Mukul Kumar Singh

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ये कुत्ते

ये कुत्ते

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ग्रामीण वातावरण में एक छोटा सा मकान । मकान देखने में बाहर से ईंट की दीवार दिख रही है जिसकी छप्पर टाली की बनी थी। घर के दाहिने ओर सुपारी के कतारबद्ध पेड़ और इन्ही कतारों में चार-चार कटहल तथा दो-तीन आम के पेड़ हवाओं के साथ ताल मिलाते हुए अपनी शाखा-प्रशाखा को साथ लेकर झूमते नजर आते हैं। मकान क्या एक बारह बाइ तेरह फूट का कमरा और कमरे के दो दिशाओं को घेरता हुआ अंग्रेजी वर्णमाला का एल नुमा बरामदा। मकान का प्रवेश द्वार पूर्वी दिशा में जहाँ बाँयी ओर दरवाजे से सटा हुआ आम का पेड़। सामने हीं आँगन। आँगन के बीचोबीच बेल का पेड़ तथा बेलगाछ से दो फूट की दूरी पर हीं दाहिने ओर सटा हुआ और भी दो पेड़ जैसे दो पहरेदार हो।इतना सारा पेड़ मात्र दो कट्ठे जमीन में एक आकर्षक वातावरण का निर्माण कर रखा है। पेड़ों की शाखाओं का एक-दूसरे से ऐसा मिलन हुआ है कि कुछ पुछना हीं नहीं है। यदि आकाश से मकान का फोटोग्राफी की जाय तो घर का पता हीं नहीं चले। चौबीस घंटे पखेरुओं की किचिर-मिचिर,डैनों की फड़फड़ाहट सुनाई देती रहती है। मकान के चारो तरफ हरे-भरे झाड़ियों का घना संसार है, जिनमें साँप, नेवले,वनमुर्गी, कई आकृति विशिष्ट गिरगिटों का बसेरा है। कभी गोह साँप(चार पैर वाले)झाड़ी से निकल आँगन से रेंगते दरवाजे की ओर गर्दन उँचा उठाए आता दिखाई देता है तो बिल्ली की आकृति वाले चूहों का कई परिवार विचरण कर रहा होता है जो मकान के अन्दर बिना किसी रोक-टोक के भ्रमण करते हैं। जब इतने पशु-पक्षी हैं तो भला कुत्ते क्यों पिछे रहेंगे। सभी मिलजुल कर एकसाथ सहजीवन जी रहे हैं।और इनके साथ मकान के रहनेवाले भी एक आत्मिक बन्धन से बँधे हुए हैं। मकान मालिक के परिवार के सदस्यों की संख्या तीन, पति-पत्नी एवं एकमात्र कन्या संतान । यदि कोई आगन्तुक आ जाता है तो स्वाभाविक हीं यहाँ के नागरिकों का सामना उन्हें करना हीं पड़ता है और मारे डर के प्राण निकलने की स्थिति आ जाती है। अब साँप और कुत्तों से किसे डर नहीं लगता है, काटते तो दोनों हीं हैं। नेवले तथा गिरगिटों को देखकर अच्छे-अच्छे के पसीने छुटने लगते हैं। गोह साँप की लाल-लाल आँखें और लपलपाते जीभ देखकर ऐसे हीं रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कुत्तों को तो जंजीर मे बँधा देखकर भी घर के अन्दर जाने की हिम्मत नहीं होती है, यहाँ आठ-दस की संख्या में वह भी स्वाधिन आँगन व झाड़ियों में धमा-चौकड़ी मचा रहा हो और कोई मकान के अन्दर किसी भी कारण से जाना चाहता हो ।ऐसे समय पर ये कुत्ते यदि उन्हे देख हल्का हीं सही गुर्राने लगे तो अन्दर आनेवाले की स्थिति की कल्पना करने लायक है। जब वे लौटने लगते हैं तब उस गृहस्थ की प्रशंसा अवश्य करते हैं "आपलोग बड़े साहसी एवं प्रकृतिप्रेमी हैं जो इतने सारे बन्धु-बान्धव के साथ चिड़ियाघर मे रहते हैं।" जो भी हो प्रायः यह मकान सबको आकर्षित करता है। यह तो बड़ों की बात हुई अब जरा बच्चों को देखा जाये तो अवाक होकर देखना पड़ता है। इस मकान मे बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते हैं पर ऐसा कहना उचित नहीं लगता है। कारण है कि बच्चों ने इस मकान को अपना क्रिड़ांगन बना रखा है। प्रातः सात बजे से बड़े और छोटे बच्चे ट्यूशन आते हैं तथा ट्यूशन की कड़ी रात नौ बजे तक चलती है। बच्चे पढ़ाई समाप्त करने के बाद भी घर जाना नहीं जाना चाहते हैं, धमा-चौकड़ी मचाते हैं। उनके माता-पिता यदि बुलाने आते हैं तो जाने से इन्कार करते हैं । कहेंगे " अभी नहीं जाउँगा-जाउँगी,थोड़ा खेल लूं। " और यदि माता-पिता थोड़ा सख्त होना चाहा कि फौरन हीं यहाँ के शिक्षक-शिक्षिका से आवदार (हठ) करेंगे " ओ दादु-दीदीमनी माँ-बाबा को बोलो ना थोड़ी देर बाद जायेंगे ।" बच्चों की इस सरल हठ के आगे शिक्षक-शिक्षिका भी बच्चों के माता-पिता के सामने कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए कहेंगे " अच्छा ठीक है-ठीक है,थोड़ा सा हीं खेलना। ज्यादा खेलोगे तो पीटाई खाओगे।" और उसके बाद माता-पिता से कहेंगे " ठीक है थोड़ा खेल लेने दो फिर चला जायेगा-जायेगी।" इस पर माता-पिता भी कम नहीं जाते हैं आजकल, कहेंगे " काका-जेठु , काकी-जेठी अभी हीं उसको नाच-ड्राईंग-कम्प्यूटर का क्लास करने जाना होगा ।" ऐसी विकट परिस्थिति मे शिक्षक-शिक्षिका की भूमिका भी गड़बड़ा जाती है क्योंकि बालक मन को आघात देना पसंद नहीं है उपर से माता-पिता के सपनों का भी ख्याल रखना पड़ता है। आजकल सारे अभिभावकों की धारा बन गई है कि उन्हीं का संतान अव्वल आये । किसी अन्य का भले पिछे रहे। उनके बच्चे को टी.वी के पर्दे पर नाचते-गाते या इन्टरभ्यू देखने की लालसा और साथ हीं साथ संतान नोटों की गड्डियाँ लानेवाली मशीन बन जाय। उसी का संतान दुनिया में महान कहलायेगा, अखबार के प्रथम पृष्ठ पर फोटो छपेगी।

