रिश्तों की महक

रिश्तों की महक

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सुबह से रमा अपने कमरे में बैठी एक तस्वीर को निहार रही थी। अभी तक किसी ने भी फोन पर उनका हालचाल नहीं पूछा था। ऐसा लग रहा था कि स्वार्थ के कारण सारे रिश्ते भी दम तोड़ चुके थे। तस्वीर देखते-देखते रमा यादों में खो गई।

मात्र अठारह की थी रमा, जब वह इस घर में ब्याह कर आई थी, कितने सारे रिश्ते उसकी झोली में आ गए थे। बेटी से पत्नी बनते ही वह, बहू, भाभी, माँ, जेठानी-देवरानी न जाने कितने रिश्तों में बंध गईं। उसने हर रिश्ते को बड़ी खूबसूरती से निभाया,लेकिन सबकी खुशी में अपनी खुशी ढूंढने वाली रमा सदा अपने दुख में अकेली रही। लेकिन उसे इसका कभी मलाल नहीं रहा। सबका ध्यान रखना उसके जीवन का ध्येय था। पति दो प्यारे बच्चे और एक भरा-पूरा परिवार यही उसकी जमा-पूंजी थी। पर उसकी सास के मन का मलाल कभी-कभी बाहर आ ही जाता। उनका क्रोध वह हँसकर पी जाती। पति की जैसी आय होती है, पत्नी का वैसा ही सम्मान होता है। अपने तीनों भाईयों में उसके पति की आय सबसे कम थी। घर में हर बात में इसकी तुलना जरूर होती। सास-ससुर भी बातों-बातों में उलाहना जरूर देते-"अरे हम तो नौकरी वाली चाहते थे, कहां से ये पल्ले पड़ गई। हमारे बेटे की नौकरी अच्छी नहीं थी, सोचा था दोनों कमाएंगे तो गृहस्थी की गाड़ी अच्छी चल जाएगी।" वह हँसते हुए कह देती-"आप क्यों चिंता करती हैं मांजी ,हम नमकरोटी खाकर भी सदा खुश रहेंगे।"

समय निकला। दोनों बड़े भाई अलग हो गए। अब उनके बच्चे बड़े हो गए थे, उन्हें अब किसी की जरूरत नहीं थी। सास-ससुर उसके ही साथ थे। ननदें भी अब तीज-त्योहार को ही आती। उसके दोनों बच्चे इंजीनियरिंग कर रहे थे। दोनों की अच्छी जॉब लगी और दोनों विदेश चले गए। सास-ससुर की अवस्था ठीक नहीं थी, रमा और उसके पति उनकी देखभाल करते रहे। कोई उनकी खबर लेने भी नहीं आता। सास की निगाहें द्वार पर टिकी रहती कि शायद उनके बड़े लड़कों या लड़कियों में कोई मिलने आए और जब निराश हो जाती तो सारा गुस्सा रमा पर निकल जाता कि उसने ही सबको रोक दिया है आने से।अब रमा की सहनशक्ति जवाब देने लगी थी। पति अक्सर बीमार रहते। ससुर जी शांत हो चुके थे और सासु माँ और भी चिड़चिड़ी। वह चुपचाप पति और सास की सेवा में लगी थी। बच्चों के फोन आते -"मम्मी! बहुत हुआ अब, दादी को ताऊजी के छोड़ दो, आप पापा को लेकर हमारे पास आ जाओ। पापा के लिए इतना टेंशन ठीक नहीं।" लेकिन वह कैसे छोड़ दें? आगे से तो कोई उन्हें ले जाने को तैयार नहीं था और एकदिन सासू जी भी चली गई ईश्वर के पास। उस दिन उसने रिश्तों के खोखलेपन को भी महसूस किया। पूरा कुनबा जुटा। दुख कम .. संपत्ति को लेकर विचार-विमर्श ज्यादा। कितना क्या छोड़ गए हैं ,इस पर अटकलें लगीं, पुश्तैनी जमीन-जायदाद के हिस्से बांट होने लगे।


