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Vikramaditya Singh

Others

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Vikramaditya Singh

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आँसू

आँसू

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पतली धारा मेहनत करके

जल की बूँद बूँद बन छलके

टपकी जाती रंग बिना ही

बढ़ती सिसक सिसक सी करती

धीमे धीमे चंचलता भर

मिलती लगती हर पल हर दर


उमड़े जिन जिन उभार से यह

अविरल फूट फूट बहते हैं

हर जज्बातों की बेकरारी में

उन सोतों में बसते हैं

उभरे हलकी बढ़ती आगे फिर

एक नद जीवन गढ़ती जैसे फिर


दुःख या व्याकुलता के पल भर

धारा बढ़ती हर इतर उतर

यूँ सिसक सिसक आगे बढ़कर

मन को उखड़े, तन बिखर बिखर

लगती यह बुलाये बाहें खोले

इसमें डूबे तन मन धो लें

सांसों की हर अटक अटक में

अब कंठ भी गूँजे भटकने

छोटी सी धारा बनती जो

पूरा ही खुद डूबने को


नद बन बहती धारा अब

वश इसके अपना सारा अब

गहरी गहरी यह भयानक सी

तोड़ती साँसे अचानक ही

छोड़ा बेसुध बेसहारा

उस मखौल में जो हारा


ऐ धारा देखो अब कैसे

हर रोम सुकून को पाए

बह बहकर अपने आँसू में

मन पूरा ही यूँ जल जाए

दबती नयनों में टिककर

निकले तो छा जाती है

कोई क्या जाने यह आँसू

मन कैसे तरसाती है

 

                         



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