यह शोक है या जश्न ?
यह शोक है या जश्न ?
प्राची ने जल्दी-जल्दी घर के सभी दरवाज़े बंद किये और मेन गेट का ताला लगाकर बाहर सड़क पर आकर ऑटो करने लगी। 4-5 ऑटो वालो ने मना कर दिया फिर जाकर उसे एक ऑटो मिला वो भी बिना मीटर के ही चलने को राज़ी हुआ। प्राची अपनी मम्मी के घर जा रही थी । 5-6 दिन पहले ही उसके पापा चल बसे थे, इसलिए उनको याद करके कभी भी उसकी आँखें भर आती थी ।
उसके पापा कुछ समय से बीमार चल रहे थे। पिछले 15 दिन से तो हॉस्पिटल में ही एडमिट थे। हॉस्पिटल वालों ने उसके भाई के हाथों में लम्बा-चौड़ा बिल पकड़ाते हुए कहा "अब तो इनकी घर ले जाकर, जितनी सेवा कर सकते हो करो क्यों की यह कोमा में हैं, तो कुछ कह नहीं सकते। अगर ज़िन्दा रहे तो साल दो साल भी निकाल सकते हैं नहीं तो महीने का भी भरोसा नहीं। यह सब सोचने में प्राची इतना खो गयी की उसे रास्ते का ही पता नहीं चला। ऑटो ड्राइवर की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा। वह उसको रूपए पकड़ा जल्दी से मम्मी के घर के अंदर गयी। घर पर कैटरिंग वाला आया हुआ था। तेरहवीं के लिए नाश्ते और खाने की लिस्ट बन रही थी और ऐसा लग रहा था जैसे किसी के मरने का शोक नहीं कोई पार्टी होने वाली हो। कैटरिंग वाले के जाने के बाद उसका भाई सबको फ़ोन पर तेरहवीं पर आने के लिए बोल रहा था जैसे इनविटेशन दे रहा हो और साथ-साथ सबको मैसेज भी कर रहा था। प्राची को यह सब बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। उसने अपनी मम्मी से कहा "दुःख में आने के लिए भी सबको बोलना क्यूँ पड़ता है", पर अपनी मम्मी की दर्द भरी आँखों को देख कर वह चुप हो गयी। तभी उसकी भाभी लिफाफों का बंडल लेकर उसके पास आई और बोली "दीदी जल्दी से सबको देने के लिए यह लिफाफे बनवा दो। तेरहवीं में बहन-बेटियों को और समधनों को रूपए देने का रिवाज़ है।" प्राची ने थोड़ा गुस्से में कहा "यह कैसा रिवाज़ है, वो सब वहां हमारे दुःख में शामिल होंगे या सुख में।" तभी उसका भाई उससे बोला "सबके लिए बिकानेर वाले के लड्डू के डिब्बे ऑडर करूँ या हल्दीराम के" अब तो प्राची ताली बजाती हुई बोली "वाह बहुत खूब हम अपने पापा के मरने की मिठाई बाँटेंगे।" तभी उसकी बुआ जो उसके पापा से भी उम्र में काफ़ी बड़ी थी बोली "चुपकर लड़की, ऐसे हर बात के लिए सवाल नहीं उठाते। हमारे घर के जो रिवाज़ हैं, वो तो हमें भी मानना पड़ेगा", प्राची ने कहा "ऐसे रिवाज़ों को तो बदल देना चाहिए। यह कैसे रिवाज़ हैं, जिसे पैसों की दिक्कत हो वो कहाँ से निभायेगा यह सब रिवाज़, कितना ख़र्चा होगा इस सब में।" उसकी बुआ उसे डांटते हुए बोली "चुप हो जा, यह मत सोच कि तेरी शादी हो गयी तो मैं तुझे डाँट नहीं सकती। बस भगवान हमारे भाई की आत्मा को शान्ति दे।" तभी प्राची की चाची एक लिस्ट लेकर आ गई जिसमें पंडितजी को देने का सामान लिखा था। अच्छी खासी लम्बी-चौड़ी लिस्ट थी। प्राची वो लिस्ट देखती रह गयी पर कुछ बोली नहीं।
तेरहवीं से पहले दिन सब अपनी-अपनी साड़ी के बारे में बात कर रहे थे कि "कौन सी साड़ी पहनें।" तेरहवीं पर उसने देखा उसके घर की सभी शादीशुदा लड़कियाँ बहुत ही सज-धज कर आई थी। जैसे वो यहाँ मरने का शोक मनाने नहीं किसी के जन्म की ख़ुशी मनाने आई हों। सब आपस में खूब हँसी - मज़ाक कर रहे थे या अपने-अपने मोबाइल में लगे हुए थे। बहुत की कम लोग उनके दुःख में दुखी थे। वहां ऐसा माहौल हो गया था, जैसे वो किसी शोक सभा के लिए एकत्रित ही नहीं हुए हों। थोड़ी देर बाद सब बहन-बेटियों को लिफ़ाफ़े और लड्डू का डिब्बा दिया गया और साथ ही चाय-नाश्ता करने जाना का निमंत्रण दिया गया। प्राची समझ नहीं पा रही थी की उसके अपने चाचा-ताऊ की बेटियाँ भी उससे दो बोल दुःख के नहीं बोल कर गयी।सब आये अपने में लगे रहे और आधे तो यही बोल कर चले गए की "चलो उन्हें मुक्ति मिली बहुत दुःख पा रहे थे।" प्राची उन सबसे पूछना चाहती थी की "कभी मेरे पापा के ठीक होने की दुआ की थी जो अब उनकी मुक्ति की बड़ी-बड़ी बातें बोल रहे हो।"