तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी

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ऑपरेशन थिएटर के बाहर 

कैंसर से पीड़ित, लतिका के मृत पति परेश के शव से लिपट कर उसकी नौ साल की बेटी गरिमा रो-रो कर सब से कह रही थी...


"लिपट के अपने पापा के शव से 

वो बच्ची रो-रो कर सब को बता रही थी ,

डॉक्टर ने जो दवाई बताई थी 

मम्मी ने मंगा कर खिलाई थी, 

फिर क्यों कैंसर जीत गया हम से 

हम सब हार गए उस से ,

मम्मी ने पापा के इलाज़ के लिए घर की सब जमा- पूंजी लगाईं थी 

मैंने भी अपना पिगी-बैंक खाली कर के दवा मंगाई थी, 

मामा-मामी, दादा-दादी सब ने मिल कर 

भगवान् जी से, उनको ठीक करने की अर्ज़ी लगाई थी, 

फिर क्यों कैंसर जीत गया हम से 

हम सब हार गये उस से 

हर आते-जाते हुए की आँखें, उस बच्ची के रोने से भर आईं।


अभी तक परेश की तेहरवीं भी नहीं हुई थी, कि रिश्तेदारों ने कहना भी शुरू कर दिया कि "लतिका की शादी उसके जेठ से कर देनी चाहिए, (जिसकी पत्नी की अभी कुछ समय पहले ही हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी थी) वह लतिका और उसके बच्चों को अपना लेगा, क्यूंकि उसके अपनी तो कोई औलाद है नहीं।घर में सब का रो-रो कर बुरा हाल हो रहा था। पहले बहु चली गयी, अब जवान बेटा। लतिका के सास-ससुर, कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थे।


लतिका को अपने पति के खोने का गम तो था ही। साथ-साथ वह अपने दोनों बच्चों गरिमा और उसके तीन साल के भाई आकाश के भविष्य को लेकर भी चिंतित थी। आकाश को तो अभी तक कुछ ठीक से समझ भी नहीं आया था। लतिका पूरे दिन रोती रहती थी। उसे लगता था, उसके पैदा होते ही उसकी माँ चल बसी थी। फिर बारह साल की उम्र में पिता भी उसे छोड़ कर चले गए। उसके सर से माँ-बाप का साया उठ गया इसलिए वो सबको बोझ लगने लगी। भैया-भाभी ने कम उम्र में ही उसके हाथ पीले कर दिये। भगवान् ने उसे इतना प्यार करने वाला पति दिया पर किस्मत ने उससे वो भी छीन लिया। इसलिए अब वो पूरी तरह टूट चुकी थी। लतिका परेश के बिना एक पल भी जीना नहीं चाहती थी, ऊपर से घर वालों का दबाव, उस जेठ से शादी करने का जो की अपनी पत्नी के देहांत के बाद से पूरे दिन तरह-तरह के नशे में डूबा रहने लगा था। लतिका तो अपना जीवन भी समाप्त करना चाहती थी, पर बच्चों के बारे में सोच कर वह किसी तरह अपने अंदर हिम्मत लाती थी। लतिका के भाई किशोर ने उसे अपने साथ मुंबई चलने को कहा। लतिका अपने भाई के साथ जाने को तैयार हो गई, क्यूंकि वह किसी भी हालत में अपने जेठ से शादी नहीं करना चाहती थी। लतिका के मुंबई जाने के बाद घर वालों ने उसकी सारे में बदनामी कर दी की वो घर का सारा सामान लेकर भाग गयी है। यह सब इल्ज़ाम लतिका के लिए किसी कहर से कम नहीं थे। कुछ समय बाद उसके जेठ को भी मुँह का कैंसर हो गया। उसे भी डॉक्टरों ने जवाब दे दिया। अब उसके सास-ससुर को कुछ समझ नहीं आ रहा था, कि वह क्या करें? ऐसे में वह लतिका के आगे घर वापिस आने के लिए गिड़गिड़ाने लगे कि कम से कम हमारे पोते-पोती को तो वापिस ले आ। हम उन्हें देख कर ही अपना बुढ़ापा काट लेंगे। लतिका ससुराल वापिस आने के लिए तैयार हो गयी क्यूंकि उससे अपने सास ससुर का दुःख नहीं देखा जा रहा था। लतिका के ससुराल आने के कुछ समय बाद उसका जेठ भी चल बसा। जेठ के मरने का लतिका को भी बहुत दुःख था। उसके सास-ससुर पोते-पोती से तो बहुत प्यार करते थे, पर उसे तो उन्होंने बिल्कुल नौकरानी समझ लिया था। लतिका कंप्यूटर कोर्स करने लगी, ताकि कोर्स पूरा होने के बाद, वो कोई अच्छी सी नौकरी कर सके और घर के खर्चे उठा सके। कोर्स की फीस देने के लिए उसने घर में ही टयूशन पढ़ानी शुरू कर दी, पर रिश्तेदारों ने और उसकी नन्दों ने ताने मार-मार कर उसका जीना मुश्किल कर दिया। लतिका जैसे-तैसे समय बिता रही थी। लतिका तो परेश की यादों के सहारे ही अपनी ज़िन्दगी बिताने की सोच चुकी थी। तभी एक दिन उसके भाई ने उसके सास-ससुर को फोन पर बताया कि "लतिका के लिए बहुत अमीर घर से रिश्ता आया है। लड़के का नाम संजय है। संजय कभी बाप नहीं बन सकता, इसलिए वह लतिका के बच्चों को भी अपनाने को तैयार है। अभी शुरू-शुरू में तो वह बच्चों को अपने साथ नहीं लेकर जायेंगे, ताकि लतिका और संजय एक दूसरे को समझ सकें। फिर 15-20 दिन बाद वो बच्चों को अपने पास बुला लेंगे। लतिका को कुछ समझ नहीं आ रहा था। पर ससुराल में भी तो सबके तानों से वह बहुत तंग आ चुकी थी। कहीं न कहीं उसके सास-ससुर भी अपने बेटे की मृत्यु के लिए उसे ही ज़िम्मेदार समझते थे। लतिका बच्चों की ख़ातिर दूसरी शादी के लिए तैयार हो गयी। लतिका के सास-ससुर ने कहा कि "बच्चों को उनके पास ही छोड़ जाए" पर लतिका को लगा की वो बच्चों के खर्चे कहाँ से उठायेंगे। अब इस उम्र में वो अपना ही ध्यान रख लें वो ही बहुत है। उसके सास-ससुर ने उसे बहुत कोसा,  पर उसने हिम्मत से काम लिया। लतिका बच्चों को अपने साथ मुंबई अपने पीहर ले गयी। उसने बच्चों को समझा दिया कि वह 15-20 दिन के लिए बाहर जा रही है।


