यादें
यादें
पहाड़ों की वादियों में बसा छोटा सा गाँव। रंग-बिरंगे पहाड़ी मकान, कच्चे व पथरीले रास्ते जो अब पगडंडियों में व कहीं-कहीं सड़कों में तबदील हो चुके थे। बचपन से ख्वाहिश थी यहाँ तक पहुँचने की। माँ ने ऐसा खाँका-खींचा था जैसे वो हर साल अपने ननिहाल आती हों। नानी अपने बच्चों से अपने पीहर का इतना सुंदर वर्णन किया करती थीं। खेत-खलिहान, हरियाली....। माँ के साथ खेत में जा, की गई मस्ती, कच्चे मकान जहाँ नीचे गाय-भैस बंधा करती और ऊपर खुद के रहने की जगह, जिसे गोबर से लीप शुद्ध व मजबूत बनाया जाता
व ऐंपण दे उसे सुंदरता दी जाती। कुमाऊँ प्रान्त का हर घर, ऐंपण की खूबसूरती से रंगा मिलेगा ।माँ का जन्म इन वादियों से बहुत दूर राजस्थान में हुआ पर नानी की यादों ने जो चित्र बनाए थे, वो एक सचित्र वर्णन की तरह थे।
नानी का गाँव देखने की उत्सुकता ने आज यहाँ तक पहुँचा ही दिया। दूर-दराज के किसी परिचित के यहाँ रुक, हर उन लम्हों को जीना चाहती थी जो नानी बताया करतीं।
थकी-हारी मीतू वहाँ आकर किसी परिचित के यहाँ रुकी। गहरी नींद आ रही थी इस कल्पना में सोई कि सुबह 'नरची कावा' नानी के बचपन की तरह उसे भी उठाने आएगा। ऐसा सोई कि सुबह नींद ही नहीं खुली, पर गहरी निद्रा में कानों में आवाज़ और नानी के बचपन के बताए सुरम्य दृश्य घूमने लगे, "उठ...उठ..उठती क्यों नहीं....
नरची कावा रात बेगी, लात मारूँ उठ।
उठ-उठ उठ....। "
नानी की माँ उन्हें अक्सर ऐसे ही उठाती और अलसाई गोदावरी शर्म के मारे उठ सबसे पहले दातुन करने भागती। बहुत छोटी थी तो पिताजी का साथ छूट गया था। माँ एक कर्मठ महिला थीं। चार बेटियाँ और दो बेटे। अकेले रह खुद ने पाले। कूदती-फाँदती गोदावरी को कौन नहीं जानता था। उस समय लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं था। ताऊजी ने अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए मास्टर रखा था, पढ़ने की उत्सुकता से वो छत के ऊपर जा बैठती और वहाँ से नीचे बच्चों को पढ़ता देखती। उस बच्ची में इतनी लगन थी कि वो रोज उनको पढ़ता देख सब सीखती गईं। मास्टरजी का पढ़ाया सुनती और भाइयों से पूछ उसकी कॉपी करती। उनका ये शौक देख ताऊजी ने उन्हें पढ़ना सिखा दिया।
बेशक पहाड़ी जीवन कठिन था पर वहीं पैदा हुए लोगों के लिए वहाँ का कठिन जीवन सामान्य तकलीफें थीं। जीवन के तेरह बसंत पार कर चुकी गोदावरी अपने से तेरह साल बड़े नवयुवक से गठबंधन में बंध गाँव छोड़ आईं फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा। हाँ, खुद की दो बेटियां होने के बाद एक बार आना हुआ था पर दूरी की वजह से पीहर ऐसा छूटा कि बस छूट ही गया। सब भाई-बहन गाँव से शहर को रुख कर गए। माँ के पास एक बेटे का परिवार था।
मीतू सपने में यादों में खोई हुई ही थी कि अचानक आवाज़ आई, "उठो मीतू, तुम्हें नानी के बचपन का घर देखना था ना! गाँव घूमना था ना, चलो मैं खेत में जा रही हूँ। "अलसाई सी नानी के ख्वाबों में खोई मीतू नानी का घर देखने को उत्सुक थी।
"वो देखो नीले रंग में रंगा तुम्हारी 'माँ का ननिहाल'। बड़ी भाग्यशाली हो तुम !वो तो शायद कभी नहीं आई।" मीतू भागकर पहाड़ों के पथरीले रास्ते के बीच बने उस नीले रंग से पुते मकान के आगे जा खड़ी हुई। ऐसे... जैसे सब कुछ जानती हो। उत्सुकता से पलटी तो नानी के बताए उस आम के पेड़ पर नजर गई जहाँ अनगिनत अमियां लटक रही थीं। जितना संभाल सकती थी उठा ली।
