Bhawna Kukreti

Others

4.7  

Bhawna Kukreti

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सड़क

सड़क

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जीवन मे एक ही बात है जो भाती भी है और जी दुखाती भी है कि इसमें कुछ भी रुका नहीं रहता।तुम्हारा साथ पाया था तो लगा जैसे बचपन मिल गया हो और जब तुम्हे खोया तो लगा ...

जनवरी का वो सबसे ठंडा दिन, "सेंथिल ..पागल हो क्या? तुम्हे मना किया गया है न ! " तुम्हे छिप कर वंदिता के साथ सिगरेट पीते देख लगभग चिल्लाते हुए कहा था मैंने और तुमने हल्की सी मुस्कान देकर कहा था ,"चिल बानी, कुछ नहीं होता "। अगले ही पल तुम वंदिता के साथ लांग राइड पर निकल गए थे। वो भी हाफ स्वेटर में। कितना गुस्सा भर आया था उस दिन मुझमे तुम्हारी लापरवाही देख कर । तुम्हारी फिक्र करना मेंरे लिए कतई जरूरी नहीं था।तुम्हारा प्यार वंदिता तुम्हारे साथ थी और भी बहुत लोग थे तुम्हारे जीवन मे जो तुम पर जान छिड़कते थे।

"सुनो मैंम, तुम्हारी एक टांग छोटी है क्या? जब देखो चलते अचानक गिर पड़ती हो।" ,"तुम्हारा उपर का माला खाली है क्या मैंम?उतनी देर से इशारा कर रहा था समझ नही रही थी।" या फिर "चलो मैंम आपको छोटे गोलगप्पे खिलाऊँ , आपके लिए एक जॉइंट ढूंढा है।" ऐसी कितनी ही बातें याद आती हैं लेकिन कभी सही से किसी को समझा ही नही पाई की तुमसे क्या नाता था। हां, शुरू में दोस्त तो नही थे हम सिर्फ जान पहचान थी। आते जाते रास्ते मे मिलते रहते थे बात करते थे,हाल चाल ले लेते थे कभी साथ बैठ कर कुछ खा पी लेते,कभी कहीं अचानक से घूम आते और एक दूसरे की फिक्र करते,मदद करते। कितने दिनों तक एक दूसरे का घर बार तक नही पूछा। ये सब यकीन करने लायक नहीं लगता पर सच तो था न!

शुरुआत भी तो अजीब सी ही थी इस जान पहचान की। तुम अपने आवारा दोस्तों के साथ मेंन सड़क पर पान की गुमटी पर खड़े थे। तुम्हारे दोस्तों ने मुझे अकेला आता देख कर सीटी बजायी थी।मेरा मन उस दिन अच्छा नहीं था।जाने किस सोच में थी कि उलझ पड़ी थी।" सीटी किसने बजायी?" यह प्रतिकार शायद तुम सबने कभी सोचा नहीं था । सब ने तुम्हारी ओर देखा था।"नो नो मैंम, मैने ये हरकत नहीं की..@#$% सोरी बोलो सब।","सोरी मैंम " सारे हड़बड़ाते हुए बोले थे।

अगले दिन तुम मुझे लहू लुहान भीड़ से घिरे सड़क पर दिखे थे। मुंदती आंखों से मुझे भीड़ में पहचान कर तुमने मेरी ओर इशारा किया था। हम तब भी अंजान ही थे मगर भीड़ ने मुझे तुम्हारा परिचित समझ कर मुझसे पूछ ताछ शुरू कर दी थी। तुम्हारी पेंट की जेब से मुझे तुम्हारा फोन मिला,जिससे मैने 'पापा' लिखा डायल किया था। मै हैरान रह गयी जब तुम्हे लेने दो-दो मर्सिडीज से लोग आए। तुम्हे उस हाल में देख कैसे बिखर से गये थे सब।तुमने टूटती आवाज में मुझे "मैंम मेरे साथ रहिये प्लीज़ " कहा था। वो मानवता थी शायद की में एक अनजान के लिए अंजानो के साथ कार में बैठ कर हॉस्पिटल तक चली आयी।

