ न होगा
जागो उठो नींद से अपना घर खुद को ही बचाना होगा
तुमको भी तो पता ही हैं क्या इलाज हैं पागल कुतों का
बेवकूफ हैं वो जो पागल कुत्तों को दवाई पिलाए जा रहे हैं।