Sarita Kumar

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Sarita Kumar

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ताज महोत्सव 25 नवंबर 2013

ताज महोत्सव 25 नवंबर 2013

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परिवार , समाज और दुनिया के नजरों में भले ही मेरी बहुत अच्छी छवि है मुझे बहुत मान सम्मान प्रेम प्यार स्नेह और अपनत्व मिलता रहा है . सबसे अधिक जिन बच्चों ने मुझे दिया है मैं उन्हीं बच्चों की सबसे बड़ी गुनाहगार हूं . बच्चों ने भले ही मुझे माफ़ कर दिया हो या उन्हें यह अनुभव ही नहीं हुआ कि उनकी मां ने उनके साथ बेईमानी और नाइंसाफी की है मगर मैं कैसे भूल सकती हूं ? मैंने अपनी संतानों के हिस्से का सुख और खुशी दूसरे बच्चों में बांटी है और ऐसा एक दो बार नहीं हजारों बार ऐसा किया है . सबसे पहला बेईमानी मैंने 1999 नवंबर में किया था जब मेरी ननद की शादी थी और उस शादी की पूरी जिम्मेदारी मुझ पर थी . घर में सास ससुर जेठ जेठानी सब लोग थे , खेती बाड़ी भी बहुत थी फिर भी एक मुट्ठी चावल अक्षत के लिए भी घर से नहीं आया . लड़के वालों की ज़िद थी कि बारात गांव में लेकर नहीं जाएंगे इसलिए उनके शहर में मकान लेकर शादी करनी पड़ी . पैसे बेजरूरत बेतहाशा खर्च हो रहें थे . किसी ने कोई मदद नहीं की यहां तक की बाबूजी ने भी जिनकी बेटी की शादी थी उनके पास सहारा इंडिया में जमा किया हुआ दस हजार रूपया निकला था और मेरी ननद ने उन रूपयों को अगले दस सालों के लिए फिक्स डिपॉजिट करवा दिया और नोमनी खुद बन गई यह सब मेरे आंखों के सामने ही हुआ लेकिन मैं कुछ बोल नहीं सकी क्योंकि मैं एक बहुत अच्छी बहुरानी और आदर्श भाभी थी . पैसों की तंगी और खर्चों का भरमार देखकर पति बहुत परेशान हो गए . ऐसे विषम परिस्थितियों में मेरा पत्नी धर्म मुझे मजबूर कर दिया अपनी बेटी के छठी में मिले हुए 6 हजार रुपए जो सेन्ट्रल बैंक आम गोला ब्रांच में जमा किया था उसे समय से पहले ही निकाल दिया 11340 रूपए मिले थे . उन पैसों को पति से यह कहकर दिया की भैया से उधार ली हूं बाद में दे दूंगी . पति से पहला झूठ भी उसी दिन बोला था . वो भी इसलिए कि उन्हें किसी गिल्ट में नहीं डालना चाहती थी . बेटी के पैसों को निकाल कर उसकी बुआ की शादी में खर्च किया और वो भी उस बुआ की जिन्होंने पिता के पैसों को अगले दस सालों के लिए जमा करवा दिया यह देखते हुए भी कि भैया भाभी कितने परेशान हैं . शादी के कामों में हाथ बंटाने के लिए न जेठ जेठानी थे और ना ही बड़ी ननद और ननदोई . सारा काम हम दोनों पति-पत्नी और मेरे मायके वाले कर रहें थे . जिस दिन मंडप बनना था , बांस लाने के लिए मजदूर के संग साथ में जाना था मेरे पति और भैया लोग नहीं थे तब मैंने ननदोई जी को कहा तब उन्होंने साफ-साफ मना कर दिया कि मैं क्यों जाऊं क्या मेरी बेटी की शादी है ? मैं चुपचाप चल पड़ी मजदूरों के साथ और बांस कटवा कर ले आई . हमारा मिशन था शादी खुशी खुशी सम्पन्न हो जाए . जब हमने यह जिम्मेदारी अपने सर ली है तो इसे पूरी निष्ठा से निभाना है . शादी सम्पन्न हुई पग फेरे की रस्म भी अदा कर दी गई उसके बाद मैं दिल्ली आ गई अपने पति और बच्चों के साथ शुरू हुआ संघर्ष आर्थिक तंगी का . पी एफ से सारे पैसे निकालने के बाद दो महीने एडवांस की भी तनख्वाह ले ली थी . बहुत कठिन दौर से गुजरे हम सभी .

