शहरी आकर्षण.
शहरी आकर्षण.
जैसे की हमें ज्ञात हैं कि हमारा भारत देश असंख्य देहातों से बना हैं। देश की सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत देहातों में ही सुरक्षित थी और रहेगी !। गांवों में कृषि आधारित व्यवसाय भी चलते थे। गांव के युवक गांव में विद्यमान व्यवसाय को ही अपना लेते थे। हर गांव की आर्थिक स्थिति ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ही निर्भर रहती थी। इस तरह गांव में खुशहाली रहती थी। ग्रामीण में रहनेवाले इस व्यवस्था से खुश और अभ्यस्त हो चुके थे। इसलिए गांव में ज्यादातर खुशहाली का वातावरण रहता था। वहाँ कोई समस्या नहीं रहती थी। आर्थिक असमानता नाममात्र ही दिखाई देती थी।
लेकिन आजादी के बाद औद्योगीकरण होने से छोटे-बड़े शहरों का तेजी से निर्माण हो चुका था। सरकार का ग्रामीणों के तरफ उदासीन दृष्टिकोण होने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था लगातार चरमरा रही थी। प्रगतिशील, ऊर्जावान व शिक्षित युवक अच्छे जिंदगी के तलाश में गाँवों को छोड़कर छोटे शहरों में और छोटे शहरों के बाशिंदे बड़े –बड़े शहरों में जाकर बसे थे। उन शहरों में गांवों जैसा सुकून नहीं था। लेकिन गांव जैसी आर्थिक बदहाली नहीं थी। परिवार के बच्चों की शिक्षा की सुविधा भी शहरों में मिल जाती थी। इन सब बातों का अभ्यास करने के बाद ग्रामीण लड़के शहर के तरफ तेजी से पलायन लगातार करते रहे थे। शहरों की चका-चौंध जिंदगी देखकर गांव की लड़कियां भी ग्रामीण लड़कों से शादी करने में आना-कानी करने लगी थी। इस समस्या का सरकार कोई स्थाई समाधान ढूंढने में रुची नहीं दिखा रही थी। गांव और अन्य शहरों के लड़कियों में गांव में रहनेवाले लड़कों से शादी नहीं करनी प्रबल प्रवृत्ति विकसित हुई थी।
एक साधारण बड़े गांव में एक किसान था। उसके पास सीमित खेती-बाड़ी थी। उसे दो लड़के और एक लड़की थी। परिवार के आर्थिक समृद्धि के लिए उसने जुगाड़ करके अपने ही घर में एक आटा-चक्की लगाई थी। खेती के आय के साथ अभी उसके व्यवसाय से भी आमदनी होने लगी थी। गांव में स्कूल होने के कारण उसने अपने सभी बच्चों को स्कूल भेजा था। सभी बच्चों ने बारहवीं तक की पढ़ाई पुरी कर ली थी। लेकिन मझोला लड़का पढ़ाई में तेज था। उसने बारहवीं के बाद पॉलीटेकनिक कर ली थी। बाद में उसने इंजीनियरिंग की भी पदवी ले ली थी। बड़े लड़के ने आटा-चक्की का व्यवसाय संभाल लिया था। पिता खेती के साथ-साथ आटा-चक्की के व्यवसाय में भी मदद करता था। अब लड़की की हाथ पिले करने की उम्र हो चुकी थी। पिता ने अपने प्रयास उस दिशा में तेज कर दिए थे। कई ग्रामीण के अच्छे घरानों से रिश्ते आ रहे थे। लेकिन लड़की और उसके मां ने अपनी रॉय बनाई थी कि उसे गांव में किसान के बेटे से कतई शादी नहीं रचानी हैं। दोनों अपने विचार पर अडिग थी। वह शहर में किसी चपरासी से या चाय की टपरीवाले से शादी करना पसंद करेगी !। लेकिन गांव के जमींदार से शादी नहीं करेगी। क्यों की वे दोनों गांव की माली हालत जानती थी। नेताओं के संकुचित, सीमित दृष्टिकोण के कारण गांव उजड़ने लगे थे। गांव के युवक गांव छोड़ -छोड़ के रोजगार के लिए शहरों में जा कर बस रहे थे। गांव में बड़े बाड़े में रहनेवाला युवक शहरों के झुग्गी-झोंपड़ी में रहने लगा था। सरकार की उदासीन रवैये के कारण किसानों की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी। देश आज खाद्यान्न में जरूर किसानों के प्रयासों से आत्मनिर्भर हो चुका हैं। लेकिन कृषक की आर्थिक स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया हैं। आज भी वह कर्ज में जिता हैं और कर्ज में ही मरता हैं। देशवासियों के पेट की वह चिंता करता हैं। लेकिन उसका जीवन –मान सुधारने के लिए ना तो सरकार प्रयास करती हैं, ना जनता। उसे खेत के उपज का सही मूल्य भी देने में संकोच होता है। देशवासी मदद का हाथ बढ़ाने के बजाए, अपना हाथ खिंचता हैं क्योंकि उसे सभी जीवनाशक सामान आसानी से बाजार में मिल जाती हैं। मजबूरी में वह अपनी फसल दलालों को औने-पौने दाम में बेचकर अपने परिवार का गुजारा करता हैं। जिसमें दलाल, अडितीयाँ और बड़ा व्यवसायी माला-माल होते जा रहा हैं। और किसानों की हालत हालाकान बनती जा रही हैं।
