AMAN SINHA

Others

4  

AMAN SINHA

Others

तीन कहानियांं‌-भाग १ - राखि

तीन कहानियांं‌-भाग १ - राखि

8 mins
622


कहते है प्रेम की कोई भाषा नही होती। दुनिया के हर देश में हर शहर में हर गली में इसकी बस एक ही भाषा है और वो है मन की भाषा। इसको समझने के लिये आपको किसी भाषा विशेष की जानकारी होना आवश्यक नही है। इसे कहने के लिये ना तो अपको अपने लब हिलाने की जरूरत है और ना ही समझने के लिये किसी अनुवादक की आवश्यक्ता होती है। ये तो चाहने वालों के हाव-भाव से ही समझ में आ जाती है। जब कोई दो लोग प्रेम में होते है तो ये बात उनके आस पास के लोगों से छुपी नही रह सकती। हाँ मगर ये मुमकिन है की उन दोनों को ये बात समझने मे थोडा समय लग जाये। प्रेम की एक और खास बात है इसके लिये उम्र की कोई सीमा तय नही होती ये किसी को भी कभी भी कहीं भी हो सकता है। कूल मिलाकर प्रेम मे पडने वालो के लिये उम्र, भाषा, संस्कृती कुछ भी मायने नहीं रखता। बस एक ही बात मायने रखता है कि जिसे हम चहते हैं क्या वो भी हमें चाहता है। इस पूरे संसार मे एक भी मनुष्य ऐसा नहीं हो सकता जो कभी प्रेम में नही पडा हो। कभी-ना-कभी कहीं-ना-कहीं किसी-ना-किसी से हरेक व्यक्ति को प्रेम जरूर हुआ होता है। कुछ का प्रेम सफल हो जाता है तो कुछ लोगों का सफल नही हो पाता। कुछ ऐसे होते है जो खुल कर इस विषय पर बात करते हैं और कुछ अपने ज़ज़्बात अपने अंदर ही दबा कर रखना सीख जाते है। मगर प्रेम करते तो सब है। कुछ लोग प्रेम करके शादी करते है तो कुछ लोग शादी के बाद प्रेम करते हैं । कुछ लोगों को शादी के बाद सच्चा प्रेम मिलता है तो कुछ को शादी के बाद सच्चा प्रेम हो जाता है। मगर प्रेम क हर रुप पवित्र होता है फिर चाहे वो किसी भी उम्र मे हो किसी भी स्थान मे हो किसी भी व्यक्ती से हो ये हमेशा साफ और पवित्र होता है।

उपर मैंने प्रेम की परिभाषा देने की असफल कोशिश कर ली। पता नहीं सफल हुआ या नहीं मगर ये सच है कि मै अपने निजी जीवन मे कभी भी सच्चा प्यार पाने मे सफल नही रहा। मेरे जीवन मे ऐसे कई मोड आये जब मुझे लगा मैं प्रेम में हूँ और हर बार मैं पुरी तरह से इस प्रेम के प्रति इमानदार भी रहा मगर हर बार इसके साथ मेरा आंकडा छत्तिस का ही रहा। हर बार मुझे इसमे असफलता ही प्राप्त हुई। हर बार बात बनते बनते रह गयी। कभी मैंने देर कर दी तो कभी ज़ल्दबाजी कर गया। लेकिन हर बार मेरा प्यार सच्चा था और हर बार सामने वाले की वजह भी सही थी। मैंए कभी धोखा नही खाया और नाहीं कभी धोखा दिया था। मतलब कभी भी बेवफाइ वाला चक्कर ही नहीं रहा, ना तो मेरी तरफ से और नाहीं सामने वाले की तरफ लेकिन हर बार मेरा प्यार अधुरा रह गया। मैंए अपनी जीवन में तीन बार प्यार किया और टूट कर किया। प्यार करने के मामले मे मैं हमेशा से खुशकिस्मत ही रहा मगर प्यार पाने में हमेशा बदकक़िसमत मान सकते है। भुमिका बहुत हो गयी हो सकता है शायद मैं आपको बोर भी कर रहा हूँ मगर जब तक मैं दिल खोल नहीं लेता कहानी कैसे लिखूंगा। ये सब कुछ लिकह्ते हुए मुझे ऐसा नहीं लग रहा की मैं कोई कहानी या क़िताब लिख रहा हूँ बल्कि मुझे लग रहा है कि जैसे मैं अपने किसे जिगरी यार को अपने दिल का हाल सुना रहा हूँ। तो जरा सब्र रखना और सुन लेना पता नहीं फिर इतनी हिमात मैं कभी जुटा पाऊं या नहीं। तो आप सभी का स्वागत है मेरे पहले पहले असफल प्यार की कहानी में।

साल १९९६, मई का महिना था। मैं उस समय कक्षा ६ में पढता था। हम इस मोहल्ले मे नये-नये आये थे। मेरे परिवार ने पिछले दिनों ही इस मोहल्ले मे नया मकान बनवाया था। मेरे परिवार मे मेरी मां और दो बडे भाई थे। मां ने अपनी मेहनत और बडे भाइयों की कमाई से ये मकान बनवाया था। मैं अपने घर का सबसे छोटा बच्चा हूँ। आज भी हूँ, इन लोगोन ने कभी मुझको बडा होने का मौका हीं नही दिया। तो जिस दिन हमारा गृह प्रवेश हुआ उसके अगले दिन से ही हमारे परिवार की चर्चा मुहल्ले मे होने लगी थी। ये एक छोटा सा मोहल्ला था जो अभी पूरी तरह से बसा भी नही था। चारो तरफ खुला मैदान। एक घर से दुसरे घर की दूरी लगभग १००-२०० मिटर की तो होती ही थी मगर इतना खुला और साफ वातावरण के होने के कारण इतनी दूर से लोग एक दुसरे से असानी से बात कर सकते थे। किसके घर के बाहर क्या हो रहा है। बात आज से लगभग २५ साल पहले की है तो आप उस समय की हरियाली और आबोहवा का अनुमान लगा ही सकते है। लोग मिलन सार थी और मेरे उम्र के बच्चों की भरमार थी। बस एक बात थी जो मुझे वहां के बाकी सभी बच्चों से अलग करती थी और वो थी उनकी भाषा। मैं एक बिहारी परिवार से आता हूँ हालांकी मेरा आज तक कभी भी गांव से कोइ वास्ता नही पडा। मेरी पढाई-लिखाई, रहन-सहन, खान-पान सब कुछ यहाँ के बासिंदों की तरह ही था मगर जो मातृ भाषा होती है ना वो आपके पहचान को छुपने नहीं देती। यहाँ एक बात बता दूं मैं की मुझे अपने देसी भाषा पर बहुत गर्व है। वैसे तो मैं पला बढा यही हूँ तो उनकी भाषा भी इतनी सरलता से बोलता और समझता हूँ की कोइ भी अंजान व्यक्ति एक बार तो समझ ही नहीं सकता की मैं बिहारी हूँ या बंगाली। मगर आप चाहे जितना भी कोशिश कर लें अपनी भाषा में आप जितना सहज रहते है पराये भाषा मे आपसे कोई ना कोई गलती तो हो हीं जाती है।

