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दयाल शरण

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दयाल शरण

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आपदा में पलायन...एक परिकल्पना

आपदा में पलायन...एक परिकल्पना

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आग चूल्हे में राख हो गई तो क्या,

जिंदगी कभी वहां रही होगी।

बिखरे असबाब भी बोलते हैं क्या,

जन्नतें कभी वहां झांकती होगी।


खुशियों का औकात से गुरेज़ क्या,

ज़ुबाँ लबरेज़ आंखे चमकती होगी।

रोज़ या जब भी चूल्हा जलता होगा क्या,

जीभ से पेट तक सुरसुरी मचती होगी।


कोई इस तरहा भी घर छोड़ता है क्या

कोई आफत बड़ी, पड़ी होगी।

सिसके होंगे बेघर होते बच्चे भी क्या

उनके खिलौने इसी खंडहर में छूटे होंगे।


लम्हा ठहरा तो आँख भीग गई और क्या

इस मुकाम पे कहानी ठिठकी तो होगी।

मैं जो उनको लिख रहा हूँ, इतना आसां है क्या

दुआ है कि इस सफर में उन्हें जिंदगी मयस्सर होगी।

 

कोई इस तरहा भी घर छोड़ता है क्या

कोई आफत बड़ी, पड़ी होगी।

मैं जो उनको लिख रहा हूँ, इतना आसां है क्या !

दुआ है कि इस सफर में उन्हें जिंदगी मयस्सर होगी।


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