बड़े भाई मकान बेच कर पांच हिस्सों में बांटने की बात करने लगे थे। सब कुछ था उनके पास, पर ऐसा लग रहा था कि यदि पुश्तैनी संपत्ति से हिस्सा न मिला तो वे भिखारी हो जाएंगे। वह चुपचाप रिश्तों के टुकड़े समेट रही थी। पति ने भी कह दिया था कि-"बड़े भैया जो समझें सो करें। हमें कुछ लेना -देना नहीं।" उसके दोनों बच्चे भी आए थे, बोले "मम्मी-पापा अब भी यहीं रहना है, या चलना है हमारे साथ। अब तो आपकी तपस्या पूरी हो गई है न।"

"हां! हां बेटा ले जाओ इन्हें, अब तबियत भी ठीक नहीं रहती, यहां अकेले पड़े-पड़े क्या करेंगे। अब इतने बड़े घर को रखने से तो कोई फायदा नहीं। मकान-जमीन सब बिका। हिस्सा -बांट हुआ। और सब चल दिए अपने रास्ते पर। पति यह सब देख-सुन बहुत टूट से गए थे।" एक दिन बोले- "रमा! माफ़ कर सकोगी मुझे! मैं तुम्हें जीवन की कोई खुशी नहीं दे पाया। रिश्तों के जाल में ऐसा उलझाया कि न तुम अपने लिए जी सकीं ,न मेरे लिए। काश! "

"क्या कह रहे हो जी! देखो मुझे लगता है मैं दुखी हूं, अरे मैंने तो हर रिश्ते को भरपूर जिया और जीवन का खूब आनंद उठाया। अरे अगर हर कोई रिश्तों में स्वार्थ ढूंढने लगे तो फिर यह दुनिया तो रहने लायक ही नहीं रहेगी। ये धन-संपत्ति किसके पास टिकी है। ये जीवन जो मैंने जिया है वहीं अनमोल है मेरे लिए।बस अब आप ठीक हो जाओ।" बच्चों के पास आकर पति के स्वास्थ्य में बहुत सुधार आया था। धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हुआ। दोनों बच्चों के विवाह हो गए।

लड़की ससुराल चली गई। प्यारी-सी बहू आ गई। एक दिन पुरानी संदूक को साफ करते हुए वह तस्वीर निकल आई। बड़े जतन से रमा उस तस्वीर को पोंछ रही थी। "अरे मम्मी! ये किसकी तस्वीर है? दिखाओ।"

फोटो देखकर वह पूछने लगी-"ये इतने सारे लोग कौन है, मम्मी !अरे आप और पापा कितने सुंदर लग रहे हो।"

रमा हंसते हुए बोली-"ये सब अपने हैं बेटा! जब मेरा विवाह हुआ था तो मेरी झोली में ये सारे रिश्ते आए थे। ये मेरी पूंजी है, जब बीते दिनों की याद आती है तो इन्हें सहेज लेती हूं। कितने अच्छे थे वे दिन।"

"और मम्मी ये लाल कपड़े की पोटली में क्या है? दिखाओ न प्लीज।"

"इसमें देख ले बेटा! ये गठजोड़ा है, इसी को पहने हुए मैंने तेरे पापा के साथ उस पुश्तैनी घर में प्रवेश किया था, जहां मुझे एक भरा-पूरा परिवार मिला था, अनमोल रिश्ते मिले थे, ये बात और है कि वक्त के साथ इन सब पर स्वार्थ की धूल चढ़ गई और शायद सब हमें भूल गए।"

"अरे मम्मी आप तो दुखी हो गई! चलो मैं आपको नाश्ते के लिए बुलाने आई थी।"

"हां चलो बेटा!" कहते हुए रमा ने रिश्तों की पोटली को सहेजकर वापस रख दिया। उसकी आँखों की कोर पर एक आँसू की बूंद झिलमिला रही थी।



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