मैं यहाँ और यहाँ के लोगों के लिये नया था और वो लोग मेरे लिये नये थे। बच्चों की खास बात ये होती है के वो दोस्त बनाने मे देर नहीं करते। मैं शुरु से ही मिलनसार रहा हूँ क्युंकि मेरे घर मे सब लोग खुश्मिज़ाज और मिलनसार थे तो मेरी ये प्रवृत्ति उन्ही लोगों के देन है। दो-तीन दिनों मे ही मैने मोहल्ले मे कई दोस्त बना लिये थे। ज्यादातर लड़के मेरे दोस्त जल्दी बन जाते थे। मेरी पढाई शुरु से ही मिश्रित स्कूल से हुई थी मगर लडकियों से दोस्ती के नाम पर मेरे पास कभी भी कोइ दोस्त नही रही। अब जब की मैं छठवी कक्षा मे पढने लगा था और मेरे उमर के लड़के (खास करके बंगाल के और लडकियां कम उम्र में ही प्रेम प्रसंग मे पड जाते है) लड़कियों के कई विपरीत लिंग के साथी हुआ करते थे तो मुझे ये बात खलने लगी। इस उमर के बच्चे आपस मे कई तरह से बातें करते है। एक दुसरे के प्रती आकर्षण जागने का यही समय होता है। यह वो समय होता है जब हम असल में एक दूसरे को शारिरीक बनावट के आधर पर अलग समझना शुरू ही करते है। और अंतर समझने का यही ज्ञान हमे एक दूसरे के प्रती आकर्षित करने लगता है। हर गुच्चे मे एक अंगूर ऐसा होता हओ जो औरों से आकार और संरचना मे थोडा ज्यादा होता है उसी तरह बच्चों की हर टोली मे एक बडा बच्चा होता है जो अपने साथ अपनी उमर से ज्यादा ज्ञानी होता है मगर ये ज्ञान बहकने वाला होता है। ये बात अभी इस लिये कही क्युंकी हमारे टोली मे भी एक बच्चा था जिसे हम दादा कहते थे( बंगाली मे बडे भाई)।

तो मेरे दोस्तों मे झुण्ड मे वो बडा भाइ था बुबाई दा। कम से कम पहले दिन तो उसे मैने दा ( बडे भाई) कहकर हीं पुकारा था। पर जैस एही मुझे पता चला कि वो पिछले दो सालोन से छठवी मे ही अटका हुआ है तो मेरे नज़र मे वो झट से गिर गया। फिर उसे मैं उसके पहले नाम से ही बुलाने लगा था। हमारे मुहल्ले मे लगभग ४० बच्चे थे जिनमे लडके और लडकियों की संख्या लगभग बराबर ही थी। जितने भी हम उम्र थे सब एक ही कक्षा मे पढ रहे थे तो इस राज्य के पाठ्यक्रम के अनुसार पहली भाषा को छोड कर कर हर किताब एक जैसी ही थी बस भाषा अलग थी। हर शाम को सब बच्चे मैदान मे खेलने के आते थे। हर घर का बच्चा वहाँ मौजुद होता था। चाहे लड्का हो या लडकी सब एकट्ठे खेलते थे। यही पर मुझे पहले बार मेरे ज़िंदगी का पहला प्यार मिलने वाला था। रोज़ की तरह मैं और मेरे दोस्त मैदान मे खेल रहे थे हमे क्रिकेट खेलना बहुत पसंद था। यही एक मात्र खेल भी था जिसे सभी मजे खेलते थे। मैं फिल्डिंग कर रहा था बाप्पा बैटिंग कर रहा था। बुबाई ने गेंद फेंका बाप्पा ने बैट घुमाया और गेंद सीधे मेरे पैरों के बीच से निकल कर मैदान के बाहर स्थित हैंड पम्प से जा लगा। मैं अपनी धुन मे भागा जा रहा था जब वहां पहूंचा तो देखा एक लडकी गेंद अपने हाँथों मे लिये खडी है। वो वहां पानी भरने आयी थी और गेंद उसके बाल्टी मे जा गीरी थी। गुस्से मे लाल वो बंगाली में बडबडाये जा रही थी। " देखे खेलते पारिस ना, नोंग्रा बौल टा आमार बाल्टी ते पोडे गेच्छे, पुरो जोल फेलते होबे, बाल्टी धुते होबे"। मुझे बात थोडी देर मे समझ आयी की वो बाप्पा को बोल रही थी। उसे देखते ही बाप्पा वहां से चम्पत हो गया। मैने गेंद मांगे तो उसने गेंद दुसरी तरफ फेंक दिया। (उस वक़्त मेरे मन मे उसके लिये ना तो कोई गुस्सा जागा और ना ही कोई आकर्षण पर आज जब भी कभी वो दिन याद आता है तो मैं उसे अब भी उसी नल पर खड़ा पाता हूँ। हरे रंग की फ्राक पहन रखी थी उसने। घूंघराले बाल, बडी-बडी आंखे, मद्धीम रंग और चेहरे पर गुस्सा)। इससे पहले की मैं कुछ समझ पाता उसने चीख कर अपनी मां को बुला लिया। एक पल मे मेरे सारे दोस्त जैसे हवा हो गये। मैं नया था तो कुछ भी समझ नही पाया। पीछे पलटा तो देखा एक औसत कद काठी की औरत उसकी तरफ बढती जा रही थी। अगले ही पल वो दोनो बाप्पा के दरवाजे पर थे, लडकी की मां लडके के मां से लडने लगी थी। उधर उन दोनो घर मे झगड़े होने लगे और इधर हम सब मिलकर फिर से खेलने लगे। 