मंगल बाजार , बुध बाज़ार और वीर बाजार से अपने बच्चों के लिए कपड़े और खिलौने खरीदती थी . बच्चों को केक खाने का मन होता तो सूजी का हलवा बनाकर थाली में जमा देती थी और ऊपर जुगाड़ से आइसिंग करके परोसती थी , बच्चें बहुत खुश हो जाते थें . उन्हें मैगी खाने का मन होता था तब एक दो मैगी लाती थी और मैगी का आधा मसाला बचाकर रख लेती थी , दूसरे दिन चावल में वही मसाला डालकर पका देती थी और बच्चों से कहती थी आज एक नया डिश बनाया है "इंडियन मैगी" और बच्चें खुशी खुशी खा लेते थे . कभी कभी सूजी भी नहीं होता था तब आटे का हलवा बनाती थी , थाली में अलग तरीके से जमाती थी . कहीं ऊंचा कही नीचा और कहीं गड्ढा बना देती थी उसमें एक चम्मच घी भर देती थी और उन्हें सुनाती थी एक "पगली नदी" की कहानी . जिसमें फौजियों का जिक्र होता था , बच्चें इतने मगन हो जाते थे उस रोमांचक कहानी में कि उन्हें पता ही नहीं चलता था कि 'आटे का हलवा' जो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था मैंने उन्हें खिला दिया . जब कभी सब्जी के लिए पैसे नहीं बचते थें तब दाल पीट्ठी बनाती थी जिसमें आटा की अलग-अलग तरह के फूल बनाकर डालती थी और उन्हें चिड़िया , तोता , मैना , बैट, बॉल , मछली, चांद , तारा और सूरज तक को दाल में डूबाकर खिलाती थी . पिज़्ज़ा की ख्वाहिश परांठे में सब्जियां भरकर सेंक देती थी . मैंने बच्चों के खाने , पीने , पहनने , घूमने और खेलने कूदने में हमेशा समझौता किया और समझौता करना सीखाया उन्हें . बस एक ही बात में कोई समझौता नहीं होना दिया वह थी उनकी पढ़ाई . हर दिन किसी श्लोक और दोहे की तरह सुनाती थी कि "पढ़ाई और लिखाई में नो कंप्रोमाइज " बच्चों को भी हनुमान चालीसा की तरह याद हो गई थी यह बात . मैंने भी कुछ त्याग किया था , अपने व्यक्तिगत शौक , इच्छा , ख्वाहिश सब कुछ दबा दिया था तुलसी के जड़ में और रोज जल देकर उसे पोषित करती रही . नेक इरादों से लिया गया संकल्प और कठोर तपस्या कभी विफल नहीं होती . बच्चों ने अपनी सफलताओं का तोहफा देना शुरू कर दिया . मैं बच्चों से संतुष्ट थी प्रसन्नचित थी उनके लिए चौबीस घंटे तीसो दिन उपलब्ध रहती थी . मेरा अपना अलग कोई कोना नहीं था बस बच्चे ही मेरी पुरी दुनिया थे . मगर फिर भी जब बच्चों के लिए कुछ अतिरिक्त करने का अवसर मिलता तब उनकी बुआ , बुआ के बच्चे और बड़े पापा के बच्चे बीच में आ जाते और मेरे बच्चों के हिस्से का सामान उन लोगों को देना पड़ जाता . यहां तक की मैं अपने बच्चों के हिस्से का दूध भी उन बच्चों को दे देती थी यह कह कर की घर आए मेहमानों की खातिरदारी पहले करनी चाहिए , तुम लोग तो हमेशा ही मेरे पास रहोगे . 

