"समाधान"
"समाधान"
अचानक काम करते-करते वह बंधन में जकड़ ली गई तो उसे खुशी की बजाय गुस्सा ही आया पर अपनी दस साल की बिटिया के लिए उसे सब सहना था।आशा एक विधवा थी उसपर से एक बच्ची की माँ।खैरियत था कि पापा ने उसे उच्च शिक्षा दिलवाई थी और वह एक सफल वकील थी।उसकी पहली शादी मनोज से हुई थी वो एक सफल बिजनेस मैन थे ।मनोज की खासियत थी उनका घर और बिजनेस को अलग रखना। अपने चचेरे भाई की शादी में उन्होंने आशा को देखा और मुग्ध हो गये फिर ज़िद में आ गये। अंततः उनकी शादी बिना किसी लेन-देन के आशा से हो गई।
ऐसा नहीं था कि आशा बहुत खूबसूरत थी बस उसके स्वभाव ने उनका मन मोह लिया था।
शादी के बाद आशा ने बड़ी ही खूबसूरती से उन्हें और उनके परिवार को सम्भाल लिया था। मनोज बहुत प्रसन्न थे।वे आशा को लेकर देश-विदेश घूम आये।आशा की तो मानों दुनिया ही बदल गई थी।
हर शानो-शौकत का सामान उसके पास मौजूद था पर उसे तो गरीबों के लिए लंगर चलाने का शौक़ था।उनके बच्चों को बिना मूल्य पढ़ाने का शौक़ था। पति की भी पूरी छूट थी वह अपनी मर्जी का काम घर सम्भालते हुए कर सकती थी।इसी तरह तीन वर्ष बीत गए,अब एक बच्चे की चाहत उसे भी थी।
पूरा परिवार डॉ को दिखाने की सलाह देने लगा। मनोज ने एक डॉक्टर से समय भी ले लिया लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई।सुबह से ही उसकी तबियत खराब लग रही थी जी घबरा सा रहा था तब मनोज ने डॉ को घर पर बुला लिया। डॉ के यह कहते ही कि,वह माँ बनने बाली है और कुछ टेस्ट आदि लिख दिये।
सब परिवार बाले बहुत खुश थे पर,मनोज तो बहुत ही ज्यादा प्रसन्न थे।
अब मनोज और भी आशा पर ध्यान देने लगे।बस आये दिन उनमें बहस हो जाती मनोज को आशा की तरह बिटिया चाहिए थी तो आशा को मनोज जैसा बेटा।खैर वो दिन भी आगया जब आशा ने हस्पताल में एक प्यारी सी बिटिया को जन्म दिया। मनोज और सारे घर बाले खुलकर खुशियाँ मना रहे थे।
अब मनोज को बिजनेस से ज्यादा बिटिया प्यारी लगने लगी। लेकिन,कहते हैं न किसी की ज्यादा खुशियों को नज़र लग जाती है। दोनों ने बड़े प्यार से बेटी का नाम अमायरा रखा था। सिर्फ तीन साल अमायरा ने पिता का प्रेम पाया। अचानक व्यापार में आये घाटे को वो बर्दाश्त नहीं कर पाये ब्रेन हैमरेज होने से उनकी जान चली गई।
आशा पर तो पहाड़ ही टूट पड़ा। परिवार वालों ने बहुत सहारा दिया पर न जाने क्यों उसे ही अच्छा नहीं लगता था। इधर बहुत समझाने पर वह दूसरी शादी के लिए मान गई थी। सभी बच्चों के पापा थे तो नन्हीं अमायरा भी पापा की ज़िद करने लगी थी।
विजय भी दो टीनएजर बच्चों के पिता थे। देखने में भी ठीक-ठाक थे और स्वभाव किसी से चंद मुलाकातों में कोई कैसे जान सकता है।आशा ने सोचा दो बच्चे उनके और एक बच्ची उसकी वह सबको बराबर का प्यार देगी। लेकिन शादी के बाद उसे इतना समझ आगया कि उसकी बेटी का स्थान उनके बच्चों के बराबरी तो दूर एकदम नीचे है फिर भी उसने अपने तरफ से भरपूर कोशिश की।
विजय को न तो बच्चों से मतलब था और ना ही घर से ।वह तो बस एकमुश्त घर चलाने की राशि उसके हाथ में रख देते और हर रात उसका ब्याज उससे वसूलते। शादी की शुरुआत में तो यह सब उतना बुरा नहीं लगता था। पर अब यह सब खलने लगा था।एक तो दोनों बड़े होते बच्चों की शैतानियों से वह त्रस्त थी उसपर से विजय का वह देना-पावना।वह कहे तो किससे।
इधर तो एक और समस्या से वह परेशान थी विजय अब अक्सर दिन में भी उसे परेशान करने लगे थे। तीनों बच्चों के स्कूल जाते ही उसे बिस्तर पर खींच लेते और फिर शुरू होता उसके रूप का बखान।वो बड़बड़ाते जाते --ओह तुम कितनी सुंदर हो, तुम्हारी आँखों में डूबने को जी चाहता है,और तुम्हारे ये गुलाब से होंठ,नशा हो नशा।पर, अपनी मंशा पूरी होते ही उसके सारे सौंदर्य पर झाड़ू फेर देते,कहते भाग्यशाली हो जो मैं तुम्हें इतनी तवज्जो देता हूँ।
इसी तरह सात साल निकल गए। दोनों बड़े बच्चों ने विदेश में पढ़ने का निर्णय किया। अब उसे लगा वह चैन से अपनी बेटी के साथ रह सकेगी और उसकी पढ़ाई पर ध्यान देगी।अमायरा बारहवें साल में कदम रखने जा रही थी अपने पापा की तरह बेहद खूबसूरत और जहीन थी।
एक दिन विजय अपना वही पूराना राग अलाप रहे थे तभी अमायरा वहाँ आगई शायद स्कूल की छुट्टी किसी कारणवश होगई थी।अमायरा को उस समय विजय ने जिस दृष्टि से देखा वह उसे तिलमिला गया। नारी पुरुष के इन कामी आँखों को तत्काल पहचान लेती है।आशा ने भी पहचाना और अमायरा ने भी।
अमायरा अपने कमरे में गयी और विजय उसे लेकर कमरे में चला आया। फिर वही बातें इस बार आशा ने कहा अब बेटी बड़ी हो रही है तुम्हें थोड़ा संयम बरतना चाहिए।विजय ने पलट कर कहा -'बेटी होगी तुम्हारी'। विजय के इस वाक्य ने आशा को अगाह कर दिया। उसने तत्काल एक निर्णय लिया ।
अगले दिन अमायरा को उसने होस्टल में रहकर पढ़ाई करने के लिए मना लिया। आनन-फानन उसने बिना विजय को बताये उसे होस्टल में डाल दिया । विजय तो किसी और स्वपन में था अपने सपने का अंत देख उसने खूब कोहराम मचाया।आशा को बहुत प्रताड़ित भी किया और तरह-तरह की यातनाएँ दी पर आशा ने उसके मकसद पर पानी फेरते हुए पुनः अपनी वकालत शुरू कर दी।
आशा को विजय ने तलाक दे दिया।अब आशा आत्मनिर्भर थी।और उसे खुशी इस बात की थी कि उसने अपनी बेटी को उस दरिंदे से बचाकर एक सुखमय भविष्य दिया था।