जब शाम का खेल खत्म हुआ और सब घर जाने लगे तो बुबाई ने बाप्पा को कहा की अबके बार तो बच गया भाई अगर उसका बाप आया होता तो तेरी कुटाई निश्चित थी। बातों-बातों मे पता चला की उसका बाप रिक्शा चलाता है और मां घर मे ही कुछ-ना-कुछ काम करती है। उसका एक छोटा भाई भी है और सब के सब बडे खडुस और झगरालु किस्म के लोग है। जैसे हीं हम अलग हुए ये बात आई गयी हो गयी। खेल की बातें खेल मे ही खत्म हो गई। उस उमर मे बातें याद रखने की ना ही आदत होती और ना ही ज़रूरत। वैसे भी उसके घर के लोगोन से पुरा मुहल्ला दूर ही रहना पसंद करता था। कौन बीना बात के झगरा मोल लेना चहता है। 

समय बीताता गया और हम सब बडे होते गये। जब हमारे उमर के बच्चे( उस समय) बडे हो रहे होते है ना हममे शारिरिक और मानसिक बदलाव भी हो रहा होता है। कहुदह साल के उमर मे लडके लडकियों का आपस मे आकर्षण होना साधारण बात है। हम अपने आप के बदलावों और अपने दोस्तो के बदलावो के साक्षी होते है। पह्ले जिन लडकियों के संग बात करने का मन नही होता था अब उनसे बात करने मे शर्म और डर दोनों होता था। बीते कुछ दिनों मे हम सब लडकों के लम्बाई मे इज़ाफा हुआ था और लडकियों के शारिर मे बदलाव साफ दिखता था। खेलते-खेलते हम कब छठवी से आठवी मे आ गये थे पता ही नहीं चला। समय इस गती से बीता की हम बच्चे से बडे हो गये। अब हम उअम्र के उस पडाव में थे जब सही और गलत को समझना और उनमे से एक का चयन करना असान अन्हीं होता। फिर अगर आप बंगाल मे हो तो यहाँ के बात कुछ और ही होती है। यहाँ लडकिया( चाहे वो मूलत:‌ बंगाली हो या गैर बंगाली) १२ के मर से ही प्रेम मे पडने लगती है। कितनो की तो १५ की उमर मे शादी तक हो जाती है। यहाँ प्रेम विवाह का चलन है। भाग कर शादी कर लेना और बाद मे मां बाप का उसे स्वीकार कर लेना कोइ बहुत बडी बात नही है। यहाँ के हवा और पाने मे प्रेम विवाह रचा बसा है। आप इसे ऐसे समझिये की आज जिस लडकी ने खुद अपने घरवालों से बगावत करके भाग कर प्रेम विवाह किया हो वो अपने बेटी को ऐसा करने से कैसे रोक सकती है। लडके भी यहाँ के उमर के पहले ही जवान हो जाते है। कालेज तो बहुत दूर है, भाई साहब यहाँ के लडके स्कूल से ही लडकियां भगाकर ले जाते है। हालांकि मैं बीहारी परिवर से था मगर जनम करम जब यहाँ है तो मैं इसके प्रभाव से कैसे बच सकता था। पुरे भारत मे प्रेम उत्सव १४ फर्वरी को मनाया जाता है मगर क्या आप जानते है कि एक मात्र बंगाल ही भारत का ऐसा राज्य है जहाँ प्रेम उत्सव सरस्वती पूजा के दिन मनाया जाता है। इस दिन यहाँ के सभी लडकिया, चाहे वो प्राइमरी सकूल की हो या डिग्री कालेज की, सारी पहनती है। ये एक तरह की परम्परा रही है यहाँ की। हर घर से एक सरस्वती बाहर निकलती है। उस दिन कच्चे हल्दी से नहाना और साडी पहनना जैसे कोई दैविय आदेश हो। अब जरा सोचिये जिस लडकी को आप रोज़ आम्कपडो मे देखते है उसे अचानक सारी मे देखकर कैसा लगेगा। आंखें चमक जाती है और दिल हिच्कोले खाने लगता है। मैं भी इससे अछुता तो नही रह सका पर मेरा भाग्य देखिये नज़र भी उसी पर पडी जिसपर मेरे पहले मुहल्ले के सारे लडके किस्मत आजमा चुके थे। 

साल १९९८, सरस्वती पूज का दिन था मैं अपने स्कूल से वापस आ रहा था। कपडे मैंने अपने बडे भाई के पहन रक्ख़े थे जिसके कारण मेरी पतलुन ज़मिन से घिसती जा रही थी। मेरे हाथों मे पतंग और घिरनी थी। यहाँ इस दिन पतंग उडाने की भी परंपरा है। जैसे ही मैं अपने घर की गली मे मुडा तो देखता हूँ की एक लडकी घुटनों तक अपनी सारी उठाए है। उसके एक हाथ मे उसके चप्पल और दुसरे हाथ से अपनी सारे को पकडे हुए है। एक पैर कींचर मे फंसा हुआ है और दुसरा लडख़डा रहा है। अब आप सोच रहे होंगे की फर्वरी के महिने मे तो बारिश नही होती तो यहाँ इतना किंचर कैसे आया तो मैं आपको बता दूं की ये बात १९९८ की है और हम जहाँ रहते है वहा कोई पक्की सडक नही है। हमारे यहाँ बरसात के समय इतना पानी जम जाता है की हमारे घर से मुख्य सडक तक पुरे ४ महिने पानी जमा रहता है। बिल्कुल पिछ्डा इलाका जहाँ नेता भी पांच साल मे एक ही बार मुख्य सडक पर आते थे। हमे आदत थी इस तरह रहने की। हम तो तीन महिने लाल बहादूर शाश्त्री के तरह किताबें सर पर रखकर तैरते हुए घर से सडक तक आते थे। मगर अभी बात मेरे प्यार से पहली मुलाकात की हो रही है। तो मैंए उसे देखा वो पीले रंग की सारी मे थी और अभी गिरने ही वाले थी के मैंने उससे मदद के लिये पुछा। उसने पिछे देखा और नाक चढा कर बोली " हेल्प लागबे ना, आमी निजे पार होए जाबो"। मैंने भी मन मे सोचा मेरी बला से, जाओ गिरो। मैने भी गमछा लपेट कर पैंट उतारी घिरनी और पतंग सर पर रख्का और छपर-छपर करते हुए आगे बढ गया। जैसे मैं उससे आगे निकला मुझे छपाक की एक अवाज़ सुनाए पडी मै पीछे मुडा तो देखा वो कीचर मे सनी हुइ थी। चेहरे, कपडे, बाल सब मिट्टी से सने हुए। उसे देखकर मेरी हंसी छुट गयी। चुकी वो और मैं दोनो उत्तर-पुर्व की दिशा मे थे तो उसने मुझे देखा नहीं। बेचारी का पुरा मेकअप खराब हो गया होगा। ये हमारे बीच होने वाली पहली बात चीत थी। इसके बाद कई दिनो तक हम दोनों ने एक दुसरे को नहीं देखा। 

