सूरज का परिणय संंस्कार
सूरज का परिणय संंस्कार
आँखे फाड़-फाड़ कर देखता हूँ काँच की खिड़की से बाहर ... तेज धूप की ओढ़नी ओढ़कर धरती तिलमिला रही है ... जल रही है आग आग हो रही है अरे !! ये गुलमोहर मुस्कुरा क्यों रहे है परिणय का दौर होगा शायद उसका सूरज से , सूरज की किरणेंं उसे तार तार कर रही थी , और वो जैसे आग की लपटो में पिघल रहा है , जिसमे हमारा दर्द है वो शायद गहरी चाह होगी उसकी धरा का दर्द जलना सुलगना , जैसे उसकी आस में बैठी हो शायद इंतेज़ार में , ये दर्द ,ये जलन ,ये तपिश उसका श्रृंगार होगा शायद , और ये ही शायद ख़ुशी थी या कोई इश्क़िया साज़िश , उसके और सूरज के मिलन के बीच कोई न आ सके , बस काली सड़क , खड़े गुलमोहर ,उसमे छुपे पंछी , छाँव में बैठे जानवर , और दुबककर ठंडक की खोजमे बैठे इंसान भी ... सूरज ओर उसके परिणय संस्कार मेंं...