राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद

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सामान्यतः यह माना जाता है कि राष्टवाद एक आधुनिक अवधारणा है, जिसका आविष्कार यूरोप में हुआ। प्राप्त जानकारी के अनुसार १८ वीं सदी में यूरोप में पुनर्जागरण और सुधारवादी आंदोलन के फलस्वरूप व्यक्तिवाद के विचार की धारणा का उदय हुआ था, जिसने व्यक्ति की निष्ठा को अब रोमन चर्च से हटाकर... अपने राजा के प्रति जोड़ दिया। राजाओं के आधार पर राष्ट्रीयता विकसित हुई और राष्ट्रीय भावना के तहत राज्यों का विकास हुआ, जिन्हें राष्ट्र-राज्य कहा गया। इस तरह पश्चिम में राष्टवाद एक राजनीतिक तथ्य के रूप में विकसित हुई। 

इंग्लॅण्ड,जर्मनी, फ्रांस, स्पेन रूस आदि राष्ट्र-राज्य का उद्भव हुआ। यह राष्ट्रवाद बहुसंख्यक लोगों की असीम श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा का सर्वोच्च प्रस्फुटन है । इस राष्ट्रवाद में अपने राज्य के प्रति निष्ठा का राजनीतिक भाव सर्व प्रधान है। हालाँकि यहाँ लोग अपने साझे अतीत, संस्कृति और भूमि के साथ जुड़ाव भी अनुभव करते हैं । भारत के राष्ट्रवाद को इंग्लॅण्ड या जर्मनी के राष्ट्रवादी नज़रिये से देखने की भूल नहीं की जानी चाहिए। देश एक भौगोलिक इकाई है तथा राज्य देश का राजकीय घटक है। देश में एक या अनेक राज्य हो सकते हैं। जबकि राष्ट्र के लिए मात्र भूमि, मनुष्य और शासन पर्याप्त नहीं है। राष्ट्र हेतु सांस्कृतिक एकता की अनुभूति परम आवश्यक है। 


भारत में राष्ट्रवाद की प्राचीन काल से दो अभिन्न तत्व बताये गए हैं--- समान भूमि और समान सांस्कृतिक जीवन। अपने भूमि के प्रति लोगों के अटूट सम्बन्ध की अवधारणा को बहुत महत्व दिया गया है। यहाँ राष्ट्र का आधारभूत तत्व भौगोलिक और सांस्कृतिक एकता को माना गया है। प्रदीप जैन वनाम भारत संघ मामला १९८४ में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, सर्वश्री पी. एन. भगवती और रंगनाथ मिश्र ने दर्ज किया था कि, ‘भारत राष्ट्र का आधार एक समान भाषा या एक राजनैतिक शासन का जारी रहना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्कृति है । यह सांस्कृतिक एकता है जो किसी भी बंधन से अधिक मूलभुत तथा टिकाऊ है और जिसने इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है।’


भारत में राष्टवाद एक सांस्कृतिक अवधारणा है। यहाँ अपनी भूमि के प्रति लोगों की भावना, यहाँ के इतिहास में घटित घटनाओं के सम्बन्ध में समान भावनाएँ और समान संस्कृति - इन्ही तत्वों ने भारत राष्ट्र को बनाया है । आज़ादी के पहले के एक सहस्त्राब्दी में भारत में राजनीतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक अलगाव बहुत विकसित हुआ। सदियों तक इस्लाम और उसकी निष्ठुर परम्परा भारत में प्रबल रही । इस्लाम के सांस्कृतिक और सामाजिक अनुयायी भारत को माता नहीं मानते थे , वे आज भी इसे माता नहीं मानते हैं। फिर भी यहाँ बहुसंख्यक लोग जो हिन्दू हैं, सांस्कृतिक आधार पर इसे भारत राष्ट्र मानते हैं। 


वैदिक कालीन भावना.... ‘माता भूमि, पुत्रोहं पृथिव्या ‘ .... इस्लामिक शासन काल में भी बहुसंख्यक हिन्दुओं में व्याप्त थी। हम अपने हजारों साल पुराने संकल्प मंत्रों में जम्बू द्वीप की बात न सिर्फ वर्तमान भारत के क्षेत्र में करते हैं बल्कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के इलाके में भी करते हैं। 


जिस निष्ठा और आस्तिकता से गायत्री मन्त्र, ओंकार का जाप भारत भूमि में करते आ रहे हैं, उसी तरह वर्तमान पाकिस्तान और बंगला देश के हिन्दू मताबलम्बी भी करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि भारत की राष्ट्रीय अवधारणा राज्य पर आधारित नहीं है, बल्कि संस्कृति पर आधारित है। हिमालय से कन्याकुमारी तथा अरब सागर से बंगाल की खाड़ी के बीच चारो धाम की यात्रा सदियों से भारत के लोग की लाइफ-टाइम इच्छा रही है।