मैं तब साईकिल से स्कूल जाया करता था तो ठंडी के दिनो मे अक्सर मुझे साईकिल कंधे पर उठा कर ही सडक तक लाना पडता था। युंही एक दिन जब मैं सडक पर पहुंचा और कपडे पहनने लगा तो गली से वो निकली और मुझे देखकर हंस पडी। वाजिव भी था ऐसे सडक पर कौन कपडे बदलता है भाई। मुझे बुरा लगा मगर उसकी हालत याद आ गयी और मैं भी हंसने लगा। मुझे हंसता देखकर वो और ज़ोर से हंसी और चली गयी। वो भी स्कूल जा रही थी। सफेद रंग की कमीज़ और भगवा रंग की स्कर्ट मे वो बहुत सुंदर लग रही थी। उस दिन मैने उसे पहली बार स्कूल जाते देखा बाद मे पता चला की हमरे मुहल्ले के लगभग सभी लडकियां उसी स्कूल मे ही पढती है। इस बार जब मैंने उसे सामने से देखा तो पहली बार मेरे मन में उसके लिये कुछ हुआ। शाम को जब हम सब मैदान मे खेलने के लिये जुटे तो उसे फिर से लौटते हुए देखा। वैसे ये समय स्कूल से लौटने के लिये कुछ ज्यादा देर था मगर मुझे क्या। उसे निहारते हुए देख बुबाई ने कहा " देखिस ना भाई, ओर बाबा ओर पिछोने ई आच्छे, दानब साला"। मै झट से दुसरी तरफ देखने लगा पर उसने मुझे ताकते हुए देख लिया था तो जब मेरे सामने से गुजरी तो मुस्कुराते हुए निकली। दोस्त तो साले दोस्त ही होते है फिर किसी भी उमर के हो टांग तो खीचेंगे ही। उसे हंसता हुआ देख कर मेरे पिछे पड गये बोले साले दो साल से हम उसके पीछे पडे है उसने कभी घांस तक नही डाली, तुने ऐसा क्या किया जो वोतुझे देख कर हंस रही है। मैं चुप रहा और बात टालने लगा पर वो कहाँ मानने वाले थे साले। सब मिलकर मेरी टांग खिंचने लगे और मुझे चिढाने लगे। कमीने दोस्त ऐसे ही होते है आप अगर किसी चक्कर मे ना भी हो तो उसमे आपको खिंच ही लेते है। मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा था। अभी तक मेरा उसके प्रती ना तो कोइ लगाव था और ना ही अलगाव ही था मगर इन लोगों ने मेरे मन मे उसके प्रती लगाव का कीडा डाल दिया। उस दिन के बाद से सभी दोस्त मुझे उसे दिखाकर रिझाने लगे। वो भी जब स्कूल जाते या आते समय मुझे देखती तो हंस दिया करती थी। तो ऐसे पहले बार मुझे कोइ लडकी अच्छी लगने लगी थी। मजे की बात ये है की अभी तक ना तो मैं उसका नाम जानता था और ना ही वो मेरा नाम जानती थी। हम एक ही मुहल्ले मे रहते थे और लगभग पिछले ढाई साल से हमारी चेहरे से पेहचान थी मगर ना तो उसने कभी बात की और ना ही मैने कभी। अब जब बात होने का मौका बन रहा था तो पता नही क्युं मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। 

समय बीता और पूजा का समय आ गया। बंगाल मे दुर्गा पुजा से लेकर दीवाली तक गज़ब का महौल रहता है। सभी पुजा की जोश मे रहते है। नए कपडे, जुते और ना जाने क्या-क्या। दिन भर पुजा के पंडाल मे अड्डेबाजी और शाम होते ही घुमने के लिये निकल जाना ये सब कुछ पुजा के चार दिनों का कार्यक्रम होता है। उसके बाद आती है काली पुजा जो की दीवाली के साथ या एक दिन पहले मनायी जाती है। वैसे तो ये मात्र एक दिन का कार्यक्रम होता है मगर मस्ती इसके चार दिन बाद तक चलती रहती है। दिन भर मस्ती और रात को किराए पर विडियो देखना ये सब काली पुजा मे आम बात है। उस साल तीन बडी फिल्मे आयी थी जिसके गाने पुरे बरस गुंजते रहे थे। सिनेमा हाल जान हमारे लिये वर्जित था और विडियो साल दो साल मे एक ही बार नसीब होता था। मगर इन तीन फिल्मो ने ऐसा गदर मचाया हुआ था की इनको देखने को जी मचल रहा था। ये फिल्मे थी कुछ-कुछ होता है, प्यार तो होना ही था और सोल्जर। सभी के गाने एक से बढकर एक और जवानी के तरफ बढ रहे बच्चों के लिये आग मे घी की तरह थे। काले पुज के अगली रात को सबने मिल्कर विडियो किराए पर लाने का तय किया और मुख्य रुप से ये तीनों फिल्मे ही मंगवाये गयी थी। मुझे याद है "कुछ-कुछ होता है, प्यार तो होना ही था" ये दोनो फिल्मे देखने के बाद से ही मैं काजोल को पसंद करने लगा था। उसकी आंखे मुझे बडी लुभावनी लगती है (आज भी वो ही मेरी प्रिय अभीनेत्री है)। मगर सबसे मजेदार बात ये थी की जब मैंए कजोल को देखा तो अचानक ही मुझे उसकी याद आयी। मुझे कजोल मे उसका चेहरा दिखने लगा था। पहली बार मेरे दिल की घंटी उसकी लिये बजी थी। ना जाने क्युं कजोल मे और उसमे मुझे कोइ फर्क़ ही नही दिख रहा था। ऐसा लगा जैसे मुझे उससे प्यार हो गया था। हाँ मैं उससे प्यार करने लगा था। इसके बाद अगले चार दिन तक मेरे अंदर एक बेचैनी सी रहने लगी थी। चाहे मैं कही भी रहूं पर मैं उसिके बारे में सोचने लगा था। ये बडी अजीब सी बात हो रही थी मेरे साथ। ऐसा पहले कभी नही हुआ था। इसके पहले कभी भी मुझे गाने पसंद नही थे। मगर अब हर समय कुछ ना कुछ गुनगुनाता हे रहता था। मुझे हर समय बस खेल के मैदान मे जाने की जल्दी होती थी। मन किसी चीज़ मे नही लग रहा था ना तो पढने मे ना ही खेलने मे। स्कूल से निकलते ही मैं भाग कर घर आता था। ना खाना खाया ना कपडे बदले ना जुते खोले बस भाग कर मैदान। वहां भी खेलता नही था बस उसे ही ढूंढता रहता था। ऐसे कई दिन बीते मगर वो मुझे नही दिखी। मैंने अपने स्कूल आने जाने का समय और रास्ता दोनो बदल दिया ताके कहीं तो उसे देख सकूं मगर वो तो जैसे गायब ही हो गयी थी। 