           लेकिन यह कभी नहीं सोचेंगे की शिशु-बालक-बालिका, किशोरों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए प्रकृति जैसे धूप, जल, मिट्टी, हवा, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी के साहचर्य की भी आवश्यकता है ताकि भविष्य में स्वस्थ एवं बौद्धिक परिपूर्णता से युक्त सफल नागरिक बन देश को दिशा देंगे। परन्तु कृत्रिम वातावरण के चकाचौंध के पिछे भागते हुये माता-पिता के स्वार्थ के सामने प्राकृतिक वातावरण का कोई मोल नहीं रह गया है। बच्चों को की दिनचर्या को ऐसे ढंग से व्यवस्थित कर दिया है कि बच्चों को अपनी इच्छानुसार प्रकृति के पालने में झूलने का समय हीं नहीं मिलता है।

         इस प्रतियोगिता को बढ़ाने मे मिडिया तो सारा उर्जा खर्च कर देना चाहती है। साक्षात्कार या फोटो छापने की होड़ लगी है और घर-घर में रिपोर्टरों के सामने आलराउण्डर बैठे नजर आते हैं। सबके सब प्रथम स्थान, आलराउण्ड द बेस्ट। कोई भी अंतिम स्थान पानेवाला नहीं है। फिर भी इण्डिया इज डेवलपींग नेशन नाट डेवलप्डफुली।

खैर यह सब कहना व्यर्थ समय गँवाना होगा। बच्चों के बारे मे कह रहा था। यहाँ बच्चे पेड़ों पर चढ़ इस डाल से उस डाल पर झूलते हैं। कभी डाल पर बैठे पक्षियों की बोली की नकल करते हैं, पक्षी भी इनकी मनोभावो को समझते हों तभी तो कोयल की कुक, कई प्रकार के मैनों के झगड़ो की किचिर-मिचिर, घुघु का घूघू-घू, सुरीली सिस लगाते बुलबुल इत्यादि से मिसरी का स्वाद चखने को मिलते हैं। वहीं इस्टीकुटुम तथा काठठोकरा की मधुर आमंत्रण के साथ दर्जी पक्षी का टुइ-टुइ-टु कान को असिम शांति देते हैं। अनगिनत कबूतरों का बक-बकम गुंजन सदैव सुनाई देता है और जैसे हीं ये कबूतर पंखों को फड़फड़ाते हुए पेड़ों के उपर से गोल चक्कर काटते आकाश की ओर उड़ान भरते हैं उस समय सारे बच्चे तालियां पीटेंगे और शोर मचाते हैं तो पास-पड़ोस समझ जाते हैं कबूतर और बच्चे एक हो गए हैं। ऐसा दृश्य विरले को हीं दर्शन होता है । बच्चे एकदम निर्भयता के साथ यदि साँप दिख गया तो उसके पिछे लाठी-ढेले लेकर झपट पड़ते हैं परन्तु आश्चर्य होता है यह देखकर कि बच्चे साँप को घायल नहीं करते हैं और ना हीं साँप बच्चों को काटने का प्रयास करता है। चूहों को बच्चे ऐसा घेर लेते हैं मानो कबड्डी खेल रहे हों। गांव के लोगों का कहना है- " दीदीमनी का घर हमारे बच्चों का आश्रम, चिड़ियखाना एवं हम सबका सेवाकेन्द्र है।" इस परिवार के सदस्य भी सामर्थ्य अनुरूप सहायता करने मे कोताही नहीं करते हैं । शायद इसी का 

पर प्रतिक्रिया में काट लेंगे ऐसा कोई लक्षण किसी ओर से नहीं दिखता है। गृहस्वामि को गांव की परिस्थितियों के अनुसार मनुष्य तो मनुष्य है पशुओं के लिए भी दवा की व्यवस्था रखते थे। किसी को भी जरूरत पड़ी तो दौड़ते हैं दीदीमनी के पास क्योंकि यहाँ प्राथमिक उपचार की वस्तुओं के साथ दर्द-निवारक गोलियां, पेट तथा सर दर्द, आमाशय, उल्टी इत्यादि के लिए उपस्थित आराम पहुंचाने वाली टैबलेट मिल जाती है। गांव के लोग कहते हैं-" दीदीमनी का घर हमारे बच्चों के लिए आश्रम, चिड़ियाखाना तथा हमारे लिए सेवाकेन्द्र है और दीदीमनी का परिवार भी अपने सामर्थ्य अनुसार मदद करने में कोताही नहीं करते हैं ।" 

शायद इसी का प्रभाव यहाँ रहनेवाले सात-आठ कुत्तों पर भी पड़ा है। कुत्तों का नाम भी बड़ा अजीबोगरीब है-फुचु, टिकटिकी, छुपछुपी, भुतो, बिनुनी। ये

सारे एक-दूसरे के आत्मीय हैं । फुचु, टिकटिकी और छुपछुपी भाई-बहन एवं भुतो तथा बिनुनी फुचु के भगना-भगनी है। इन दोनों की माँ टिकटिकी । इतने सारे कुत्ते यहाँ कैसे पधारे ---

