अपने हिस्से की भूख
अपने हिस्से की भूख


परहित में जीना है बड़ा,
हित में जाता गला सूख,
दूसरे को नहीं दे सकता
अपने हिस्से आई भूख।
भूख सभी को लगती है,
जिसने जन्म यहां लिया,
पर भूख खत्म हो जाये,
भलाई नामक रस पिया।
कैसी विडंबना इस जग,
शांत नहीं हो जन भूख,
हड़प लेते हैं निर्धन का,
उल्टे सीधे रखता रसूख।
निज भूख जो कम माने,
दूसरे की भूख माने अति,
पुण्य कर्म में जीवन बीते,
जग में हो उसकी सद्गति।
गरीब को भूख लगती है,
कोई पूछता नहीं है हाल,
कितने निर्धन चले गये हैं,
जग से काल के ही गाल।
खाने की भूख नहीं लगे,
धन दौलत पर यूं मरते हैं,
अमीर लोग ब
ात अजब,
भोजन खाने से डरते हैं।
भूख के रूप अनेकों होते,
बिन भूख के मिलते कम,
भूख देखते गरीब जन की,
आँखें खुद हो जाती नम।
नहीं मिट सकती इस जहां,
भूख अजब निराली होती,
कुछ को रोटी भूख सताये,
कुछ को भूख हो हीरे मोती।
नहीं बाट सकता कोई यहां,
निज हिस्से की कहते भूख,
कभी थोड़ी कभी ये ज्यादा,
मिट जाती खाकर रोटी टूक।
किस्मत सभी की अपनी है,
लेकर आते कितनी ही भूख,
गरीब जन हाथ पैर मार रहा,
गर्म पानी पीये मारकर फूक।
आओ मिटा दे इस जहां से,
भूख का नहीं रहे कोई नाम,
शुभ संदेश फैला दो जन को,
सुंदर जग कोई कर दो काम।।