जैसा उन्होंने वर्णन किया वैसा कुछ नजर नहीं आ रहा था। आता भी कैसे एक युग सा बीत चुका था और वो....वो ऐसे वर्णन करतीं जैसे कल की सी ही बात हो। फ़ोटो लेकर लौटने लगी तो एक पेड़ पर से आवाज़ आई 'काफल-पाको' कदम वहीं रुक गए। वहाँ की अनगिनत लोक-कथाएँ नानी के मुँह से सुनी थी, उस एक आवाज़ से सब जीवंत हो उठीं।
वहाँ ऐसा कोई न था जो नानी को जानता हो। हाँ, फलाने की बेटी और बहन के नाम से सब जानते थे। वहाँ की असीम यादों को समेट लौटी तो रास्ते में वादियाँ देख यही सोचती रही, 'तेरह साल की नानी, पीहर छोड़ कर आने के बाद भी वहीं के खयालों में खोई रहती। शादी के बाद अपनी गृहस्थी हो गई, आठ बच्चों की माँ बनी और अपने परिवार में इतना उलझ गई कि अपनी माँ का आँचल छोड़ने के बाद कभी उसकी ममता की छाँव में वापिस न जा पाई। बस एक बार अपनी माँ से मिलना हुआ था जब वो बेटे के साथ शहर आई थीं। उनकी माँ चल बसीं। दूरी व पर्याप्त साधन न होने की वजह से माँ के दर्शन से अछूती रह गईं।
छोटी सी गोदावरी देवरों-भतीजों के साथ लूडो, कैरम खेल बड़ी हुई। सही मायने में ससुराल ही उनका पीहर था। उनके शौक़ ने उनके हुनर को जीवित रखा। खुद के बच्चों को ऐसे पढ़ातीं जैसे कितना कुछ जानती हैं पर पढ़ने और बढ़ने की ललक ने उन्हें सब सिखा दिया। नानाजी ने ही उनके पिता, सखा और जीवनसाथी सारे किरदार निभा डाले। पाँच फुट की नानी के छः फुट के पतिदेव, लेकिन जीवन प्रेम, सम्मान और अपनेपन की गाड़ी से चलता है उनका दाम्पत्य जीवन इसका जीता-जागता उदाहरण था।
नानी कम उम्र में ही समझदार हो गई और अपने गृहस्थ जीवन में रम गईं।
जब मीतू लौट, माँ के साथ नानी के पास गई तो उनके उत्सुकता से भरे अनगिनत प्रश्न थे, "ऐसा था ना हमारा मकान! वो पेड़,दे खा! हमारा खेत, और वो काका! वो तो तुम्हें मेरा नाम लेते ही पहचान गए होंगे। वो नौला दिखाया जिसकी धार में जा, मैं बार-बार कपड़े गीले कर आती और घर आकर पिटाई खाती। "मीतू नानी की हर बात का समर्थन करती गई। जो-जो मीतू बताती नानी ऐसे जीती गई जैसे वो खुद गाँव जाकर आई हों। अपने पीहर की कैरी के अनेकों फायदे बता, चुप-चाप एक उठा सिरहाने रख ली शायद अपने वहाँ की खुशबू, अपना बचपन और माँ के साथ बिताए पलों को याद करना चाहती थीं। नहीं जानती थी सालों बीत चुके हैं। लोग बदल गए हैं, पहाड़ में पहले जैसा कुछ नहीं रहा लोग गाँव से शहरों की ओर रुख कर गए हैं। नानी के काका सालों पहले चल बसे हैं, उन्हें जानने वाला वहाँ कोई नहीं। अपनी जन्मभूमि से कितना प्रेम होता है, नानी के छलकते आँसू पुरानी बातों को याद कर सब बयाँ कर रहे थे।
शायद माँ का घर इसे ही कहते हैं। तेरह साल की यादें आज इतने सालों के ससुराल के सफर पर हावी थीं। नहीं जानती थी वहाँ उनका कोई अस्तित्व नहीं पर तेरह साल के सफर में उन्होंने हर वो लम्हा जिया जिसकी याद आज तक उनके जहन में है। भरे-पूरे परिवार में एक दिन नानाजी भी अपनी उम्र पूरी जी उन्हें छोड़ चले गए। आज नानी अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे कर चुकी है। इन आँखों ने ज़िन्दगी के बहुत से उतार-चढ़ाव देखे, जगह-जगह जाना हुआ पर बचपन का वो घर जहाँ उनके बचपन के कुछ साल बीते वो उन्होंने अपने बच्चों को ननिहाल के रूप में सुंदरता से परिचित करवाया।
सच है, माँ और माँ का घर अमूल्य होता है। उनकी ममता का आँचल दूर रहकर भी हमेशा अपनी ममता की छाँव देता है। यही था मेरा एक छोटा सा अनुभव जो जीवन भर मेरी यादों में जुड़ा रहेगा।