सब जैसे फ़ास्ट मोड चल रहा था।तुम्हे खून की जरूरत थी और मेरा ब्लड वही था जो तुम्हे चाहिए था।मेरे घर से भी सब चले आये थे।पर रात कब निकल गयी पता नहीं चला। सुबह तुम्हे होश आया तो तुम दोस्तों की भीड़ के बीच थे । इतने सारे दोस्त!! मैं और मेरे पति हैरान रह गये थे। फिर उन सबके बीच मुझे देख कर तुमने अपनी हल्की सी मुस्कान में शुक्रिया कहा। "सेंथिल" तुमने अपनी ओर इशारा करते कहा था, तुम्हारी देखा देखी "बानी" कह कर में बाय कर अपने घर चली आयी थी।

पंद्रह बीस दिन बाद तुम फिर टकराये लेकिन इस बार सिनेमा हॉल के कैफेटेरिया में । वंदिता साथ थी तुम्हारे, बहुत प्यारे लग रहे थे तुम दोनो। तुम हैरान थे मुझे अकेले मूवी देखने आया जान कर।ये मुझे जॉइन करने वाले थे लेकिन इन मौके पर काम आ गया था सो अकेले चली आयी थी। कितनी गर्मजोशी से मिले थे तुम मानो गहरी दोस्ती हो। हम दोनों को एक दूसरे के नाम याद थे। तुम्हारे स्नैक्स के पेमेंट के दौरान तुम्हारे हाथ मे पकड़ा लिफाफा वहीं काउंटर पर रह गया था। तुम्हारे जाने के बाद वेटर ने मुझे तुम्हारा परिचित जान कर थमा दिया। लेकिन तुम किस ऑडिटोरियम में हो ये मुझे नहीं पता था।

लिफाफे में लिखे पते से इनको तुम्हारा फोन नंबर मिला। अगले दिन,"हेलो बानी! " मेरे हेलो कहते ही तुम्हारा इस तरह बे तकल्लुफ़ मेरा नाम कहना , मेरी आवाज पहचान जाना मुझे फिर हैरान कर गया था।"कैसे हो बेटा?"कहते ही कैसे तुम बिदक गए थे लेकिन फिर हंसते हुए बोले थे ,"घर पर मां है मैंम, आप तो यंग हो अभी,
मुझे सेंथिल कहो।"

अक्सर हम फिर शहर के किसी न किसी कोने में सड़क पर आते जाते बार बार टकरा जाते। एक दूसरे की पसन्द नापसन्द बारे में, और भी जाने कितना कुछ जान ने लगे थे। तुम बहुत खुल गए थे ,आप से तुम, कभी भी कैसा भी मजाक करते , हक जताते हुए कभी मैंम चलो कुछ खाने चलो,या मैंम यहां घूमने चलें, कहते। हमने ऐसे कितने घंटे साथ बिताए होंगे, ये ध्यान ही नहीं । आश्चर्य होता है कि इतना विश्वास वो भी तेजी से बदलते जमाने मे और काफी समय तक हमने कभी एक दूसरे का पता ठिकाना तक नहीं पूछा।

सालों से इस शहर में बिन रिश्तेदारों/ दोस्तों के अकेले रहते रहते ,हमारी रूटीन उबाऊ सी जिंदगी में जैसे उमंग सी भरने लगी थी। जैसे बचपन का खिलंदड़पन लौट आया। अगले पांच सालों में शायद ही कोई त्योहार हमने अकेले मनाया हो। तुम अक्सर आते जाते सड़कों,रास्तों,जगहों पर ऐसे मिल जाते थे जैसे कोई इन्नोसेंट सी सेरेंडीपीटी हो रही हो। मेरे साथ साथ ये भी हैरान होते जब तुम अचानक से सामने आकर "हेलो बानी मैंम, आनंद सर " कहते।