ऐसे परिस्थितियों के कारण ग्रामीण की लड़कियां किसान के बेटे से शादी करने में परहेज क्यों ना करे । उस परिवार के लड़की को उसके इच्छानुसार बड़े शहर से एक रिश्ता आया था। लड़का निजी कंपनी में काम करता था। उसके पिता सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी थे। उन्हें सेवा निवृत्त वेतन भी मिलता था। उसे एक देवर भी था। जो पढ़ रहा था। मां और बेटी की शर्तोंनुसार लड़का फिट बैठ रहा था। उसके माता-पिता ने उसके हाथ पिले कर दिए थे। दोनों खुशी से खुशहाल जिंदगी जी रहे थे। उसे एक लड़का और एक लड़की भी हुई थी। बाद उसके बड़े भाई की भी शादी हो गई थी। छोटा भाई इंजीनियर होकर अपने बहन के शहर में ही जॉब कर रहा था। उसका बाद में प्रेम विवाह संपन्न हुआ था। मात-पिता अपने मुख्य बड़ी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गये थे। सभी के सुनहरे दिन चल रहे थे। अचानक देश में महामारी का प्रकोप हो गया था। महामारी इतनी भयानक थी कि जनता त्राही-त्राही हो चुकी थी। सरकार भी घुटाने के बल आ चुकी थी। इस महामारी में रोजगार की बड़ी समस्या खड़ी हो चुकी थी। कई स्थाई, अस्थाई युवक अपनी जॉब खो चुके थे। उसे में उस लड़की का पति भी जॉब खो चुका था। हर तरफ अंधेरा और खौफ का साया था। हर कोई अपनी परिवार की जॉन बचाने में लगा था। कइयों ने अपना पति, पत्नी, बच्चे, मां-बाप और सगे संबंधियों को खोया था। हर तरफ आतंक फैल चुका था। महामारी-योद्धाओं और सरकार के प्रयासों से महामारी नियंत्रित हो चुकी थी। लेकिन फिर कुछ अंतराल के बाद अपना सिर उठाती रहती थी। ऐसे कई दौर देशवासियों ने देखे थे। कई तो अपने माता-पिता का अंतिम संस्कार करने से मरहूम हुये थे। कई बच्चे अनाथ हो चुके थे। सबकी आर्थिक परिस्थितियां काफी नाजुक और कइयों की तो रसातल में पहुंच चुकी थी। देश की सकल घरेलू उत्पाद काफी ऋणात्मक हो चुकी थी। ऐसे परिस्थितियों में गांव के किसानों ने देश को आर्थिक बदहाली से उबारा था क्योंकि अन्य सभी मोर्चों पर देश का उत्पादन ठप्प और सभी उद्योग बंद हो चुके थे। आर्थिक बदहाली के कारण बाजार में कोई उसकी मांग नहीं थी। जनता को सिर्फ दो वक्त की रोटी और दवा-दारु के व्यतिरिक्त किसी चीज की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। देश का किसान हमारा नाम-मात्र अन्नदाता संकटमोचक बनकर उभरा था।
उस पीड़ित परिवार के पास कोई खेती नहीं थी। परिवार को चलाने के लिए कुछ तो करना जरूरी था। उन्होंने रोजमर्रा के कुछ घरेलू उत्पाद बनाने शुरू किये थे। उसको अच्छा प्रतिसाद मिलने पर उन्होंने छोटे-मोटे कुछ मशिने खरीदी कर व्यवसाय शुरु किया था। कुछ लोगों को रोजगार भी दिया था। फिर उसी में अपना ध्यान एकत्रित करके व्यवसाय बड़ा करने का प्रयास कर रहे थे। उस समय फिर से कोई जॉब मिलने की कोई संभावना नहीं थी। महामारी का प्रकोप गांवों के अपेक्षा शहरों में अधिक था। भुखमरी की समस्या शहरवासियों में अधिक थी। इसका मतलब साफ हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में काफी गहराई है। कठिन परिस्थितियों में वह आसानी से गिर नहीं जाती हैं। सिर्फ युवा और देश के नीति निर्माताओं को उसके शक्ति को समझने की आवश्यकता मात्र हैं। वह पहिले भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी थी। और कल भी हो सकती हैं। बस उसे सशक्त करने की सरकार की इच्छा शक्ति होनी चाहिए !।