मन बेचैन, दीमाग सुन्न और तबियत खराब हो रही थी। क्या करून कुच समझ मे नही आ रहा था। फिर एक दिन खेलते हुए बुबाई ने मुझसे पुछा आज कल मैं खेल क्युं नही रहा। मैंए बात टालने की कोशिश करी मगर वो बोला भाई तेरी वली तो घुमने गयि हुई है अपने परिवार के साथ, अगले हफ्ते लौटेगी। मैंने उसे ऐसे अनसुना किया जैसे मुझे क्या, मगर सुनकर अच्छा लगा की वो कब लौटेगी। मैंए बुबाई से पुछा के वो किसकी बात कर रहा है तो वो, साले तेरी वाली की बात कर रहा हूँ "राखी" की। तब जाकर मुझे पता चला की उसका नाम राखी है। पुरा नाम राखी भंडारी। उस दिन शाम को जब मैं घर लौटा तो खुशी मेरे आंखो मे थी क्युंकी मेरे और उसके नाम की मैचिंग 95% थी। नही समझे ना। आज के बच्चे क्या समझेंगे की बीन शोसल मिडीया के ज़माने मे हमारे पास लव% निकालने के क्या उपाय थे। तो चलो मैं बताता हूँ। फोर्मुला कुछ ऐसा था कि आपके नाम के अंग्रेज़ी के अक्षर और समने वाले के नाम के अंग्रेज़ी अक्षर के जोड से जो भी अंक आये वो ही आपका लव% था। अब जैसे उसका नाम था राखी और मेर रवि तो अब इसका जोड कैसे निकलेगा 

RAKHI LOVES RABI = 2,2,1,1,1,2,1,1,1,1,1= 3,3,2,2,2,2= 5,5,4= 95%

तो इस हिसाब से मेरा और उसका जोड बिल्कुल सही बैठ रहा था। अब मेरे अंदर उतावलापन इतना था की जिस दिन भी वो मुझे दिख जाए मैं उसे ये सब बता दुंगा और कह दुंगा की अब जब इतना ज्यादा प्यार है हम दोनो मे तो आज से मैं तुमसे प्यार करता हूँ। अब इसे बचपना नही कहेंगे तो और क्या कहेंगे कि अभी तक तो खुलकर बात ही नही हुई है और मैं उससे प्यार की बात करने को बेचैन था। बचपना कहाँ ये सब समझता है उसे तो लगता है अगर मुझे हो गया तो उसे भी हो गया होगा।

जैसे-जैसे दिन गुजरते जा रहे थे मेरी बेचैनी भी बढती जा रहे थी। उससे ना मिल पाना मेरे लिये बहुत तकलिफदेह हो रहा था। मेरे पेट मे जैसे तितलियां छटपटा रही थी। मन के भाव उछल-उछल कर बाह राने को बेकरार हो रहे थे। एक दिन जब मैं स्कूल के लिये निकला तो उसे घर लौटते देखा मेरा दिल लपक कर उसके तरफ भागने को तैयार था। उसके पिछे-पिछे उसके मां-बाप और भाए भी थे। उंको देखकर एक बार तो मैं ठिठका मगर दिल कहाँ मानने वाला था। वो तो अपनी बात कहने पर अडा हुआ था बेताबी ऐसी के रोके ना रुके। मैंने अपने आप को थोडा सम्हाला और खुद से कहा, एक दिन तो इन सभी को पता चल ही जाना है की मैं इनकी बेटी से प्यार करता हूँ और शादी करना चाहता हूँ तो क्युं ना आज मैं खुद हीं सबके सामने कह दूं जो होगा देखा जाएगा। ये सोच कर मैंने अपनी साईकल को किनारे खडा किया, अपने बाल सवारे और अपने कपडे ठिक किये। स्कूल के जुतों को पैंट से घीस कर थोडा चमकाया और उसके तरफ चल पडा। जैसे ही मैं उसके तरफ बढा वो मुझे देखकर थोडा शर्माकर हंसने लगी। मैंए सोचा मौका अच्छा है तो मैंए अपनी गती बढा दी। जैसे वो मेरे नज़दिक पहूंची मैंए उसका हाथ पकडा और बोला " राखी, जब से तुम बाहर गयी हो तब से ही मैं तुम्हे याद कर रहा हूँ, तुम्हारे बीना ना तो मैदान मे मेरा दिल लगता है और ना ही पढाई मे मज़ा आता है, मैं तुमसे बस यही कहने आया हूँ के मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ, और ये भी जानता हूँ की तुम भी मुझसे प्यार करती हो। मैं किसी से नही डरता इसि लिये आज मैं तुम्हारे पिताजी के सामने ही तुमसे ये सब कह रहा हूँ"। उसने बडे ध्यान से ये सब सुन रही थी और मुस्कुरा रही थी। ये सब कुछ उसके मां पिताजी और भाइ ने भी देखा मगर वे सब हंस रहे थे। ये देखकर मैं थोडा हैरान और परेशान हो गया। मेरे समझ मे कुछ नही आ रहा था। इतने मे राखी बोल पडी मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ जितना की तुम मुझसे करते हो। सच तो यह है की मैं भी जब से बाहर गयी थी बस तुम्हे ही याद कर रही थी। जब मैं मन से हार गयी तो अपने मां को सब बता दिया। मेरी मां ने मेरे भाई और पापा को बता दिया। मैने तो उनसे ये भी कह दिया की मैं तुम ही से शादी करना चाहती हूँ और इसीलिये हम सब पहले ही लौट कर आ गये। मैंने उसके मां के तरफ देखा तो उन्होने हाँ मे सिर हिला दिया। मेरी तो खुशी का ठिकानान ही नही रहा। ऐसा लगा जैसे मुझे पुरा संसार ही जीत लिया हो और इसी खुशी मे उछल पडा। ये छ्लांग कुछ ज्यादा ही ऊंची थी तो जब मैं वापस ज़मीन पर आया तो किसी ने मुझे पिछे से कस कर एक झापर मारा और एक झटके मे मेरी निंद टूट गयी। आंख मलते हुए मैंए देखा मेरे बडे भाई मुझे गाली दे रहे थे – कमिने साले चैन से सो नही सकता. निंद मे हाँथ पाव चलाता है। भाग यहाँ से और निचे जाकर सो जा। मेरा सपना टूट चुका था, मेरे पास ना तो राखी थी और नाही उसके मां-बाप थे, सब कुछ खतम हो चुका था। जी में आया की मैं भी भैया को दो-चार धर दूं मगर मैंने खुद को उनसे मार खाने से रोक लिया। 