एक सफेद रंग की छोटी सी पिल्ली बड़े-बड़े कुत्तों के आक्रमण को झेलती हुई एक सुबह घर के बरामदे मे घुस आई। दीदीमनी को वैसे कुत्तों से घृणा थी। परन्तु उस दिन इस दुम दबाए कुतिया की करुण आँखों में पता नहीं क्या था जिसे देखकर दीदीमनी का मातृ-हृदय द्रवित हो उठा। उसके शरीर पर हाथ की स्नेहमयी स्पर्श दी और बिस्कुट खाने को दी।बस पढ़ने आये बच्चों को एक नया मित्र मिल गया और लगे खेलने। यह देख दीदीमनी ने असहाय प्राणि को आश्रय दे दी।इन बच्चों ने हीं बताया पड़ोस का एक व्यक्ति इस कुतिया को लाया था और कई दिन तक कुत्ता पालने का शौक मिटाया तथा उसके बाद भगा दिया। तब से इस गली-उस गली लोगों से, बच्चों से मार खाते हुए चोटों से कराहती ठोकरे खा रही थी। उपर से बड़े कुत्तों का झपट पड़ना आदि से परेशान भूखी-अधमरी थी। खाना भी मिलता तो कैसे? शक्तिशाली के आगे भला निर्बलों को? यदि ऐसा सम्भव होता तो पृथ्वी का रूप हीं बदल जाता। इस जहाँ में सारा सुख शक्तिधारकों को मिलती है, कमजोरों को मिलता है केवल निराशा, अपमान, आर्तनाद और क्रन्दन। यह कुतिया जब इस परिवार की सदस्य बन हीं गई है तो कोई नाम भी तो होना चाहिए, सो इस आगन्तुक का नाम लेची रखा गया । धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। ऐसे हीं क्रम में एक और सदस्य का पदार्पण हुआ जो काला धूसर रंग मिश्रित चिततकबरा कुत्ता, लेची का हम उम्र था। जिसका स्वागत दीदीमनी ने शौकिया ढंग से किया। किसी बड़े कुत्ते के आक्रमण से ड्रेन(बड़ी नाली) में गिरकर कीचड़ से सना छुपते-छुपाते इस मकान के अहाते में आ पहुंचा तथा कटहल के पेड़ की ओट मे दुबका बैठा था। जब दीदीमनी की दृष्टि उसपर पड़ी तो दयावश बिस्कुट के टुकड़ों को उसके सामने रख दी। वह डरते-डरते इधर-उधर देखा और सुंघा। अभी वह बिस्कुट के टुकड़ों को चाटना हीं शुरू किया हीं था कि लेची की नजर उस पर पड़ गई, पहले तो गुर्राई फिर पास आ सुंघने लगी। वह नया अतिथि जातिगत स्वभाव के अनुरूप समर्पण की मुद्रा मे चारो पैर पसारे पीठ के बल जमीन पर लेट गया। यह शायद उन दोनों की अपनी भाषा थी जिसे हम मनुष्य नहीं समझ पाते हैं अर्थात लेची से उसने कहा होगा कि मैं तुम्हारे पास आश्रय के लिए आया हूं, मुझ पर दया करो। अब भला किसी को बिना मेहनत के हीं महान बनने का मौका मिल जाये तो लेची क्योंकर पिछे रहेगी। कई दिन हीं गुजरे दोनों मित्र बन गये। दोनों हीं स्वाधिन थे क्योंकि गृहस्वामि को उन्हें जंजीर मे बाँधना उचित नहीं लगा। क्रमवार ये दोनों बच्चों के सर्वाधिक प्रिय होते चले गये, पड़ोसियों के मन में अपने लिए स्थान बना लिए। सभी इन्हे बुला-बुलाकर खाने को देते थे। मार भी कम नहीं खाते थे क्योंकि सभी तो प्यार करनेवाले नहीं न होते हैं। पाड़ा मे कुछ लोगों को देखते हीं भौंकना शुरू कर देते, इसका परिणाम संग-संग। ढेलोंऔर डण्डों का उपहार। कहानियों का खात्मा वहीं नहीं , दीदीमनी को गालियां भी सुननी पड़ती थी और धमकियां दरवाजे पर आकर दे जाते थे " कुत्ता पाली है तो जंजीर में बाँध कर रखो नहीं तो सारा शिक्षितगिरी छुड़ा देंगे। " धमकियां देनेवाले कोई ऐसे-वैसे नहीं बल्कि छिंचके चोर होते थे जिन्हें बस मौके की तलाश रहती थी। जो भी हो गली के अन्य कुत्तों के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करता है उससे लेची एवं कालो का स्तर थोड़ा सा उँचा था। दोपहर या रात के समय प्रायः सभी घरों के दरवाजे पर इनकी उपस्थिति रहती थी। यदि किसी दिन ये दोनों अनुपस्थिति रहे कि अगले दिन हीं दीदीमनी के घर खोज-खबर लेने के लिए पड़ोसी हाजिर। अजीब बात है ये दोनों चौपाये किसी को देखकर भौंक दिये तो शिकायत और धमकियां और किसी के दरवाजे पर भोजन नहीं किए तब भी उसके लिए जबाबदेही। दीदीमनी को कभी-कभी तो क्रोध आता है इन कुत्तों पर लेकिन क्या करे ? लेची और कालो इस मकान को छोड़कर कहीं जाते भी नहीं हैं। रात के सन्नाटे में लेची की भौंकने की आवाज सुननेवाले की रुह काँप जाया करती है जबकि कालो को रात के समय उसके इलाके में किसी भी गैर की उपस्थिति पसंद नहीं था। रातभर घुमता रहता और यदि कोई भी संदिग्ध से सामना हो गया तो एकदम दौड़ा देता था। दो-दो बार तो पुलिसवालों को दौड़ाकर भैन मे बैठने को बाध्य कर दिया। कालो की भौंकने की आवाज से केवल रात में उसकी उपस्थिति का पता चलता था कि वह किस तरफ है। एक तरह से इन दोनों ने गांववालों को निश्चिंत कर दिया था।

सही समय पर लेची ने दो बच्चे जने। उसके लिए भी सारा सेवाकार्य की व्यवस्था दीदीमनी को करनी पड़ी। लेची के दोनों बच्चे हीं नर थे। एक का रंग लाल और दूसरे का काला। बड़े सुन्दर, एकदम कोदोल-कोदोल। ठंड के मौसम मे पढ़ने आये बच्चों की गोद में सुख की नींद लेते पड़े रहते। इन्हें गोद में रखने वाले छात्रों को भी आराम, क्योंकि ठंडक से राहत मिलती थी। अतः इन्हें गोद में रखने के लिए बच्चे आपस मे झगड़ पड़ते थे। इसकी शिकायत भी दीदीमनी के पास आता था। इन दोनों का नाम बुचु और फुचु रखा गया। काले रंग वाला बुचु एवं दूसरे का फुचु। थोड़ा बड़ा हुआ कि छात्रों के लिए एक नायाब खिलौना बन गया। बच्चों के साथ-साथ माठ-घाट घुमते रहते थे। बुचु बहुत हीं शांत स्वभाव का जबकि फुचु एकदम उसका विपरीत, वह जिसको-तिसको देखकर भौंकता रहता था। उसे गुर्राते या भौंकते देख सबको बड़ा मजा आता था। इसलिये लोग उन दोनों की गर्दन पकड़कर उनके मुँह को मुँह से रगड़ देते थे बस शुरू हो जाता था महाभारत के योद्धाओं का गदायुद्ध।

