अपना रंग
अपना रंग
दुनिया के रंग में...
रंग जाऊं,
या...अपना ही कोई,
रंग बनाऊं।
मन करता है,
गहरे रंग में रंग जाऊं,
कभी लगता है,
फीका ही रह जाऊं।।
जो माटी में मिला,
मटमैला हो गया।
जो अंबर सा बना,
वह अलबेला हो गया।।
हंसने-हंसाने का भी...
एक जमाना था,
अब न जाने कहां...खो गया।
कमबख्त कैसा है यह इंसान,
जो बिना नींद के...सो गया।।
मिलती नहीं किसी को फुर्सत,
दो पल साथ बिताने की।
ना कोई उद्देश्य है ना कोई मंजिल,
फिर भी आदत हो गई है घबराने की।।
सभी लगे हैं अपनी-अपनी,
महत्ता बताने में...
इनको दिखते नहीं,
गर्दिश के सितारे।।
व्यर्थ की मर्जों ने,
घेर के रखा है इन्हें।
और कहते हैं कि...!
हम जी रहे हैं नए जमाने में।।