घडी देखा तो सुबह के पांच बज रहे थे, बाहर झांका सुरज अभी तक निकला नहीं था। पौ फट रही थी तो मैंए सोचा की चलो थोडा बाहर जाकर टहल लिया जाए। इसी बहाने उसके घर का चक्कर भी लगा आउंगा। ये सोच कर मैं बाहर निकला। जुते पहने और मैदान की तरफ भागा। वहाँ मेरे कुछ साथी पहले से मौजुद थे। सब क्रिकेट खेलने की तैयारी में थे। मुझे याद आया की आस रवी वार है और हमारा मैच है। पास के मुहल्ले के लडको से हमेने मैंच ले रक्खा था। वो सब भी मेरी ही रह तक रहे थे। मैंच नौ बजे से था और सुबह सब मिलकर पहले थोडा अभ्यास करना चाहते थे। करीब नौ बजे के आस पास मैच खेलने के लिये बाहर के लडके भी आ गये। हम सब तैयार होकर मैच खेलने लगे। हम ये मैच बुरी तरह से हार गये इतनी बुरी तरह से हार गये की आपस में ही लडने लगे। बाहर से आकर उन लोगों ने हमे अपने घर मे हरा दिया था। अगर ये बात मुहल्ले के सिनियर्स को बता चल जाती तो हमारा हाल बुरा होना निश्चित था। इस लिये तय किया गया की एक और मैच खेला जायगा अगर ये मैच वो जीत गये तो उन्हे हमारी तरफ से एक बैट दी जायगी और अगर हम जीते तो एक और मैच खेलेंगे और उसके नतिजे के बाद ही विजेता घोषित किया जाएगा। पहले तो वो नहीं माने मगर बाद मे बैट के लालच से मान गये। इस मैच मे पहले हमने बैटिंग करी। हमारे दोनो ओपेनर बिना रन बनाए ही आउट हो गये। बाद मे बाप्पा और बुबाइ ने पारी सम्हाली। लेकिन कुल ५० के स्कोर पर ही हम पांच आउट हो चुके थे। जब मैं बैटिंग करने आया तो दस रन बनाकर ही टहल लिया। इस तरह से कुल ७० रन के स्कोरे पर हम सब आउट हो चुके थे। लग रहा था की बैट तो देना ही पडेगा। जब उनकी बैटिंग आयी तो उन्होने ३ ओवर मे हीं ३५ रन ठोक डाले। विकेट एक भी नही गीरा था। तब गेंद मैने अपने हाथो मे ली। पहले दो गेंदो मे दो चौके खाने के बाद और अपने टीम से गालियां खाने के बाद अब मुझमे बालिंग करने की हिम्मत नही रही थी। इस बार जैसे ही मैं गेंद लेकर विकेट के पास पहुंचा तो दूर से किसी को आते देखा। मैं ठिठका, दिल धडकने लगा, सांसे तेज़ हो गयी। करीब पांच सेकेण्ड तक मैं उसे देखते रहा। जैसे मुझे ये समझ मे आ गया की ये वही है, मैंए गेंद फेंक दिया। एक शानदार लेग स्पिन। गेंद बैटर के पैरों के पीछे से होते हुए मिडल स्टंप उडा ले गया। सब चौंक गये और खुशी मे उछल पडे। मगर मेरी नज़र बस उसी का पीछा कर रही थी। करीब आते-आते उसे भी लगा की शयद मैं उसे देख रहा हूं तो वो भी मैदान के सामने रुककर मुझे देखने लगी। इस बार उसके साथ कोइ नही था मगर मेरे साथ कई लोग थे। उसने कंधे से पना बैग उतारा और मैच देखने लगी। इसके बाद तो मेरे अंदर एक साथ अनिल कुम्बले, शेंवार्न और सक्लेन मुस्ताक़ की आत्मा घुस चुकी थी। अगले तीन गेंदो मे मैंए और तीन लडको को चलता कर दिया। अब उन्हे जितने के लिये तीन विकेट मे २८ रन की जरूरत थी। जो की असानी से जीता जा सकता था मगर अब हम मैच मे वापस आ चुके थे। मेरे बाद बाकी बचा काम बुबाई ने पुरा कर दिया। अपने ओवर मे उसने तीन छक्के तो खाये मगर अंतिम तीनो विकेट भी लेने में वो कामयाब रहा। मैच हमें जीत लिया। 

