सुलगी सी कविता
सुलगी सी कविता
पता नहीं क्यूँ
मन हो रहा है
इस वक़्त
एक सुलगी सी
कविता लिखने का
कुछ - कुछ मुझ जैसी
मेरे प्यार के जैसी ..
या एक कॉफ़ी हाउस में
एक ग्लास पानी के जैसी
जो मेरे होठों से लग कर
गुजरी थी ..
तुमसे ही
कहीं
पता नहीं क्यूँ
मन हो रहा है इस वक़्त
एक लाल रंग की साड़ी
मे तुम्हे देखने का
खारे पानी के जैसी ..
नमकीन
स्वाद वाली
जिसे पहने देख कभी
मेरा दिल करा था
तुम्हे गले लगाने का
तब शायद तुम्हारे गर्दन
ओर काधें पर ठहरे
उस काले तिल को
छू पाता मैं
अपनी सुलगी सांसों से
ख़त्म कर पाता मैं
ज़िन्दा रहने की
ख्वाइश तुममें ..
कहीं
जगा पाता मैं
और खुद भी
जी पाती तुम
उम्र भर के लिए
बिना सुलगे ..
बिना बिखरे ..