लेची और कालो इन दोनों पिल्लों के लिए भोजन मुख में लेकर आते और इनके सामने कूं-कूं की आवाज करते। कूं-कूं की आवाज सुनकर बुचु व फुचु दोनों हीं भोजन लानेवाले के पिछे-पिछे झाड़ियों के ओट में, लेची या कालो मुख में लाया भोजन उगल देते और दोनों पिल्ले बड़े आराम से कपाकप उदरस्थ कर लेते थे। यह देख प्रकृति के उस सत्य को स्विकारने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती है कि सारे जीव हीं अपने संतानो का पुरा ख्याल तब तक रखते हैं थब तक वे स्वनिर्भर नहीं हो जाते हैं। बड़े आन्नद के साथ फुचु और बुचु बड़े हो रहे थे। पर एकदिन एक अनहोनी घट हीं गई। हुआ कुछ ऐसा कि बड़े कुत्तों का स्वभाव होता है अपने से छोटे पर झपट पड़ना, दोपहर के समय दीदीमनी अपने परिवार के साथ भोजन कर रही थी कि पड़ोस की महिलाओं की शोरगुल सुनाई पड़ी- " मार डाला ,मार डाला। फुचु को मार डाला। ओ दीदीमनी ,फुचु को उस कुतिया ने गर्दन मरोड़ दिया।" सुनकर सभी भौचक्के।पलक झपकते हीं एक मलहम ,रुई ,तथा मरकोक्यूरम लोशन लेकर फुचु के पास पहुंच गई ,देखी गर्दन तथा गले में उपर-निचे गहरा छिद्र हो गया है। शायद फुचु अन्तिम साँस ले रहा था। लेकिन जब तक किसी की मृत्यु नहीं हो जाती तब तक मनुष्य उसे बचाने का प्रयास करता है। ऐसा हीं कुछ फुचु के साथ हुआ ,उसने मृत्यु पर विजय पा लिया पर अपाहिज बन गया। वह अपने शरीर का वजन चारो पैर पर सम्हाल नहीं पाता था। चारो पैर चार तरफ पसर जाता था। कई दिन पशु अस्पताल लेकर गृहस्वामी को जाना पड़ा था, डाक्टर ने कुछ दवाईयां लिख दिया और कहा कि उसके गर्दन के पास नर्भ की शिरा कट गई है इस लिए स्वस्थ तो हो हीं जायेगा पर शरीर का वजन ढोने मे असहज हीं रहेगा।दवा जो लिखकर दिया है उससे वह स्वाभाविक हो जायेगा। दीदीमनी की सेवा ,बच्चों का प्यार तथा लेची-कालो के स्नेह एवं बुचु ऐसे भाई का संग पाकर लगभग 95℅ वह स्वस्थ हो गया। खेलने, दौड़ने लगा। बुचु-फुचु अब बड़ा हो चला, कद-काठी भी विशाल। गृहस्वामी के प्रिय।यदि गृह स्वामी घर पर रह गये मजाल है लेची,कालो,बुचु,फुचु कोई घर से बाहर निकल जाए। स्वामी जहाँ-जहाँ जाए पिछे-पिछे चारो कुत्तों की फौज। सारा रास्ता भूकते, लड़ते-झगड़ते चलेंगे पर स्वामी का साथ नहीं छोड़ेंगे। रास्ते के अन्य कुत्ते कहाँ तक इनके सामने टिकेंगे, संख्या व शक्ति मे बीस पड़ जाते थे। परन्तु परेशानी उठानी पड़ती थी स्वामी को।इस परेशानी को वही समझ सकता है जिसने कुत्ता पाला है। घर पर चारो ने अपना बैठने का स्थान निश्चित कर रखा था। कालो स्वामी के चरणों के पास, लेची और बुचु छात्रों के बीच तथा फुचु दरवाजे पर। फुचु का लाल रंग का रोयाँ धूप मे चमक उठता था वैसे आकृति के साथ-साथ ईश्वर ने उसे सुन्दरता भी प्रदान किया था ।आस-पास में वह लालू के नाम से परिचित हो गया था। उसकी आकृति देखकर अच्छे-अच्छे की हालत खराब हो जाती थी। यदि किसी को दीदीमनी के घर जाना होता तो दूर से हीं फुचु को देखकर कहता- "ओ दीदीमनी, पहले आप अपने आदर के पहरेदार को हटाओ।" इस पर दीदीमनी कहती -"डरने की कोई बात नहीं है। वह कुछ नहीं करेगा ।"

"ना-ना । आप पहले उसे हटाओ तो सही।"

"मैं कह रही हूं न। वह किसी को काटता नहीं है।"

"ना-बाबा। जो भी हो कुत्ता का विश्वास नहीं। एक बार भी चढ़ बैठा कि बस तीन-तीन इन्जेक्शन सिधा-सिधा नाभि में।"

"ठीक है। अन्दर आओ तो पहले ।"

