अशोक
अशोक
कौन हूँ मैं
जानते हो मुझे
अगर जानते हो तो बताना
मुझे भी
स्वयं को सरताज समझा
जब ताज सजा मस्तक पर
सारी धरती मेरे कदमों में
कितने नरमुंडों का हार
मेरी विजय का जश्न बना
मैं स्वयम्भू सा
स्वयं सिद्ध मैं
अपने अहं में पाषाण बना
किञ्चित शोक नहीं जीवन में
ऐसा मैं अशोक बना
किन्तु
ये क्या
वो वैरागी
सब भोगों का त्यागी
शान्त किसी अम्बुधि सा
क्षण भर में ही तोड़ गया मेरा अभिमान
जीवन की सत्यता से
परिचय उसने ही तो करवाया
और त्रिविध दुःखों का कारण
उसने ही तो समझाया
उसकी मधुर स्मृति में जैसे
बह गया कण कण में शोक
उसकी चरण रजों से सजकर
आज खड़ा हूँ बन कर "अशोक"