सैंटाक्लाज
सैंटाक्लाज
संडे की सुबह घड़ी में नौ बज रहे थे। सत्या जी ज़रा ज़ोर -ज़ोर से घंटी बजा रही थी।
रीमा समझ गई अब कुछ देर हुई तो संडे ख़राब। उठकर चाय चढ़ा दिया।
घंटी की आवाज़ धीमी हो गई।
“क्या माँ इतनी ठंड में सुबह -सुबह नहाने की क्या ज़रूरत ?” राज ने भी उठकर मातृ प्रेम दर्शाने कीकोशिश की।
“ज़िन्दगी बीत गई अब क्या होगा?जवानी में तो चार बजे भोर में उठकर गंगा जी नहाने जाते थे। ”
“हाँ ! ग्रैनी आप तो सुपर दादी हो। ”सात साल की पोती रूची ने भी प्यार जताया।
सब जानते हैं सत्या जी को रविवार का इंतज़ार रहता है क्योंकि सभी घर पर रहते हैं,तो बातें करनेका अवसर मिलता है, वरना अन्य दिनों में सभी अपने -अपने कार्यों में व्यस्त।
डिनर के पश्चात रूची की ज़िद पर आइसक्रीम खाने का प्रोग्राम बना।
“अरे ! इतनी ठंडी में कोई आइस्क्रीम खाता है भला। ”
“हाँ ! ग्रैनी आप भी चलो ना !”
प्यारी पोती के ज़िद के आगे सत्या जी भी जूते,जैकेट, टोपी पहन कर गाड़ी में बैठ गई।
पच्चीस दिसंबर की रात थी। घने कोहरे के कारण गाड़ी चलाने में काफ़ी दिक़्क़त हो रही थी। पाँचफ़ीट आगे का भी कुछ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था। किसी तरह गाड़ी सुप्रसिद्ध मॉल पर रुकी। सभीउतर गए लेकिन सत्या जी बोली “तुम लोग हो आओ मैं गाड़ी में ही बैठती हूँ मुझसे ज़्यादा चला नहींजाएगा। ”अनुनय विनय का भी सत्या जी पर कोई असर नहीं हुआ तो सभी चले गए। थोड़ी देर मेंसैंटाक्लॉज बना एक दस साल का बालक लाल- लाल दिल आकृति के बैलून बेचने के लिए गाड़ीकी खिड़की पर आकर सत्या जी से आग्रह करने लगा।
“अरे ! मैं क्या करूँगी इनका। ”
“ले लो ना दादीमाँ घर पर मेरी भी दादी हैं जो बहुत बीमार है। जिसके लिए दवाई ख़रीदना है। ”
सत्या जी ने पर्स से सौ रूपये निकाल कर देना चाहा और कहा “ये पैसे रखो,मुझे ग़ुब्बारे नही लेनातुम और किसी को बेच दो। ”लेकिन बैलून वाले लड़के ने कहा नहीं दादी माँ मैं ऐसे पैसे नहीं लूँगाऔर चला गया। सत्या जी टुकुर-टुकुर देखती रही उस लड़के को जो हर आने -जाने वाले के पासदौड़कर बड़े आस लिए ग़ुब्बारे बेचने जाता।
एक घंटे बाद जब सब मॉल घुम कर वापस लौटे तो पूरी गाड़ी लाल -लाल ग़ुब्बारों से भरी हुई थीऔर सत्या जी की लाल टोपी और सफ़ेद जैकेट भी तन से ग़ायब थे।
“रूची ने चहकते हुए कहा वाऊ दादी माँ ! आप तो मेरी सच्ची वाली सैंटा हो। ”