आगन्तुक एक कदम-दो कदम बढ़ाया कि फुचु के कान खड़े तथा गर्र-गर्र शुरू ।आगे बढ़ा हुआ कदम दोगुना वापस। तब दीदीमनी को शासन के सूर बोलना पड़ता-"फुचु। हो क्या रहा है ?शांत हो जाओ। तेरी वजह से क्या लोग मेरे घर आना-जाना बन्द कर देंगे।" लेकिन भला फुचु को इन बातों से क्या मतलब है। वह इतना हीं जानता है कि उसकी उपस्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति इस घर मे नहीं घुसेगा। धीरे-धीरे पाड़ा-बेपाड़ा मे भी बात फैल गई कि दीदीमनी के घर में चार-चार बाघ के समान कुत्ते हैं। सावधान होकर जाना। चारो पास-पड़ोस के दरवाजे से दैनिक तोला वसूल करते वैसे हीं प्यार वसूल करने मे भी अव्वल। हालांकि लेची और फुचु इस विषय में सौभाग्यवान रहे जबकि कालो और बुचु अपने कालापन की वजह से पिछे पर विश्वासपात्र सबके क्योंकि अजनबी व्यक्ति, चोरों के लिए त्रास थे।दीदीमनी के जमीन के दाहिनी ओर की झोप-झाड़ में जब खेलते थे बड़ा हीं चित्ताकर्षक दिखाई देता था। कभी शिकार को दौड़ाकर उसपर झपटना, कभी खुद को पकड़े जाने से बचाना तथा एक-दूसरे को छका-छकाकर पकड़ना आदि देख कर लगता है शायद मनुष्य इन्हीं को देख-देख आज अपनी श्रेष्ठता को स्थापित किया है।

इसी बीच लेची और बुचु के साथ दुर्घटना घट गई। एकदिन अभी भोर का शैशव अपनी पूर्णावस्था को पार भी नहीं किया था कि एक बाहरी कुत्ता को आते देख बुचु और लेची उसकी ओर झपटे एवं दोनों की आक्रामक मुद्रा देखकर बाहरी कुत्ता दुम दबा भागा। ये माँ-बेटे उसके पिछे। आज पहली बार बुचु का भौंकना सबको जगा दिया। भोर की शांत वातावरण को भेद कर रख दिया बुचु की हृदय दहला देने वाली आवाज ने। उस बाहरी कुत्ते को खदेड़ते हुये लगभग दो सौ मीटर दूर हाईवे पर पहुंचे। सामने हीं मोड़ थी, बाँयी ओर से आते हुये ट्रक ने बुचु से मोहब्बत किया तथा बेटे की मोहब्बत मे डूबी दशा को देखने गई लेची भी स्थायी दर्शनार्थी का रजिस्ट्रेशन करा बैठी। यह मोड़ कुत्तों का युद्ध का मैदान था क्योंकि यहाँ कई होटलें थी और दीदीमनी के छत्रछाया वाले कुत्तों का यह मोड़ साम्राज्य था। होटलों से मिलने वाली भोजन के लिए कुत्तों का आपस में लड़ना स्वाभाविक है। पर होटलों के मालिक व कर्मचारियों का वरद् हस्त इन्हें हीं मिलता था। जो भी हो आज बुचु का प्रथम भौंकना अंतिम साबित हुआ। होटलवालों को बड़ा दुख पहुंचा और दीदीमनी व उनकी बेटी को गहरा आघात पहुंचा। बेटी ने तो कह दी-"माँ, अब किसी पशु को ज्यादा स्नेह मत करना।" 

जब लेची मरी उस समय उसके चार-चार पिल्ले थे। ये चारो मातृहीन हो गये। अतः इन चारो का देखभाल करने का दायित्व कालो और फुचु ने स्वयं ले लिया। शायद इसे प्रकृति का खेल हीं कहा जा सकता है पशुओं में छोटों को जीवन पथ पर चलना सिखाने के लिये स्वयं को प्रस्तुत कर देते हैं। फुचु और कालो के संरक्षण मे चारो पिल्ले बड़े होने लगे। दीदीमनी भी अब इनकी देखभाल करने लगी और छात्र-छात्राओं को कोई फर्क नहीं पड़ा, उन्हें तो खेलनेवाला खिलौना चाहिए। कुत्तों की संख्या छः हो चुकी थी जो चिंता का विषय बन चुका था । दीदीमनी को सदैव एक डर बना रहता था कि पता नहीं कौन कब आकर गालियां देने लगे या झगड़ पड़े और आँखें लाल-पीली कर घर आकर तोड़ा-तोड़ी करेगा। यह भी तो हो सकता है आँखों के सामने हीं लाठियों से किसी को पीटकर मार डाले।क्या ऐसा देख पायेगी।क्योंकि पशुओं को घेरकर पिटना तथा मार डालने का अलिखित संविधान से अधिकार प्राप्त कर लिया है। गायों-बैलों,भैंसों,गधे तथा बकरियों आदि को श्रेष्ठ कहलानेवाला मनुष्यों के हाथों पिटते कहीं भी देखे जा सकते हैं। इस तरह की पिटाई करते समय मनुष्य की मानवता निष्ठूरता में बदल जाती है। सबसे ज्यादा अवाक करने की बात होती है निर्वाक पशुओं की पिटाई और हत्याओं का बखान नमक-मिर्च लगाकर करने की होड़ मची है। जब मनुष्यों पर यही घटना घटती है तो दया की भिख मांगी जाती है।

गृहस्वामी तो इनके प्रिय थे हीं।नई पीढ़ी के चारो पिल्ले दोपहर या रात मे स्वामी के दिये भोजन को ग्रहण करते, दीदीमनी खाने दी कि मुँह फेर लिए। भोजन पश्चात स्वामी सारे छः कुत्तों के शरीर पर हाथ फेरते एवं इस आदर-स्नेह को पाने के लिए इन छः महाशयों में आप-धापी मच जाती थी।शायद सभी को लगता होगा कि स्वामी उन्हें हीं ज्यादा दुलार करते हैं। कालो और फुचु में थोड़ा बदलाव आया था, स्वामी के पैरों के पास बैठे रहने का लाईसेन्स कालो का हीं था पर इधर कुछ दिनों से फुचु को यदि मौका मिला तो आसन जमा लेता। यह सब भला कालो क्यों बर्दाश्त करे? बस झगड़ पड़े।इस झगड़े का दृश्य बड़ा हीं भयंकर होता था। कौन किसकी गर्दन मरोड़ दे? ऐसी स्थिति से निपटने के लिए दीदीमनी बड़ा सहज उपाय निकाली थी, वह था ठण्ढा जल। दोनों के उपर जैसे हींबाल्टी से जल फेंका गया कि दोनों हीं शांत। कालो एवं फुचु में अन्तर इतना हीं था कि कालो अकारण भौंकता न था और ना हीं किसी पर जल्द झपटता।पर यदि किसी ने छेड़ दिया बस संग-संग न्युटन के गति का तृतीय सुत्र का प्रयोग। सो लोग-बाग कालो से दूरियां बना रखी थी। फुचु ठीक कालो का विपरीत।अकारण भौंकना उसका स्वभाव था।वह आक्रमण करता था गिने-चुने लोगों पर और हरदम भौंकते रहने के कारण लाल-पगला के नाम से पुकारा जाता था। बच्चे कालो से थोड़ा डरते थे जबकि फुचु की तो ऐसी हालत बना डालते कि कुछ नहीं पुछा जाए तो अच्छा है, केवल काँय-काँय करते रहता था। 

