विद्या ददाति विनयम
विद्या ददाति विनयम
शिक्षक दिवस दुविधा में डाल देता है। पुराने समय की बात और थी, जब गुरुकुल वाली व्यवस्था थी। विद्या अर्जन के लिए गुरु की शरण में जाना होता था। समय बदला, व्यवस्था बदली। अब सब कुछ आपकी इच्छा पर निर्भर करता है। आपके पास धन है तो गुरु स्वयं आपके द्वार पर पहुंच जाएंगे। वरना गुरु के दरवाज़े आपके लिए हमेशा बंद ही रहेंगे। तब ऐसे में किसको गुरु कहा जाए। चलिए मान लीजिए वेलेंटाइन डे, मदर डे, फादर्स डे, फ्रेंडशिप डे की भांति टीचर्स डे को भी सेलिब्रेट करना है तो समझिए बच्चों की आफत। एक स्कूल में कई विषयों के कई गुरु होते है। अब किसको अपना गुरु माना जाएं। जिसको माना वह अच्छा और जिनको नहीं माना वहीं बुरे। सिर्फ एक दिन का सेलिब्रेशन बच्चों पर वर्ष भर भारी पड़ता है। इतिहास के पन्नों में कई गुरु ऐसे मिल जाएंगे, जिनके नाम पर पुरस्कार दिए जाते है। उन्हीं में एक गुरु द्रोणाचार्य भी थे। जिन्होंने उस एकलव्य से अंगूठा ही गुरु दक्षिणा में मांग लिया, जिसको उन्होंने अपना शिष्य माना ही नहीं। लेकिन फिर भी गुरु का सम्मान करते हुए एकलव्य ने अपना अंगूठा दक्षिणा में दे दिय
ा। आज भी कई ऐसे गुरु हैं, जो समय-समय पर अपनी हरकतों की वजह से चर्चाओं में आते रहते है। गुरु-शिष्य के सम्मानजनक रिश्ते को कलंकित करने वाले ऐसे गुरुओं के चलते शिक्षक दिवस की गरिमा को ठेस पहुँचती है। जीवन यापन के लिए धन की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है, पर इतनी भी नहीं कि अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए शिष्यों पर अनावश्यक दबाव डाला जाए। अगर उनसे विद्या का ज्ञान लिया है तो अविभावक ने उसका मूल्य अदा किया है। एक बात और, गुरु को भविष्य का निर्माता कहा जाता है, तो वर्तमान हालात के लिए पूर्ववर्ती गुरु ही पूर्णरूप से जिम्मेदार है। कहा जा रहा है कि युवा पीढ़ी बिगड़ रही है, यह सही नहीं है, बल्कि हकीक़त यह है कि हमारे गुरु बहुत पहले ही बिगड़ गए थे, उन्होंने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड लिया था, हां अपवाद हो सकते है।एक बहुत छोटा सा उदाहरण है कि अगर गुरु ने कक्षा में ही ईमानदारी से पढ़ा लिया होता तो ट्यूशन की क्या जरूरत थी। गुरुओं को भविष्य निर्माण से कुछ लेना-देना नहीं है, जब गुरुओं को मुंह मांगी कीमत अदा की जा रही है, तो फिर गुरुओं का सम्मान क्यों?