लतिका की संजय से शादी हो जाती है।संजय पूरे दिन लतिका की सुंदरता में खोया रहता था। उनकी शादी को 20-22 दिन हो गए थे। एक दिन लतिका ने संजय से "बच्चों को लाने" को कहा तो संजय ने उसे यह कह कर टाल दिया कि "अभी हफ्ता-दस दिन में बच्चों को ले आएंगे"। लतिका को अपने बच्चों के बिना संजय का बेशुमार पैसा भी रास नहीं आ रहा था। जब भी लतिका संजय पर बच्चों को लाने के लिए ज़ोर डालने लगती, तो संजय उससे झगड़ने लगता। वह गरिमा को तो बिल्कुल भी नहीं लाना चाहता था, क्यूंकि उसे लगता था, "लड़की का पिता होने पर सब के सामने सिर झुकाना पड़ता है"। लतिका ने उसे बहुत समझाने कि कोशिश की, कि "बढ़ती हुई बेटी को वह ऐसे-कैसे किसी के भी पास छोड़ सकती हूँ? लतिका ने संजय से साफ़-साफ़ कहा "अगर तुम्हें मेरी बेटी को नहीं अपनाना था, तो पहले क्यों नहीं बताया"? पर संजय कुछ भी समझना नहीं चाहता था। अब संजय ने अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया था। वह बच्चों को लाने की बात पर लतिका को बुरी तरह मारने-पीटने लगता था। संजय लतिका को हर ख़ुशी देने को तैयार था, सिवाय उसकी बेटी गरिमा को अपनाने के, पर लतिका गरिमा के बिना एक मिनट भी, उसके घर में रहना नहीं चाहती थी, क्यूंकि उसने अपनी मासूम बेटी को उसके पापा की मृत्यु पर छटपटाते हुए देखा था। अभी तक तो गरिमा उस दुःख से ही नहीं उबरी थी। ऐसे में वो उसे अकेला छोड़ने की कैसे सोच सकती थी? अब आकाश और गरिमा ही तो उसकी ज़िन्दगी थे। अपने बच्चों के बिना लतिका सोने के पिंजरे में बंद पंछी की तरह छटपटाने लगी। संजय ने लतिका को एक कमरे में बंद कर दिया।


