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जीत आई हूँ मैं

जीत आई हूँ मैं

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आज इत्तेफ़ाकन सावन का

आख़िरी सोमवार था

जैसे रमज़ान का अलविदा जुमा 

कहते हैं आख़िरी जुमे को 

कुछ अलग असर होता है

आज मैने भी अलविदा कहा

मन से 

इस दिखावटी ज़िन्दगी को

इस एशो आराम को

उस झूठे तमगे को 

जिसे गले में लटकाये 

मैं घूम रही थी अभी तक

ग़जब का असर दिखा

इस तमगे को उतारते ही 

मेरी गर्दन जो बोझ से झुकी

रहती थी

वो सम्मानित होकर तन गई


स्वाभिमान से बोझ का दर्द भी ख़त्म 

अब दिल गहरी सांस नहीं ले रहा 

लेकिन सुकून से है

आज मन से मैं आज़ाद हो गई हूँ

अब कोई तन को क्या ही बांधे

आज कुछ छोड़ा है 

आज ही कुछ पाया है मैंने 

इस जोड़ घटाव में 

सब हार कर खुद को जीत आई हूँ मैं 

ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर

जी आई हूँ मैं।



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