इसलिए जवाहर लाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में लिखा है – ‘हालाँकि बाहरी रूप में लोगों में विविधता और अनगिनत विभिन्नताएं थी, लेकिन हर जगह एकात्मता की एक जबरदस्त छाप थी... जिसने हमें युगों तक साथ जोड़े रखा, चाहे हमें जो भी राजनीतिक भविष्य या दुर्भाग्य झेलना पड़ा हो।' भारत लगभग एक सहस्त्राब्दी तक गुलाम रहा। हालाँकि गुलामी के दौर में भी यह आर्थिक रूप में समुन्नत था । वस्तुतः इसकी आर्थिक सम्पन्नता ही इसकी राजनीतिक गुलामी का मुख्य कारण था। जो अशिक्षा और आर्थिक पिछड़ापन आज भारत में दिखाई पड़ता है, वह अंग्रेजी शासन काल की उपज है।


दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक है। यह प्रतीक सत्ता और शक्ति के साथ-साथ विविधता को भी प्रदर्शित करता है अर्थात् अनेकता में एकता वाली भारतीय राष्ट्रवाद । १९ वीं सदी के यूरोप में राष्ट्रवाद ने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से बृहत्तर राष्ट्र राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था । जर्मनी और इटली का गठन इसी एकीकरण और सुदृढ़ीकरण का परिणाम है । राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ स्थानीय पहचान और बोलियां भी राष्ट्रीय पहचान और जनभाषा के रूप में विकसित हुई।


लेकिन राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन का भी कारण बना है । भारत और अन्य उपनिवेशों के स्वतंत्र होने के संघर्ष भी राष्ट्रवादी संघर्ष थे । कुछ लोग कहते हैं कि वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया सिकुड़ रही है। अब हम एक विश्व-ग्राम में रह रहे हैं । इसलिए राष्ट्रवाद की भावना क्षीण होती जा रही है । लेकिन, मेरा मानना है कि राष्ट्रवाद अब भी पूरा प्रासंगिक है । अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं, क्रिकेट के मैच आदि में राष्ट्रवाद की झलक दिखाई पड़ती है । आज दुनिया में राज्यों में आत्म-निर्णय के आंदोलन की एक गंभीर समस्या व्याप्त है । राज्य-सत्ताएं इस दुविधा में फंसी है कि आत्म-निर्णय के आंदोलन से कैसे निपटा जाय । बहुत से लोग यह महसूस करने लगे हैं कि समाधान नए राज्य के गठन में नहीं, बल्कि वर्तमान राज्य को अधिक लोकतान्त्रिक और समतामूलक बनाने में है । समाधान यह सुनिश्चित करने में है कि भिन्न सांस्कृतिक और नस्लीय पहचान के लोग देश में समान नागरिक की तरह सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें । इसी हेतु भारतीय संविधान में धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की संरक्षा लिए विस्तृत प्रावधान हैं ।


रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं कि "भारतीयों में अपनी संस्कृति और विरासत में गहरी आस्था होनी चाहिए । लेकिन उन्हें बाहरी दुनिया से मुक्त भाव से सीखने और लाभान्वित होने से परहेज नहीं करना चाहिए । " राष्ट्रीय अक्षुण्णता और अस्मिता हर हालत में सुरक्षित रखने और करने की चीज है । पृथक पहचान और बाहरी प्रभाव का सम्मान और स्वीकार्यता उसी सीमा तक मान्य है... जहाँ भारत राष्ट्र का मूल स्वरुप दुष्प्रभावित नहीं होता है । जैसा राम मनोहर लोहिया कहते थे---- “शिव, राम और कृष्ण “ भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा है। इसलिए इनका पूर्ण सम्मान होना चाहिए ।


अयोध्या, काशी और मथुरा भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं। रामायण,महाभारत,गीता में भारत दिखाई पड़ता है । ओंकार का ब्रह्मनाद भारतीय राष्ट्रवाद की ध्वनि है । भारतीय राष्ट्रवाद कहते ही हमें इसमें संस्कृति, भारतीयता और हिंदुत्व दिखाई पड़ती है । केवल राष्ट्रवाद कहना ही पर्याप्त है.... कोई सांस्कृतिक या हिन्दू राष्ट्रवाद नहीं। अतः भारत का राष्ट्रवाद अपने आप में पूर्ण है।



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