दूसरी सबसे बड़ी बेईमानी मैंने 2013 में की थी 25 नवंबर को ताज महोत्सव में जाना था , सासूमां ने कहा कि "मुझे सोने का टॉप्स लाकर दो तभी जाऊंगी ताज महोत्सव में नहीं तो नहीं जाऊंगी ." मेरे पति ने कहा कि "तुम्हारा दिमाग खराब है ऐसे भीड़ भाड़ वाले जगहों पर लोग सोने के जेवर उतार कर जाते हैं और तुम नया खरीदने की ज़िद कर रही हो ? " मगर वो नहीं मानी और ज़िद पर अड़ी रही . चुकी पूरी यूनिट के साथ जाना था इसलिए हम चिंतित हुए . मना नहीं कर सकते थे और सासूमां को भी जानती थी . मैंने पति से कहा कि कहीं से पैसे लेकर दिला दीजिए नहीं तो हमारा जीना हराम हो जाएगा और सोसायटी में शोर मच जाएगा बदनामी हो जाएगी सो अलग की हम एक मां को खुश नहीं रख सकते हैं . पति ने कहा "25 तारीख को किसी भी फौजी के पास पैसे नहीं बचते हैं , नहीं हो सकता है . अब तुम जानो जो भी कर सकती हो करो मैं कुछ नहीं कर सकता हूं ." जब कहीं से कुछ इंतजाम नहीं हो सका तब मैंने अपनी बेटी की कानों की बाली जो उसके ही मिले हुए पैसों से खरीदा था वह बेंच कर 2630 रूपए मिला कर सासूमां के पसंद है 8000 में सोने का टॉप्स खरीदा . शाम को नियत समय पर हम सभी खुशी-खुशी ताज महोत्सव में गये . बच्चों को मैंने सीखा दिया था कि वहां पहुंच कर कुछ भी खाने पीने या खिलौने खरीदने का ज़िद नहीं करना वरना मैं मेले में खो जाऊंगी फिर कभी नहीं मिलूंगी . मेरे भोले भाले मासूम बच्चों ने कहा कुछ नहीं बोलेंगे , कुछ नहीं खाएंगे लेकिन तुम मत खोना तुम हमेशा हमारे साथ रहना , हम पानी पीते रहेंगे तो भुख नहीं लगेगी और मेरा भोला बच्चा दो तीन बोतलें पानी घर से ही ले लिया और हम चल पड़े । वहां पहुंच कर मन मेरा ही मचलने लगा था तरह तरह के खिलौने , कपड़े , पर्स और ज्वैलरी देखकर मगर मेरे बच्चों ने किसी चीज़ को लेकर लालच नहीं किया . मेरे पति ने 40 रूपए के दो पैकेट चकनाचूर खरीदा उसके एक एक दाने खाते खाते हमने दो घंटे बिताए और फिर उसी सरकारी बस से क्वार्टर पर वापस आ गए . मन बहुत दुःखी था मगर अपना दुःख सुनाने वाला कोई नहीं था . छोटे छोटे तो हजारों घटनाएं घटी हैं मगर कुछ घटनाएं मुझे जार जार रूलाती हैं .

 उस समय मैं अपने बच्चों के लिए मंगल बाजार से कपड़े लाई और ननद की बेटियों के लिए कपड़े का शोरूम से एसी लगा हुआ दुकान से सबसे दुखद बात तो यह हुई की मेरे बच्चे भी मेरे साथ मौजूद थे उस दुकान पर जहां से उनके लिए नहीं उनकी फुफेरी बहनों के लिए खरीदी जा रही थी . मेरी दुष्टता की पराकाष्ठा थी . मैंने अपने बच्चों को बहुत दुःख दिया है उनके हिस्से का सुख गैर बच्चों में बांटा है . और आज वो ग़ैर बच्चे तो गैर ही रहें लेकिन मेरे बच्चों ने जो बदला दिया है मुझे वह अविश्वसनीय , अप्रत्याशित और अप्रतिम है . मंगल बाजार से खरीदे हुए कपड़े पहनने वाले बच्चे मुझे शो रूम से कपड़े , हीरे का ज़ेवर , लाखों के मोबाइल , एसी वन और फ्लाइट से सफ़र करवा रहे हैं . जिन्हें कोल्डड्रिंक की इच्छा होने पर रसना बनाकर पिलाती थी वो बच्चें रीयल जूस से फ्रीज भर रखा है . जिस बच्चे जो 2800 रूपए के मोबाइल खरीदने के बाद 280 बार ताना मारा था वो बच्चा 30,000 का मोबाइल और टैबलेट खरीद कर दे रहा है . जिस बेटी को चांदी की अंगुठी नहीं खरीद कर दिया उसने हीरे की अंगूठी उपहार में दिया . यह कैसा बदला है , कैसा प्रतिवाद है , कैसा प्रतिदान है ??? मेरे सोच से परे है . मेरे बच्चों के अलावा मेरे दामाद जी भी मेरे लिए ढेरों उपहार लाते हैं और दो दिन बीमार पड़ जाऊं तो मोतीहारी से दिल्ली पहुंच जाते हैं , और अगर उन्हें छुट्टी नहीं मिलती तब मेरी बेटी को फ्लाइट से अकेली ही भेज देते हैं . मेरी खुशी के लिए कितने जोखिम उठाते हैं . मेरे सुख सुविधा और आराम के सामान जुटाने के लिए बेटा अपना तीन साल की नौकरी में ही पी एफ निकाल लेता है . बेटी अपने ऐशो आराम की चीजें नहीं लेकर मेरे सिल्वर जुबली एनिवर्सरी पर सेकेंड हनीमून का इंतजाम किया मसूरी की टिकट और वहां का सबसे टॉप होटल में बुकिंग करवाई . ब्रांडेड कपड़े , ब्रांडेड चप्पल और ब्रांडेड प्रसाधन के सामान उपलब्ध कराई जाती है जबकि मैंने उन्हें काजल के सिवा कभी कुछ और नहीं दिया था और मेरे लिए हजारों के फाउंडेशन लाए जाते हैं . जन्मदिन किसी का भी हो कपड़े सबसे पहले मेरे लिए लाए जाते हैं . उसके बाद मेरा जन्मदिन , मैरिज एनिवर्सरी , टीचर्स डे , विमेंस डे , मदर्स डे और मेरे पालतू पशुओं के जन्मदिन पर भी मेरे लिए उपहार लाए जाते हैं . जबकि मैं तो एक भी उपहार डिजर्व नहीं करती हूं . 