       मानव समाज का पहला पालतू पशु कुत्ता को हीं इतिहास ने बताया है। कुत्तों की विशेषताओं ने हीं ऐसा स्थान उसे दिलाया है। एकदिन दीदीमनी के घर मे किसी भी कारण से विद्युतापूर्ती ठप्प। विद्युत विभाग को सूचित की गई पर कोई कारवाई नहीं हुई।कर्तव्यरत कर्मचारी बड़े लापरवाही से बोले -"जब हमारी मोबाइल भैन उधर जायेगी तो आपकी शिकायत पर कारवाई होगी।" बहुत परेशानी होती है। एक तो गुमोट गर्मी उपर से गरज के साथ बारिश फिर भी हवा में आद्रता अधिक। चारो ओर जल एवं कीचड़ जमा, मच्छरों के दंश झेलने पड़ रहे थे। लोग-बाग हमेशा विद्युत विभाग को गालियां देते क्योंकि कर्मचारी ठीक ढंग से परिसेवा देने की व्यवस्था करता नहीं परन्तु मीटर रीडिंग मे अधिक का बिल बना कर भेजते हैं। और वह अधिक राशि का बिल का भुगतान ग्राहक को करना हीं पड़ेगा, शिकायत करने पर खर्च यूनिट से अधिक की राशि कम्पनी एडजस्ट कर देती है। पर अग्रिम राशि का भुगतान ग्राहक से करवाकर छोड़ेंगे अर्थात एक प्रकार की छिनताई।इसे छिनताई नहीं तो क्या कहेंगे? ठीक उसी के जगह पर ग्राहक की असुविधाओं को दूर करने में कर्मचारियों की लापरवाही पर कोई ध्यान नहीं और कर्मचारीगण इस लापरवाही को ग्राहकों से चाय-पानी का हथियार बना लिया है। खैर इस ओर जाना ठीक नहीं होगा। दिन के बेला में तो विद्युतापूर्ती का ठप्प हो जाना किसी तरह से सही जाती है लेकिन रात का समय असहनीय होता है। पुरी गली हीं अन्धेरे में डूबी हुई थी।फलस्वरूप अगली सुबह से हीं पास-पड़ोस विद्युत विभाग को कोसने का अभियान शुरू। सबने अपने-अपने ढंग से शिकायतें दर्ज कराई पर समस्या जस की तस। दीदीमनी के पति अपनी व्यक्तिगत सम्पर्क का प्रयोग किया तब जाकर विद्युत कर्मचारियों के कानों पर जूं रेंगी। मोबाइल भैनवाले कर्मी ने कहा-"दादा, आप रास्ते पर रहना। इस बरसात मे सब जगह पहुंचना सम्भव नहीं हो पाता है।" दिन भर बारिश होती रही। गुमोट गर्मी से परेशान गली मे सभी इस्स-उस्स करते रहे।बारिश भी कमर कसे हुये थी कि देखते हैं कैसे विद्युतापूर्ती होती है।सुबह से शाम हो गई परन्तु मोबाइल भैन वालों का कोई अता-पता हीं नहीं। गृहस्वामी के लिए दूश्चिंता का विषय बन गया,यदि मेढकों की संगीत का मजा लेने से विद्युत कर्मी नाराज होकर न आये या देर रात को ता-ता,थेई-थेई करते हुये कहीं आये तो कौन जायेगा? स्वाभाविक है शिकायतकर्ता को खोजेंगे। सो मरता ना क्या करता गृहस्वामी स्वयं को मानसिक रुप से तैयार कर लिया। एकदम जैसा अंदेशा था वही हुआ। रात एक बजकर बीस मिनट पर मूठाभाष की घंटी बज उठी। प्रत्युत्तर मे मोबाइल भैन से पुछा गया-"आपके मकान का नजदीकी केंद्र बताना, हमलोग आ रहे हैं।"

"ठीक है।"

"रास्ते और गली के मोड़ पर रहो।"