आखरी मैच शुरु होने के पहले ही वो जाने लगी। शायद उसे लगा खेल खत्म हो गया। मगर मेरी हालत को बुबाई समझ चुका था तो उसने जोर से चिल्ला कर अव्वज़ लगाई जैसे वो सब्को बताना चाह रहा हो की अभी खेल बाकी है। वो पलटी रुकी मगर दुसरे ही पल वापस जाने लगी। सब बेकार हो गया। वो चली गयी। उधर वो गयी और इधर हम टोस्स हार गये। सामने वाले टिम ने हमे बैटिंग करने को कहा। और फिर से वही इतिहास दोहराया जा रहा था। मैं उदास था की वो चली गयी और मेरी टिम उदास थी क्युंकी उन्हे बैट देनी पड जाएगी। हम थोडा स्म्हल कर खेल रहे थे तो हमारी विकेट तो नही गीरी थी मगर रंन भी नही बने थे। जब बुबाई आउट हुआ तो लौटते हुए उसने मुझे बैट करने को कहा। और मुझे उसके घर की तरफ देखने को कहा, मैंए देखा वो वहां से हमारा मैच देख रही थी। मानो मुझे कुछ हो गया। अब तक मै जो थका हुआ दिख रहा था एक ही बार मे तरो ताज़ा हो गया। इस बार तो मैने सामने वालों की ऐसी धुलाइ की कि अगर उस दिन मेरे सामने शोइब अख्तर भी आ जाता तो उसकी भी खैर नही थी। ७ ओवर के खेल मे हमने १३० रन बना दिये। अब गेंद फेंकने बी बारी आयी तो उसमे भी कमाल हो गया। जब मैंए गेंदबाज़ी की तो पहले उसके घर की तरफ देखा और फिर गेंद डाला। १३० के मुकाब्ले हमने उन्हे ६० रनो मे ही चलता कर दिया। मज़ा आ गया, प्यार मे ऐसा भी होता है पता नहीं था। कोइ समझे ना समझे बुबाई को सब समझ मे आ रहा था और उसे भी पता तो चल ही गया था। हम खुश थे, और हमारा खेल देखकर सिनियर्स भी खुश थे। सबको जीत की खुशी थी लेकिन मुझे खुशी थी की वो लौट आयी थी और अब मैं उससे अपने दिल की बात कह सकता था।

मेरी हिम्मत देखो, एक लडकी जिससे मैं आज तक कभी आमने-सामने बात नही कर पाया था, अपना नाम भी नही बता पाया था उससे मुझे ये बताना था की मैं उससे प्यार करने लगा हूँ। कितनी अजीब बात है ना? मगर दिल से मजबूर बंदा कर भी क्या सकता है। उसके प्रती मेरा आकर्षण मुझे पाग किये जा रहा था। शरिर के अंदर हार्मोंस का भाव तेज होते जा रहा था। वैसे तो और भी लडकियां थी मेरे मुहल्ले मे मगर पता नही क्युं उसे देखकर ही मेरे अंदर हलचल होने लगती थी। पहली बार प्यार मे पडने से ये सब होता है। आप समझ ही नही पाते की उसमे ऐसा क्या है जो दुसरों मे नही है। इस समय अगर आपके पास अगर दुनिया की सब्से खुबसुरत लडकी भी आ जाये और खुद अपने मूंह से कहे की वो आपसे प्यार करती तो भी आपको फर्क़ नही पडता। इस समय आपको उसके गली से उसके स्कूल से उससे जुरी हर चिज से प्यार होने लगता है। पहले जब दोस्त आपको उसके नाम से छेडते थे तो आपको गुस्सा आता होगा मगर अब आप उसे अपना सम्मान समझने लगते है। इससे आपको इस बात का हक़ मिल जाता है की कोइ और लडका आपके सामने उसके बारे मे गलत बात नही कर सकता। आप अपने दोस्तों मे उसके आधिकारिक प्रेमी के तौर पर पहचान पाने लगते है। आपको ये सारी बातें मज़ेदार लगती है। पर आप उससे ये सब कह पाने में अब भी असमर्थ ही रहते हो। पुरा मुहल्ला आपको उसके नाम से चिढाने लगता है मगर उसे इस बात की खबर नही होती। आप मन ही मन खुश तो होते है मगर डर भी लगा र्हता है की कहीं उसको पता चल गया तो फिर क्या होगा। मैं भी इन्ही सब उधेरबून मे फंसा हुआ था। समझ मे नही आ रहा था की क्या करुं, उससे कैसे मिलुं और कैसे अपने मन की बात बताउं। 

ऐसे समय मे अक्सर आपके दोस्त ही आपको रास्ता दिखाते है। वो ही आपको तर्कीब बताते है की आगे क्या और कैसे करना है। मेरे पास भी एक ऐसा ही दोस्त था जो इन मामलों का एक्स्पर्ट था। नाम तो याद ही होगा आपको जी हाँ अपने सही समझा – बुबाई। वो कहता था की अभी तक उसने कम से कम चार लडकियां पटाई है और उनमे से सबके साथ उसका प्यार अभी तक सही चल रहा है। अब प्यार एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही मन मे लड्डू फुटने लगता है। और भाई इसके तो चार-चार प्यार चल रहे थे। मेरे लिये तो इससे अच्छा सलाहकार कोई हो ही नही सकता था। तो मैं उसके सरण मे गया और सीधे उसके चरणों मे लेट गया। एक बरे अनुभवी आदमी के तरह उसने मुझसे सारी बात सुनी और कहा- " तुई किच्छू चिंता कोरिश ना, आमी आच्छी ना, एक बार ई ते तो काज कोरे देबो"। आमी होलाम एई बिषोयेर एक्स्पर्ट"। जा निश्चिंतो भाबे घुमिये पोर"। सुनकर तो अच्छा लगा और थोडी हिम्मत भी जागी। लगा जैसे डुबते को तिनके का सहारा मिल गया। लग रहा था की कल तक तो सब्कुछ ठीक हो जाएगा। कल से ही हमारा प्यार शुरु हो जाएगा। रात भर निंद नही आई। तरह तरह के सपने देख रहा था। कभी राखी हाँ कर देती तो कभी उसका बाप मेरी पिटाई कर देता। कभी बुबाई मेरे साथ होता तो कभी वो राखी को लेकर खुद ही भाग जाता। ये सब कुछ रात भर चलता रहा। सुबह हुई तो अपने घर के काम निपटा कर मैं स्कूल जाने के तैयारी करने लगा। सोचा क्युं ना मैं आज उसके स्कूल जाने वाले रास्ते पर रुक जाऊं। अगर मुझे दिखेगी तो मैं आज ही उसे सारा मामला कह दूंगा और हमारा प्यार शुरु हो जाएगा। उस समय मुझे ये समझ नही थी कि जैसे मैं उसके प्रती सोचता हूँ उसका भी मेरे प्रती सोचना जरुरी है। उस समय के फिल्मो मे जैसे हीरो लडकियों को पहले छेडते फिर रिझाते और पटा लेते थे मुझे लगा मेरे साथ भी वैसा ही होगा। वैसे भी हम लडके कुछ ज्यादा ही ज़ल्द्बाज़ी मे रहते है। यह सब सोचते हुए मैं आज घर से दस मिनट ज़ल्दी निकल गया। जाकर मोड पर खडा हो गया और उसकी राह ताकने लगा। कुछ देर मे वो गली से निकली और आगे बढने लगी। मैं उसे देखकर तैयार होने लगा लेकिन तभी उसके पिछे उसकी मां भी गले से निकली। ये देखते ही मैने झट से अपनी साईकिल उठाई और भागा। ऐसे भागा की सीधे स्कूल पहुच कर ही रुका। मुझे डर लग रहा था की अग्र उसकी मा ने मुझे देख लिया होगा और सब कुछ समझ गयी होगि तो क्या होगा। वो तो अब तक मेरे घर जाकर मेरी मां से सब कुछ बता चुकी होगी। आज तो घर पर मेरी पिटाई निश्चित है, शाम को मां से और रात को बडे भाई के मार से आज मुझे भगवान भी नही बचा सकता।

