तारीख़ों में क़ैद ज़िंदगी
तारीख़ों में क़ैद ज़िंदगी
इन दिनों
मेरी उदास और हताश आँखें
उठ जाती हैं कैलेंडर की ओर बार-बार
प्लास्टर-उखड़ी और मटमैली
हो चुकी दीवार पर टँगा कैलेंडर
क्या कुछ अंदज़ा लगा पाता होगा
मेरी बेबसी और छटपटाहट का
तिथियों की गुहा-शृंखलाओं में
भटकते-फिरते कभी खत्म न होनेवाले
मेरे इंतज़ार का कैलेंडर भी कदाचित
फड़फड़ाकर रह जाता होगा चुपचाप
अपने दर्जन भर पृष्ठों में
उलझा, बेबस इस निर्रथक कोशिश में
कि आकिर कैसे जल्दी से
ले आए वह महीने की 30 या फिर 31 तारीख
जब मुझे मिल पाए कुछ रुपए
मेरी पगार के अत्यल्प ही सही
‘चटकल’ में पटसन से भाँति-भाँति
की वस्तुएँ बनाता हूँ जूट की
मगर चटकल-मालिक
आखिर पगार देता ही है कितना
हम मज़दूरों को मेरी ओर देखकर
कनखियों से शामिल होकर मेरे दुःख में
सहानुभूति दिखाता मुझसे
और अपने पृष्ठ-चित्रों से
मेरे मन-बहलाव की
विफल कोशिश करता
मेरे छोटे से कमरे की
पुरानी दीवार पर टँगा
वर्तमान वर्ष का
यह कैलेंडर ही
एकमात्र ऐसा दृश्य-साधन है
जो मेरे ज़ेहन और
मेरे कमरे को एक साथ
अपने तईं नवीनता का
एहसास कराता है मालिको!
कैलेंडर मगर
कोई जादूगर नहीं
जो अपनी खाली हथेली को
बंद कर कुछ देर
चंद सिक्के बना दे
न उसकी जेब में
कोई ‘सरकार’ है
जो मेरे पसीने का
सही मोल तय कर सके
मगर फिर भी,
शाम को थका-माँदा
घर आया मैं
मुमकिन है कुछ देर के लिए
अपनी पत्नी या अपने बच्चों की ओर न देख पाऊँ
मगर देनदारियों के बोझ से
दबा मैं पसीने में भीगे
अपने छीजे कपड़ों को
अपने शरीर से उतारते हुए
और निढाल होकर
गिरते हुए बिस्तर पर
(ज्यों कोई परकटा असहाय कबूतर)
मन ही मन
गुणा भाग करता
और हिसाब लगाता
अपनी वित्तीय सीमाओं का
जाने कितनी बार
देख चुका होता हूँ
कैलेंडर को
इन पाँच-दस मिनटों में
इस बीच पत्नी के हाथों दिया
पानी का गिलास मेरी प्यास को
तृप्त कर देता है मगर,
मेरे अंदर की तपिश को
पानी की कोई धार
कितना कम कर सकती है
आखिरकार!
और फिर जल्द ही
मेरे होठों पर
मटमैली, सूखी पपड़ी अपनी जगह
बना लेती है पूर्ववत
कैलेंडर ही सच्चा गवाह है
मेरे अंतहीन दर्द का अनिद्रा और
संभावित किसी अनिष्ट से
चिंतातुर मेरी जागती रातों का
मगर जब लेनदारों को अपने पैसे
समय पर नहीं मिलेंगे तब क्या वे
मेरे साथ रात भर जागते
और फड़फड़ाते रहनेवाले
मेरे सहकक्ष इस कैलेंडर की गवाही को
स्वीकार करेंगे
कि मैंने कितनी ईमानदारी से
हिसाब-किताब लगाकर
तय-तिथि पर
अपनी देनदारी चुकाने की
हरसंभव कोशिश की थी,
बच्चों की सेहत से जुड़ी
कई अनिवार्य ज़रूरतों पर
कैंची भी चलाई थी
अनिच्छा से, निर्ममतापूर्वक
मगर चंद रूपयों को
महीने भर खींचकरा
किसी तरह घर चलाते हुए
देनदारी चुकाने की
मेरी जुगत की सीमा भी तो
अपनी जगह कहीं-न-कहीं
मुझे बाँध ही देती है
कैलेंडर!
दुनिया तुम्हारी गवाही क्यों नहीं मानती!
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