तू डाल-डाल मैं पात-पात
तू डाल-डाल मैं पात-पात
आज सुबह की चाय खत्म कर, अखबार किनारे रख रसोई की ओर रुख किया ही था कि पति बोले, "क्या हलवा लाया था शोएब मज़ा आ गया"
"अच्छा! कब खाए?"
"कल ही खाया, पर अबतक ज़बान पर स्वाद बरकरार है।"
"सूजी का था या बेसन का?" मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक, मुझ जैसे अनाड़ी कुक के दिमाग में यही दो वेराइटी आई।
"बीटरूट का" छूटते ही बोले।
ओहो! माजरा समझ में आ गया था कि अब ये मुझसे हलवा बनाने की उम्मीद लगाए बैठे थे। अपनी जान अब अपने हाथ थी। गंभीरता से बोली, "क्या तुम भी ..... अब ये स्कूल के बच्चों वाली हरकतें ना दोहराओ कि किसकी मम्मी ने टिफिन में क्या दिया। अपना-अपना टिफिन खाया करो।"
"सब अपना ही खाते हैं, बस डेज़र्ट ऑफर किया था।"
"मैंने रसगुल्ले तो दिए थे। तुम भी खिला देते।"
"वह तो बाजार के थे।"
पता चल गया था कि मैं कुछ खास बनाऊं और वह अपने दोस्तों के बीच 'शो ऑफ' कर पाएं, ऐसा इरादा था। मैं भला इस दिखावे में क्यों योगदान देती। पहले ही काफी समय हलवे ने ले लिया था। अब कुछ खिचड़ी मेरे दिमाग में भी पकने लगी थी।
"अच्छा! ये वही शोएब ना जो पिछले साल क्रिसमस मनाने बीवी-बच्चों के साथ स्विट्जरलैंड गया था।"
"हाँ वही।"
"इस बार हमलोग भी चलें?"
"देखो भाग्यवान! मेरे पिताजी कहा करते थे 'एती पाँव पसारिये, जेती लम्बी सौर।' यानी कि पैरों को उतना ही फैलाना चाहिए जितनी अपनी चादर हो।" पतिदेव सीना चौड़ा कर बोले।
"वाह- वाह! ससुर जी बहुत अच्छी बात कहते थे। मेरे पापा ने बचपन में ही सिखाया था कि, 'रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पीब, देख बीरानी चूपड़ी मत ललचाओ जीभ" मैंने भी नहले पर दहला दे मारा।
"अरे! तुम भी ना! कहाँ की बात कहाँ ले गई। चलो छोड़ो वह सभी पुरानी बातें हैं। वैसे आज क्या बना रही हो?"
अब समझौते के मूड में मुस्कुराते पतिदेव किचन तक आए। "आलू-बीन्स की सब्जी, पराठा और दही, और हाँ दही बाजार का है। पति के मंसूबों पर पानी फेर मैं हँसती हुई काम में लग गईमैंने भी ठान लिया था कि सैंया तू डाल-डाल तो मैं पात-पात!