फिर जाने कैसे तुम हमारी छोटी बड़ी मुश्किलें भांप लेते थे। ओर कितने इफैक्टिव ,सिंपल सॉल्यूशन बता देते थे।मगर कितनी ही बार तुम्हारे और वंदिता के बीच के झगड़े सुलझाने के लिए तुम सिर्फ मेरी राह देखते और इनके लिए कहते "आंनद सर को तो लाना मत बीच मे, वो मुझे ही समझाएंगे ।" सब सुलझने के बाद तुम अकेले में फिर मुझसे ही उलझ पड़ते "क्या मैंम तुम उसे पहले से जानती हो या मुझे?" तुम ज्यादा देर तक रूठ भी नहीं पाते थे। एक बार तुम्हारी उस हरकत हमे चौंका दिया था जब तुमने महीने भर बाद हमे गली में आता देख भाग कर मेरे हाथ पकड कर बोलने लगे थे, " मुझे लगा मैंने तुम्हे खो दिया बानी ! यार मैंम ...में वाकई पागल हूँ मेरी बातों का कभी बुरा मत मानना प्लीज़" । हालांकि हुआ कुछ नहीं था,हमेशा की तरह बस हल्की फुल्की नोकझोंक ही हुई थी। आज भी हंसी आती है कि तुम वह सब कह रहे थे और हमें ,छोटू तुम्हारी फिक्र थी कि तुम कहाँ हो?कैसे हो?काफी दिन हो गए थे तुमसे मिले।

वंदिता के साथ सगाई की अंगूठी दिखाते तुम कितने खुश थे।"मुझे मेरी जिंदगी ने हां कह दिया बानी मैंम! तुम्हे ढूंढता रहा । तुम कहाँ थीं इतने दिन , मिली क्यों नही। काश तुम भी शामिल होती मैंम..मेरी सेरेमनी में। " ये कहते हुए कैसे बोल रहीं थी तुम्हरी कांजी आंखें। उस दिन तुम्हारी खुशी देख कर हम दोनों का मन भी बहुत खुश हो गया था। मगर वंदिता ने उसी शाम मुझे फोन पर तुमसे मेल जोल रखने से मना कर दिया था। उस दिन पहली बार वंदिता की बातों से मेरा मन अजीब सा हो गया था। इनको भी बताया और पूछा कि इसने क्यों ऐसा कहा? वो जानती है कि छोटू कहती हूँ उसे मैं । इन्होंने वंदिता की परवरिश-माहौल पर बात टाल दी।लेकिन वंदिता की मनोदशा और बातें मुझको एफ्फेक्ट कर चुकी थी। इसलिए तुम्हे देखते ही राह बदलने लगी थी।

कितना नाराज हुए थे तुम मेरे इस बर्ताव पर। लेकिन वंदिता का मन सिर्फ मैं समझ रही थी। उस दिन फोन पर वंदिता ने पूछा था कि हमारे बीच क्या रिश्ता है? सिर्फ दोस्ती? ऐसी कैसी बेमेल दोस्ती है ये ?" इसका जवाब उसे नहीं दे पाई थी। ये महज दोस्ती नहीं थी लेकिन जैसा वंदिता सोच रही थी वह तो कतई कतई नहीं था। "तो और क्या है ?", "अपनेपन का रिश्ता " लेकिन वंदिता सुनने को तैयार नहीं थी। सेंथिल की हर वक्त बानी मैंम , बानी मैंम की रट से उसे दिक्कत हो रही थी।खुल कर वह सेंथिल से कह नहीं पा रही थी। उसने बात सुनने से पहले ही फोन काट दिया। लेकिन मैं इस अपमान में भी कुछ-कुछ समझ रही थी।