"ठीक है आप गाड़ी लेकर आओ तो सही, मैं मोड़ पर हीं रहूंगा।" और सम्पर्क छिन्न हो गया। गृहस्वामी हाथ मे टार्च लेकर एवं छाता ताने मोड़ पर खड़ा। पिटिर-पिटिर कर बारिश की बूंद, मच्छरों के आक्रमण सेबचने के क्रम मे हाथ-पाँव भी थिरक रहे थे। कानों के पास भन्न-भन्न करता मच्छरों का लोकगीत, मेढकों की प्रेरणा गीत गों-गां, गों-गां सुनाई दे रही थी। कभी-कभी बारिश जोर हो जाती और पुनः पिट-पिट,पिट-पिट ।घर पर दीदीमनी भी जगी है ।पति यदि रात को बाहर हो तो पत्नी घर पर दुश्चिंता से ग्रसित रहती हीं है। ऐसे भयावह रात में स्वामी के साथ यदि कोई था तो वह कालो जो अपने कर्त्तव्यपालन पर डटा हुआ था। एक हीं छाता के तले एक-दूसरे को बचाने के चक्कर में दोनों हीं भींग रहे थे। कालो भी मच्छरों से लोहा लेते-लेते भारतनाट्यम कर रहा था। आधा घंटा बीत गया पर मोबाइल भैनवाले का कोई ठिकाना हीं नहीं। मूठाभाष पर सम्पर्क साधने से पता चला कि भैन किसी दूसरे रास्ते में जा चुका है। वापसी पर गली के मोड़ के बदले प्रधान सड़क पर आने का अनुरोध किया गया। अब समय पड़ने पर गदहे को बाप कहना पड़ता है। दीदीमनी को जब पता चला तो आशंकित हो उठी। ऐसे समय पड़ोसियों को साथ जाना चाहिए , उन्हें जगाने की कोशिश की गई पर असफलता हाथ लगी।क्योंकि जागकर सोनेवाला होता है उसे कोई नहीं जगा सकता है। अर्थात अकेले युद्ध क्षेत्र मे उतरना होगा। गृहस्वामी आगे-आगे और पिछे-पिछे महाशय कालो। सड़कें-गलियां बरसात के गन्दे पानी मे डूबी थी ,जिसे चिरते हुये दोनों आगे बढ़े जा रहे थे।छप्प-चभाक छप्प की ध्वनि उत्पन्न हो रही थी ,कहीं-कहीं पर झींगुरों की चीं -ई-ई सुनाई दे रही थी। एक पल के लिए भी कालो अपने प्रभु से दूर नहीं हटा। हालांकि कालो को तोपों(गली के अन्य सजातियों)के साये से गुजरना पड़ा ,लेकिन आज तो वैसे हीं किसी भी बाधा को नहीं मानेगा।रात का अन्धेरा, बारिश का कहर और उसमें शरीर का काला रंग तथा रह-रहकर चमक उठनेवाली आँखें, किसकी हिम्मत है उसके प्रभु का रास्ता रोक देगा। आखिर दोनों गंतव्यस्थल पर पहुंच गये। कालो प्रभु के पैरों से सटकर बैठ गया। उसका सारा शरीर भींगा तथा कीचड़ से सना, रह-रहकर शरीर को झाड़ता था परन्तु पिटिर-पिटिर पुनः भींगा देता। यहाँ भी तन्हाई लगभग आधा घंटे की हीं रही होगी। अचानक मोबाइल भैन की हेडलाईट दिखी। एकदम सामने आ गया।आते हीं ड्राइवर का मिजाज देख कर बड़ा क्रोध आया। शायद ड्राइवर समझ नहीं पाया की पास मे दिखाई देनेवाला भी साथ हीं है। ड्राइवर ने कहा-"आप लोग ऐसे ढंग से लोकेशन बताते हो कि ढुंढते-ढुढते रामनगर से श्यामनगर पहुंच गये।लगता है जैसे आप के गुलाम हैं।" यह सुनकर पारा आसमान को छू दिया। पर प्रकट नहीं होने दिया लेकिन व्यंगयात्मक ढंग से प्यार के साथ स्वामी उत्तर दिया-"अरे भाई, आप एमरजेन्सी सेवा देने वालों की हुड़कियां तो सुननी हीं पड़ेगी ।अगली बार से ऐसा नहीं होगा।"

"क्या कहा ? ओ भम्बलदा गाड़ी घुमा दो। देखते हैं क्या कर लेंगे।" बस हड़कंप मच गई ड्राइवर के पिछे बैठे लोगों में।कालो झपट पड़ा कहनेवाले पर।गनीमत थी कि कालो उसकी कलाई को जबड़े में दबा लिया था।सबकी हेकड़ी गायब। और लगे मिमियाने-"ओ दादा, पहले हमें बचाओ।"

"क्यों, अब नहीं ताव दिखाओगे।" स्वामी ने जबाब दिया और पिछे की तरफ चढ़ बैठा। अन्दर बैठे लोगों के मुँह से शराब की उबकाई देनेवाली गन्ध दे रही थी। गाड़ी का ईंजन स्टार्ट हुआ और कालो उसकी कलाई को आजाद कर दिया।कालो का रुद्र रूप देख सबका नशा हिरण हो गया। स्वामी ने सबको आश्वस्त किया-घबड़ाओ मत वह जब मेरे साथ रहता है कोई भी मुझसे भिड़ा कि उस पर शनि का कोप? " ओ दादा, अगली बार से ऐसा नहीं होगा। बस आप उसको पकड़े रहो।" हिचकोले खाते-खाते मोबाइल भैन आगे बढ़ती जा रही थी।यदि उस हिचकोले से स्वामी के शरीर से कोई टकरा जाता और फौरन हीं कालो की गुर्राहट सुनाई देती। विद्युत विभाग के कर्मी जब वापस जाने लगे तो गृहस्वामी से कालो की प्रशंसा किए कि "वास्तव में आपका कुत्ता स्वामीभक्त है। यह आपका छाया है।"

      यह जो बरसात का मौसम है, कुत्तों का प्रजनन काल भी है। अतः किसी भी नर कुत्ते का स्थायी ठिकाना बता पाना बड़ा दूरुह कार्य होता है क्योंकि नर कुत्ते एक-एक कुतिया के पिछे कहाँ-कहाँ चले जाते हैं कह पाना असम्भव है। कभी-कभी तो ये पाँच-छः दिन गायब फिर वापस। इन्हीं परिस्थितियों में कालो एकदिन गृहस्वामी के साथ माठ गया। दौड़ा, उछला कुदा और गेंद एवं लाठी को फेंकने के बाद उसे मुँह में दबा पुनः प्रभु के सामने रखनेवाला खेल खेला। उसके बाद कालो का अता-पता न चला। काफी खोज किया गया पर वह नदारद। ईश्वर हीं जाने वह जीवित भी है या नहीं। रह-रहकर गृहस्वामी को उसकी याद आती मन मे एक बेचैनी छा जाती।रास्ते पर जब भी बाहर निकलता तो लगता शायद कहीं से वह सायकल के पिछे-पिछे आ रहा है पर कालो रहता तब ना। कालो की याद उस दिन और भी कई गुणा बढ़ गई जिस दिन सुनने को मिला कि फुचु की मृत्यु विद्युत स्पर्शाघात से हो गई। अभी कालो के गायब हुये एक महीने भी नहीं हुये। फुचु की मौत गृहस्वामी के लिये दुखदायी अवश्य थी पर गर्व भी था। आज तक लोगों से यही सुनती आया था कि कुत्ते प्रभु की प्राण रक्षा के लिए अपने प्राणों की परवाह नहीं करता है। यदि यह गुण मनुष्य में रहता है तो उसे मानवता कहा जाता है पर एक निरीह चौपाये के लिए क्या कहलायेगा ? अपने प्रभु के खातिर आत्मबलिदान करने पर लोग कहते हैं प्रभु का नमक खाया था सो उसने अपना कर्ज चुकाया परन्तु फुचु ने जो किया उसके लिए कौन सा शब्द प्रयुक्त होगा ?

