अनजान सफ़र
अनजान सफ़र
आ गयी मैं कहाँ है इक अनजाना
सा सफ़र
ना कोई साथी है ना कोई है हमसफ़र
मिल रहें मुझ को हर तरह के लोग है
यहाँ मगर
एक दूसरे को जानकर भी रहते
ख़ामोश है मगर
डर है कि आ जायेंगे राज सामने जो
अगर
फिर भी चले जा रही हूं नहीं आती है
मंज़िल कहीं पर नजर
क्यों लग रहा है मुझ को यह अकेला
सा अनजाना सा सफ़र
मिल रहे हैं रोज कुछ खट्टी कुछ मीठी
यादों के समंदर
अकेली हूँ सफ़र में है यहाँ सैंकड़ों
की भीड़ पर
क्यों दिखता सबके पास बस नफ़रत,
द्वेष और है अहंकार
दे रहा मानव ही मानव को यहाँ हैं
तिरस्कार
मिल रही मुझ को भी नित नई यहाँ
है ठोकर
बनना है अपनी ही ढाल अब ना बिखर
बस चले जा निरंतर रात दिन हर पहर
पता है कि आयेगी बहुत सी विडम्बना
है मगर
संघर्षों के थपेड़ों को ही तो खाकर
जीवन जाता है और भी निखर
क़ाफ़िले निकल जाते हैं रोज यहाँ से
है गुजर
थक नहीं इदुं तू अब बस होंसले की है
उडान भर
उम्मीद है कि आ ही जायेगी इक दिन
मंज़िल भी नजर
तब ना होगा यह अनजाना सा सफ़र
तब ना होगा यह अनजाना सा सफ़र।।
