असलियत-ए-ज़िन्दगी
असलियत-ए-ज़िन्दगी
अकेलेपन के दौर में,
ज़िन्दगी की होड़ में,
हम वक़्त को कोसते हैं,
दूसरों की थाली में ज़हर परोसते हैं।
लगता है गलत जमाना है,
जीने के लिए कुछ न कुछ तो कमाना है।
क्या इश्क़ की औकात है,
बस यही तो मुदद-ए-बात है।
अपनों से दूर चले गए,
न जाने कितने आँसू मले गए।
न पूछ हरकतें महफ़िल की,
न पूछ नजाकतें दिल की।
प्यार के अनेकों बहाने हैं
दिमाग के अनोखें तराने हैं।
तब भी दर्द-ए-ज़िन्दगी में जीते हैं,
न जाने कितने गम के प्याले पीते हैं।