निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

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निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

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रिश्ता रूह का

रिश्ता रूह का

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जिस दिन श्रेया ससुराल में बहु बन कर आई थी, तभी से उसे आशीर्वाद स्वरूप भी यही सुनने को मिला "शीघ्र पुत्रवती भव !" उस वक़्त तो लज़्ज़ा वश सकुचा गयी थी और मुस्कुराने लगी थी श्रेया, क्या पता था कि शादी के दो वर्षों बाद आज जब वो गर्भवती है, तो परिवार में सभी 'पुत्र-रत्न' की प्राप्ति की कल्पना संजोये हुए हैं। 



सासू माँ, पापा जी (ससुर) और यहां तक कि पति मोहित भी..! यूँ तो काफी समझदार, शिक्षित परिवार की बड़ी बहू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था श्रेया को मायके से ज्यादा न सही पर कुछ कम प्यार भी नहीं मिला था ससुराल में। पतिदेव अपनी जान तक न्यौच्छावर करते थे उस पर, प्यार का स्वर्ग नसीब हुआ था श्रेया को। पर जब से उसके पाँव भारी हुए, सोचा था, परिवार खुशी से झूम उठेगा, और वास्तव में ऐसा ही हुआ। सासू माँ और मोहित तो मानो फूले न समा रहे थे श्रेया के पेट से होने की खबर से, और फिर दोनों ने होने वाली संतान के नाम भी सोच लिए। मोहित को 'आरव' पसंद था तो मम्मी जी को 'अक्षत' ! मम्मी जी ने तो उसी वक़्त कह भी दिया कि "देखना हमारा कुलदीपक लाखों में नहीं करोड़ों में एक होगा।"


एक मिनट ! क्या ? 'आरव' या 'अक्षत' ही क्यों ? यदि ' आरवी' या ' अक्षदा' हुई तो? शादी से ले कर अब तक जब भी होने वाली संतान का जिक्र हुआ तो कुलदीपक ही सबकी जुबान पर था। किसी ने गृहलक्ष्मी की संभावना भी व्यक्त नहीं की। एक दिन बातों बातों में ही मोहित से पूछ बैठी श्रेया - "यदि बेटी हुई तो? क्या नाम रखोगे, कुछ सोचा है ?" अजीब सी मुखाकृति बनाकर बोल पड़ा - " ऐसी मनहूस बातें नहीं किया करते, मम्मी को हर हाल में कुलदीपक ही चाहिए।" ख़ुशियाँ मानो काफूर सी हो गयीं थी श्रेया की, तो क्या ऐसे शिक्षित परिवार में भी ऐसी सोच व्याप्त है कि लड़का हो तो जश्न वरना हाय-तौबा ! अफसोस कल्पना चावला और इंदिरा गांधी जी जैसी देश की बेटियाँ आज भी समाज की इस दीवार को लांघ न सकीं। मोहित के जवाब सुन दो बूंद लुढ़क आये श्रेया की आँखों में। मन में पीड़ा लेकर जाने कब उसकी आँख लग गयी उसे भी पता न चला।


अचानक पीछे से मासूम कोमल हाथों ने उसकी उंगलियाँ थामी, मुड़कर देखा तो श्रेया का बचपन सामने था उसके..हूबहू ..वही शक्ल, तीखे नैन नक्श ! और जब वो नन्ही गुड़िया मासूमियत से पुकार बैठी -"माँ ! ", मानो बस इस एक शब्द में पूरी की पूरी ममता की नदी श्रेया के आँचल में आ गिरी हो। 



आँख खुली तो खुद की नम आँखों में बिस्तर पर लेटा पाया, पर ममता की ताकत ने उसका विश्वास अब दृढ़ कर दिया था। चाहे 'अक्षत' आये या 'अक्षदा', वो श्रेया की परछाई होगी , चाहे फिर इसके लिए उसे पूरे परिवार से ही नाराज़गी क्यों न मोल लेनी पड़े !

ये वो एक अनकहा रिश्ता था जो रूह का रूह से था, ममता का माता से था और एक युवती का उसके "बचपन से।


"रिश्ता अनकहा अनजान,

पर थी खुद उसकी पहचान !"



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