एक दिन एक नौकर की सहायता से, लतिका मौका देखकर संजय के घर से भाग गयी। अपने मायके पहुँच कर लतिका अपने बच्चों को बहुत देर तक चूमती रही कि अब उन्हें छोड़ कर, कहीं भी नहीं जायेगी।


लतिका बिलकुल गुमसुम रहने लगी। आस-पास के लोग कभी उसे बेचारी कहते, तो कभी यह कहकर उसे मनहूस कहते की लतिका बचपन में माँ बाप को खा गयी, फ़िर पति को, अब दूसरे पति को भी छोड़ कर भाग आई। उसका भाई सबको समझा-समझा कर थक जाता की "अगर वो मनहूस है, तो मैं भी तो मनहूस हूँ। माँ-बाप को तो मैंने भी कम उम्र में खोया था। अगर उसके पति को कैंसर हो गया, तो उसके लिए लतिका कैसे ज़िम्मेदार है? उसके दूसरे पति की तो सोच ही इतनी खराब थी, तो अच्छा है, वो उसे छोड़ कर आ गयी। हर बात का ज़िम्मेदार एक औरत को ही क्यों ठहरा दिया जाता है? थोड़े दिन तो मायके में सब ठीक रहा। पर धीरे-धीरे लतिका की भाभी को लतिका और उसके बच्चें बोझ लगने लगे। रोज़-रोज़ उसके भाई-भाभी में कहा-सुनी होने लगी। लतिका अब अपने भाई को और परेशान नहीं करना चाहती थी। लतिका ने अपने भाई को समझा बुझा कर उनके घर के पास ही एक कमरे का फ्लैट किराये पर ले लिया। उसके भाई ने उसकी भाभी से छुपा कर उसे थोड़े रूपए दे दिए थे, बुटीक खोलने के लिए। लतिका ने घर में ही बुटीक खोल लिया। मेहनत का फ़ल रंग लाया, धीरे-धीरे लतिका का काम बहुत अच्छा चल गया। वह अपना और बच्चों का खर्चा ठीक से उठाने लगी।


लतिका कभी-कभी बच्चों की बात फोन पर उनके दादा-दादी से करवा देती थी। क्यूंकि बुढ़ापे में अपने दो-दो जवान बेटों को खोने से बड़ा दुःख कोई नहीं होता, इसलिए उसके मन में उन लोगों के लिए अभी भी हमदर्दी थी, पर लतिका से तो सब नाराज़ ही थे। किसी को भी अपनी गलती का एहसास नहीं था। लतिका की नन्दें तो उसे घर वापिस लाना ही नहीं चाहती थी। क्यूंकि उन्हें लगता था कि उनके मम्मी-पापा सारी प्रॉपर्टी आकाश के नाम ही न कर दें। इसलिए वह हर समय अपने माता-पिता को लतिका के ख़िलाफ़ भड़काती रहती थीं।


ज़िन्दगी ने लतिका को इतनी ठोकरें दी थी, कि अब उसने सोच लिया था कि अब वह न पीहर वालों से मदद लेगी और न ही ससुराल वालों से। कम या ज़्यादा, जैसा भी वो, उसने अपने बच्चों को हर हाल में, अपने साथ खुश रहना सिखा दिया था।


अब कभी भी कोई लतिका से शादी करने को कहता तो वह पूरे विश्वास से कह देती थी "जब दो शादियों से सुख नहीं मिला तो तीसरी शादी के बारे में क्या सोचना"। धीरे-धीरे लतिका ने अपने भाई का भी सभी पैसा लौटा दिया। उसके भाई ने बहुत मना भी किया। पर उसने अपने भाई कि एक नहीं सुनी और बोली "आपने समय पर मेरी मदद कर दी, उससे बड़ी क्या बात हो सकती है"। आज लतिका आत्मनिर्भर हो गयी है, और वो अपने बच्चों के साथ चैन कि ज़िन्दगी बिता रही है।


 



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