मैंने सुना था कि मां , दादी और नानी के ज़ेवर बच्चे नाती और पोती को दी जाती है , बुआ अपने भतीजे भतीजी के लिए खर्च करती है मगर अपने घर में उल्टी गंगा बहती रही भतीजी के छठी में मिला पैसा बुआ की शादी में खर्च की जा रही है . और पोती की बाली बेंच कर दादी मां के टॉप्स खरीदें जा रहे हैं . इन सभी अन्याय , बेईमानी और नाइंसाफी करने वाली वही महिला हैं जो मायके की आदर्श बेटी , आदर्श बहन और आदर्श ननद थी . ससुराल में आकर आदर्श बहू , आदर्श भाभी , आदर्श देवरानी बनी और दर्जन भर बच्चों की आदर्श मामी और आदर्श छोटी मम्मी लेकिन क्या अपने बच्चों की भी आदर्श मां बन सकी ???? नहीं न ? भले ही बच्चें अपनी मां को माफ़ कर दिया और अपनी उस मां को ईश्वर की तरह पूजते हों मगर मां की अंतरात्मा तो जानती है न कि उसने बच्चों के हिस्से का सुख बांटा है उन लोगों के साथ जो एक पैसे सम्मान , प्यार और स्नेह के हकदार नहीं हैं . वो तो ईश्वर की असीम कृपा रही जो मेरे तीनों बच्चें समय से पहले समझदार और कामयाब हो गए वरना मैं जीने लायक नहीं रहती . 

आज फिर 25 नवंबर है ताज महोत्सव की याद आई और मैं पागल हो गई . सुबह से निरंतर आंसू बहते जा रहें हैं . बारी बारी से अपने बच्चों को बताया भी , हालांकि तीनों बच्चों ने कहा है कि "मां तुमने कोई बेईमानी नहीं की है बल्कि वैसा करके तुमने अच्छे संस्कार दिए ही , श्रेष्ठ शिक्षा दी है , एक नया पाठ सीखाया है और हमें अधिक सक्षम , आत्मनिर्भर और परोपकारी बनाया है . विपरित परिस्थितियों में संयम और धैर्यपूर्वक रहन सीखाया है . हर हाल में खुश रहना और खुश रखना सीखाया है . तपस्या तो तुमने भी की थी हमारे लालन-पालन में यह उसी तपस्या का ही परिणाम है कि हम सभी भाई बहन अपने अपने मंजिल की ओर अग्रसर हुए और आज उस मुकाम पर पहुंच गए हैं जो किसी मिडिल क्लास फैमिली के लिए सपना है वो तुम्हारे लिए सच है . " बच्चों की बात सुनकर और ज़ोर से रूलाई आई ..... वास्तव में अपने समकक्ष रिश्तेदारों और दोस्तों का घर देखती हूं तब लगता है मेरा परिवार अधिक खुशहाल , सम्पन्न और समृद्ध है . मुझे प्रसन्न होना चाहिए कि मेरे बच्चे इतने अधिक समझदार और साकारात्मक सोच रखने वाले उच्चतम श्रेणी के बच्चें हैं जिन्होंने मेरे द्वारा की गई कमी और बेईमानी को भी शिक्षा का एक पाठ माना और उससे सबक लेकर ना सिर्फ अपने जीवन को संवारा है बल्कि हमारे जीवन को भी खुशहाल और हमारे बुढ़ापे को सुखमय बना दिया . मेरे अपराध बोध को किस खुबसूरती से मिटाया है . लोग कहते हैं कि हमारे दुश्मन संतान बनकर पैदा लेते हैं और अपना हिसाब चुकता करते हैं . अगर मेरी संतान भी दुश्मन है तो मेरे मित्र और हितैषी कैसे होंगे ????? मुझे तो लगता है मेरी संतान ईश्वर के स्वरूप है , ईश्वर के वरदान है और मुझे इस दुनिया में स्वर्गिक सुख देने के लिए पैदा हुए हैं .


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