सर-ए-आईना ज़िन्दगी…
सर-ए-आईना ज़िन्दगी…
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क्या करोगे तुम मुझे जानकार |
पास तो बैठे हो, पर ग़ैर मानकर |
ख़ुद क़रीब चली आतीं हैं मंज़िलें,
गर मुसाफ़िर चल पड़े ठानकर |
अपने दुश्मन को भी याद करता हूँ,
उसकी कुछ ख़ूबियों को जानकार |
जुदा हो जाएं हम बेवफ़ा होने से पहले,
ऐ दोस्त, मुझ पर ये अहसान कर |
ख़ुद को देखा एक दिन जो आईने में,
ख़ूब शर्मिन्दगी हुई पहचान कर |