जानते हो इन्होंने मेरा साथ दिया । लगा अपनेपन से भरे रिश्ते अगर ईश्वर के जोड़े प्यारे रिश्ते में उलझन भर रहे है तो उसे खत्म कर देना ठीक रहेगा नहीं तो अगर जीवनसाथी के मन मे बेमतलब शक जड़ पकड़ ले तो...निर्दोष जीवन बर्बाद हो जाएगा । और तुम्हारे लिए ऐसा तो कभी सोच भी नहीं सकती थी। फिर वंदिता की सोच मुझे लेकर जो भी हो पर वह तुम्हारे लिए क्या मायने रखती है यह हम दोनों शिद्दत से महसूस करते थे और वंदिता का बेमतलब का डर भी। वो नए जमाने की लड़की थी, विदेश में पली बढ़ी, हर तरह से सोचती थी।
सो तुमसे दूरियां बढ़ाने के लिए सड़को पर कितनी बार , हम दोनों ने खड़े खड़े कितनी बेरुखी, बदतमीजी , बेमतलब की बहसें करी मगर तुमने अपनी जिंदगी में मुझे और इनको भी खींच खींच कर शामिल करना शुरू कर दिया। शादी की सारी खरीदारी, वेन्यू सिलेक्शन वगैरह सब में मेरी और इनकी राय के बिना कुछ फाइनल न होने देना..। अफसोस होता था कि वन्दिता, उसके मन मे जाने क्यों ये गलतफहमी आयी मगर अगर वो तब भी सेंथिल का इस तरह मुझसे पूछना ..ये सब जानती तो..उफ्फ!

आखिरकार तुम्हारी जिद से मैं सपरिवार तुम्हारी शादी में शरीक हुई लेकिन जब फेरों के वक्त तुमने मुझसे मजाक में पूछा "मैंम फेरे लूँ या न लूँ" तब वंदिता की आंखों में अचानक उतर आये आंसूओं ने मुझे अहसास दिलाया कि अब मुझे हमेशा के लिए खो जाना चाहिए तुम्हारी जिंदगी से... तुम्हारी वंदिता के लिए, तुम्हारी खुशहाल जिंदगी के लिए।

सुनो छोटू ,उस दिन के बाद भी हमारे जीवन मे सब वैसा ही रहा जैसा तुम बना गए थे, बेफिक्र अल्हड़ बचपन सा।हां, हमारे जीवन मे एक बेटा और बेटी भी आ गए है। हम सब खुश हैं । लेकिन कुछ सालों तक किसी से भी ज्यादा मेलजोल बढ़ाने में हेसिटेशन हुई, मेल जोल बढ़ते ही अपमान की याद चुभने लगती थी । हालांकि आंनद समझाते रहे कि सेंथिल का मन साफ था और हम किसी तीसरे की सोच की गारेंटी नहीं ले सकते।

बहरहाल शायद अब बढ़ती उम्र का तकाजा है अब तो लोगों, रास्तों, सड़कों के नाम भी याद नहीं रहते।आज बेटी ने नेशनल अखबार में तुम्हारे बेटे की बोर्ड में टॉप करने की खबर दिखाई है।तुम्हरी तस्वीर से तुम्हे पहचाना वरना नाम याद नहीं आ रहा था। हम सब खुश हैं कि तुम और वंदिता अपने परिवार में खुश हो । ईश्वर तुम दोनों को हमेशा खुश रखे।

जानते हो अक्सर अपने बेटे-बेटी में मुझे तुम्हारी जेनेरेशन की फ्रेंडली अप्प्रोच दिख जाती है। उनको इस पर दुलारती हूँ तो वे कहते भी है "सेंथिल दादा कि याद आयी न!" मैं पूछ बैठती हूँ "कौन सेंथिल?" अक्सर बेटा कहता है " वही छोटू जिसकी सड़क से शुरू हुई  स्टोरी सुनाते थे। " तब जाकर तुम्हारा चेहरा याद पड़ता है।


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