STORYMIRROR

Padma Agrawal

Others

3  

Padma Agrawal

Others

स्त्री

स्त्री

4 mins
314

निम्न मध्य वर्गीय प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका सरला जी,आज पहली बार ट्रेन के ए.सी. कूपे में बैठने के लिए छोटे बच्चे की तरह उत्साहित और खुश थीं।उन्होंने सदा से ही अपने कल्पना लोक मेंं विचरण करते हुए ही ए. सी. कूपे की ठंडक की अनुभूति की थी। बेटी गीत की जिद् और उसके जबरदस्ती टिकट करवा लेने के कारण ,आज उन्हें यह सौभाग्य मिलने वाला था।

अपने जीवन की इस उपलब्धि पर वह अपने सौभाग्य के प्रति गौरवान्वित अनुभव कर रही थीं।उनके अन्तर्मन में अभिजात्य वर्ग के साथ कदम से कदम मिला कर चलने मेंं अपार संकोच भी महसूस हो रहा था।

ट्रेन के डब्बे में घुसते ही ठंडक का एहसास होते ही उनके चेहरे पर अनायास ही मुस्कुराहट आ गई थी। अपनी बर्थ पर पहुंचते ही उन्होंने अपनी सीट के चारों तरफ निगाहें घुमाई थीं।वहां बैठे सभी यात्री अपनी अपनी दुनिया मेंं खोये हुये मोबाइल या लैपटॉप पर नजरें गड़ाए हुए थे।

उनके साथ उनकी बेटी रिया और उसके बच्चे यश और गोलू थे,जिनकी उम्र क्रमशः छःऔर चार वर्ष थी।

बच्चे तो आखिर बच्चे थे, बस शुरू हो गई धमाचौकड़ी..

कभी भूख लगी है तो कभी पानी की प्यास ...तो कभी इधर भाग तो कभी उधर भाग....सन्नाटे को चीरते हुए बच्चों के कोलाहल के कारण उन्हें लज्जा की अनुभूति हो रही थी। उन्होंने दोनों बच्चों को डांटने के अंदाज में इशारे से चुपचाप बैठने को कहा और आंखों ही आंखों के इशारे से बेटी से भी बच्चों को शांत रखने को कहा था।

वैसे तो इन बच्चों की बाल सुलभ क्रीड़ाओं के कारण सभी यात्रियों के चेहरे पर रह रह कर मुस्कान छा जाती थी। फिर भी शांत माहौल में बच्चों का शोरगुल उन्हें बहुत अटपटा सा लग रहा था।

उनके सामने वाली बर्थ पर एक आभिजात्य वर्ग की दक्षिण भारतीय महिला बैठी हुई थीं।उनकी उम्र लगभग 45 वर्ष ,पक्का सांवला रंग, गोल्डेन फ्रेम के चश्मे के अंदर से झांकती हुईं बड़ी बड़ी कटीली आंखें ,नुकीली नाक पर दोनों तरफ डायमंड की चमकती दमकती लौंग, लिपस्टिक से रंगे होंठ, घने काले घुंघराले केश,गले में लगभग दस तोले की भारी मोटी चेन और साथ में उतना ही लबा मंगल सूत्र,कलाईयों में रत्न जड़ित कंगन, लाल चौड़े बार्डर वाली प्योर सिल्क की क्रीम कलर की साड़ी, उनके धनी होने की कहानी कह रही थींं।उनके हाथों मेंं मोटा सा इंग्लिश नावेल था।वह अपने पड़ोसी सहयात्री के साथ फर्राटे दार इंग्लिश मेंं धीमे धीमे बातें कर रहींं थीं।

उनके शानदार, प्रभावी व्यक्तित्व से आतंकित होकर वह अपने सूती सलवार सूट में संकुचित होकर सिकुड़ सिमट कर बैठ गईंं थीं।अचानक ही कुछ देर में उन्होंने उनके साथ टूटी फूटी हिन्दी मेंं वार्तालाप आरंभ कर दिया। बातचीत का विषय नन्हा यश था।चंद मिनटों में वह उनके साथ घुलमिल गईंं थीं। वह हिंदी भाषा अच्छी तरह समझ लेती थीं।परंतु बोलने में कच्ची थीं।

लक्ष्मी अयंगर ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह आई. ए.एस अधिकारी की पत्नी हैं। इस समय वह अपने भाई के पास बंग्लूरु जा रही हैं। वह बार बार अपने पति व्यंकटेश की बातें कर रही थीं ।उनकी पसंद और नापसंद के बारे मेंं बातें कर रही थीं।

वह यश और गोलू की बाल सुलभ क्रीड़ाओं के आकर्षण में बंध कर वह उन्मुक्त होकर बच्चों के साथ उल्लसित होकर खेलने में लगी थीं। कभी उनके साथ तोतली भाषा में बात करतीं तो कभी ,तो कभी लूडो तो कभी गेंद खेलती हुई स्वयं बच्चा बनी हुई थींं।

.दोनों बच्चों के साथ खेलते हुए उनके चेहरे पर खुशी और उल्लास छाया हुआ था।वह.अपना नावेल बैग के अंदर रख चुकी थीं। उनके चेहरे की खुशी देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था ,मानो वह बाहरी दुनिया से दूर अपने बचपन को जी रही हैं।

बच्चे थक कर सो गए थे और हम आपस में घुलमिल गये थे तो सरला जी के मन में उत्कंठा जागृत हुई और र वह लक्ष्मी जी से पूछ बैठीं थीं,"आपके बच्चे?"

उनके बोले हुये इन दो शब्दों को सुनते ही उनके चेहरे की खुशी गायब हो गई थी।

उनका चेहरा उतर गया था और सफेद पड़ गया था।वह उदास हो उठीं थीं।चेहरे पर गंभीरता छा गई थी। वह मन ही मन घबरा उठी थीं और अपराध बोध से पीड़ित होकर सोचने को मजबूर हो उठी थी कि वह कोई भारी गलती कर बैठीं हैं।

लक्ष्मी जी कुछ लम्हों के लिए गुमसुम होकर एकदम चुप हो गई थींं। उनकी आंखों में गीलापन दिख रहा था।थोड़े अंतराल के बाद वह सामान्य होने की कोशिश करते हुए बोलीं,"वह उच्च शिक्षा प्राप्त गोल्ड मैडल प्राप्त धनी महिला हैं।उनके पास कोठी, बंगला, कार,इज्ज़त, शोहरत, नौकर चाकर सब कुछ है और नहीं है तो एक अदद बच्चा....

एक बार वह उम्मीद से हुई थीं लेकिन एक हादसे में सारी उम्मीद खत्म हो गई।

ससुराल पक्ष के दबाव में पति बच्चा गोद लेने को राजी नहीं हुए... उनका कहना था कि पराया खून पराया ही होता है, कभी अपना कभी नहीं हो सकता। इसीलिए मन के किसी कोने में मां न बन पाने का दर्द कचोटता रहता है....

धन ,पद, प्रतिष्ठा,सब कुछ होते हुए भी मातृत्व के बिना स्वयं को अधूरा मानती हूँ।मैं एनजीओ से जुड़ गई हूं और वहां पर गरीब, अनाथ बच्चों की सेवा करके अपने मन की कुंठा को भूलने का प्रयास करती रहती हूं।परंतु सच्चाई यही है कि मां न बन पाने के कारण आज भी अपने स्त्रीत्व को अधूरा मानती हूँ और बच्चे के नाम पर मेरी आंखें छलक उठती हैं।



Rate this content
Log in