        सुबह का समय, गरज के साथ बारिश हो रही थी। अन्य दिनों की भांति हाईवे के मोड़ पर होटलों के सामने भींगने से बचने हेतु किसी बन्द दरवाजे पर शेड के निचे खड़ा चाय पिने आये ग्राहकों द्वारा दिये बिस्कुट खा रहा था। बारिश कई दिन से लगातार हो रही थी। आकाश घने बादलों से ढँका हुआ, रह-रहकर कान का पर्दा फाड़नेवाली बिजली गर्जन-तर्जन कर रही थी और इसके साथ तेज हवा भी मनुष्यों की लाचारी पर मुस्कुरा रही थी। रात को तेज हवा के झोंको ने न जाने कितने पेड़ की शाखाओं को तोड़ा, विद्युत खम्भों के तारों को तोड़ निचे झूला दिया, कितने हीं घरों की छप्परों के टांग तोड़ा एवं अतिरिक्त बरसाती जल से सारा गांव जलमग्न हो चुकी थी।घरों में इन्सानों की जगह कीड़े-मकोड़े आश्रय लिए तथा इन्सानों को सरकारी स्कूलों में आश्रय लेना पड़ा। अचानक हाईवे मोड़ पर फुचु भौंकना शुरू कर दिया वह भी दौड़-दौड़ कर बगल के बन्द एक होटल के दरवाजे तक जाता और वापस मोड़ पर आ जाता। शुरुआत में किसी ने ध्यान नहीं दिया क्योंकि सभी जानते थे कि लाल-पगला का स्वभाव है अकारण भौंकना। एक तो जलमग्न गांव उपर से इसका लगातार भौंकना सबको अप्रिय लगने लगा। इसलिए उसे चुप कराने के लिए ढेले-डण्डे चलाने लगे।परन्तु वह मूक पशु चोटें खा-खाकर भी चुप नहीं हुआ।उसका भौंकना और भी तेज हो गया। ऐसा करते-करते पन्द्रह-बीस मिनट हुये होंगे, बन्द होटल मालिक का बाइस वर्षीय बेटा बाइक लेकर होटल का दरवाजा खोलने आ पहुंचा।फुचु उछलकर उसके सिने तक दोनों पैरों पर खड़ा हो भौंका।उस युवक ने उसे धक्का दिया और फुचु गिर पड़ा।झट से उठकर पुनः उस युवक को रोकने का प्रयास।असफलता हीं मिली। फुचु गिर पड़ा था। वह युवक दरवाजे से दो कदमों की दूरी पर था। अचानक फुचु झटके से उठा और उस युवक से पहले हीं पहुंचा तथा तड़ाक की आवाज ने सबको चौंका दिया।लोगों ने देखा फुचु का शरीर झुलस गया है। उस युवक को काठ मार गया।उसके बढ़े कदम जहां के तहां चिपक गये। सब कुछ थम सा गया। कुछ हीं पल में सबको होश आया कि एक अनहोनी घटना घट चुकी है ,जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। चाय की दुकान से एक -दो व्यक्ति दौड़े तथा पिछे से हीं उस युवक को खिंच लिया। उसकी जड़वत् स्थिति कट गई और वह बच्चे की भांति दहाड़े मारकर रोने लगा-" यह क्या हो गया, लाल पगला को।मझे बचाने के लिए वो स्वयं मर गया।" लोगों ने उसे समझाया कि रोते क्यों हो,तुम तो उसे बहुत मानते थे न इसीलिए उसने अपनी जान देकर तुम्हारे प्राणों की रक्षा की।वह पशु नहीं तुम्हारा पिछले जन्म का कर्जदार था। थोड़ी देर तक वह रोता रहा।बारिश भी धीरे-धीरे पतली हो आई।फिर शुरू हो गई दस लोगों की दस तरह की बातें और बातों का विषय फुचु का आत्मबलिदान।चाय दुकानवाला कहा-"यहाँ मोड़ पर हमेशा कुत्तों का अड्डा रहता है पर कालो और इसके ऐसा कुत्ता यहाँ कभी नहीं देखा।" एक होटल का कर्मचारी बोला कि जबसे ये तीन-चार कुत्तों ने यहाँ आना शुरू किया तबसे होटलों में चोरी की घटना मे कमी आ गई थी। जो भी हो फुचु की मौत ने सबको गमगीन कर दिया। कानों-कान खबर फैल गई फुचु के आत्मबलिदान की।लोग देखने के लिये भीड़ करने लगे थे। होटल एवं चाय-पान वालों ने पहला बुद्धिमानी का काम किया विद्युत का टूटा तार ढुंढ़कर सूखे काठ के फट्ठे से दूसरी तरफ हटाया ताकि कोई अन्य उसकी चपेट में न आये।

किसी ने फुचु की मौत की खबर दीदीमनी के घर पहुंचाई। पहले तो विश्वास नहीं होता है। पर जिस युवक की जान बचाई थी जब वह आकर रोते हुये बताया तो विश्वास करना हीं पड़ा। दीदीमनी एवं उनकी बेटी रोने लगी और उन्हें रोते देख पढ़ने आये छात्र-छात्राएं भी रोने लगे। गृहस्वामी किसे रोकर दिखाता कि आज उसकी अन्तरात्मा भी फट रही है। खैर गृहस्वामी मोड़ पर पहुंचा देखा कि बाघ की भांति दिखनेवाला फुचु चैन की नींद सो रहा है। उसका शरीर विद्युत की अग्नि से झुलस सिकुड़ कर छोटा हो गया है तथा दुकानदारों ने उसके शरीर को लाल कफन से ढँक दिया है और फूल-माला से सजाया है। गृहस्वामी के हाथ मे किसी ने कुछ फूलों की पंखुड़ियां थमाया।उन पंखुड़ियों को फुचु के शरीर पर फेंकते समय स्वामी के आँखों के किनारे से अश्रुकण टपक पड़ा।



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