जैसे-तैसे उस दिन का स्कूल खत्म किया और घर की तरफ लौटने लगा। रास्ते भर मार से बचने के उपाय सोचता रहा। मैं आज साईकिल भी दुसरे दिन से धीमे चला रहा था। कई उपाय सोचे मगर एक भी मुझे शांत नही कर पा रह था। जब सडक से घर दिखने लगा तो सोचा की चलो आज तो मार खाना ही है। जो होगा सो होगा देखा जाएगा। घर पहुंचा तो देखा मान गुस्से मे मेरी राह देख रही है। उसका गुस्से वाला चहरा देखकर मेरा खून सफेद होने लगा। मैने सोचा की इससे पहले मां कुछ कहे मैं खुद ही सारी बात बता दुंगा। मैं मूंह खोलता उससे पहले मां ही बोल पडी। आज लौटने मे इतनी देर क्युं हो गयी। मैं डरते हुए बोला किसी ने स्कूल मे साईकिल की हवा निकाल दी थी तो पैदल ही आना पडा। मां मुझे ऐसे घूर रही थी की जैसे अब मारे या तब मारे। मां फिर बोली तुमने इतनी बडी बात मुझसे क्युं छुपाई? अब तो जैसे मेरी अवाब ही गायब हो गयी। मैं अटकते-अटकते बोला ऐसा कुछ नही है मां मैं तो तुम्हे बताने ही वाला था....। इससे पहले की मैं अपनी बात पुरी कर पाता एक ज़ोर का तमाचा मेरे गाल पर पडा। कान मे सीटी बजने लग़ी मेरे समहलने के पहले ही दुसरा चांटा भी दुसरे गाल पर पडा। मैं रोने लगा और कहने लगा अब नहीं करुंगा मां, गलती हो गयी, आगे से नही होगा। मुझे मां के मार से कम डर लगता था मगर मेरा बडा भाई जो की तबियत से मेरी कुटाई करने के लिये जाना जाता है, उसके मार से ज्यादा डर लगता था। मुझे डर था की मां कहीं ये बात उसे ना बता दे। तो रोते हुए मैं मां से बोला भैया को नही बता मा बहुत मारेगा। मगर मा ने मेरी नात नही सुनी और बोली उसे तो मैं बाद मे बताउंगी पर तु मुझे ये बता कि तुने ऐसा किया क्यु? कब से तुने लाल्टेन का शीशा तोडकर पलंग के नीचे छुपाया हुआ है? मैं रो रहा था मगर मां को लाल्टेन के कांच की बात सुनकर थोडा चुप हुआ। उस समय हमारे मुहल्ले मे बिजली नहीं हुआ करती थी तो हम रात को लाल्टेन ही जलाया करते थे। और दो दिन पहले मुझसे इसका शीशा टुट गया था। तो मैने मार से बचने के लिये उसे पलंग के नीचे छुपा दिया था। आज जब मा पोछा लगा रही थी तो उसके हाथे शीशे से चोट लग गयी थी। और इसी कारण से वो इतना गुस्सा थी। मेरे सांस से सांस लौटने लगी। उपर से तो मैं अभ भी रो ही रहा था मगर अंदर से हंस रहा था। खुश भी था चलो मा को कुछ भी पता नही है। इस बात से मै इतना खुश था की उसके बाद भी मा ने मुझे तबियत से कुटा मगर मुझे ना तो उसका दर्द हुआ और ना ही अफसोस ही हुआ। मानो मुर्दे मे जान आ गयी थी। थोडी देर पहले तक मैं इन सब चिज़ों से तौबा कर रहा था मगर अब ऐसा लगने लगा जैसे मैंने कोइ लडाई जीत ली हो। मेरी हिम्मत जरा और बढ गयी। मा डांटती रही, चिल्लाते रही और मैं खाना खाकर मैदान के तरफ भाग गया। ओव दिन मैं आज तक नही भुला और भुलु भी कैसे वैसा डर मुझे पहले कभी नही लगा था। ना तो उसके पहले और ना ही उसके बाद कभी नही। मैदान पहुंचा तो घर की मार भुला चुका था अब मेरी नज़र सिर्फ बुबाई को तलाश रही थी। आज उससे मुझे कुछ नए गुण सिखने थे। मगर वो कही दिख हे नही रहा था। पता नही आज कहा रह गया रोज़ तो इस समय तक चला आता है। लगता है आज उसे भे अपने घर मे किसी बात पर पिटाई पडी होगी तभी नही दिख रहा है। मगर मुझे तो उससे मिलना ही था। अगर वो नही आया तो मेरे प्यार का क्या होगा? मैं यही सब सोच रहा था। फिर सोचा क्युं ना उसके घर जाकर उसे बुलाया जाए? हो सकता है की सो रहा हो। 

बुबाई के घर के तरफ बढने लगा मगर दिल मे अजीब सी बेचैनी थी। पेट मे जैसे एक साथ कई तितलियां नाच रही हो इसी कारण मेरी चाल भी ज़रा तेज थी। जैसे ही मैं उसके घर के पास आया मैंने उसे भागते हुए बाहर निकलते देखा। वो तेजी से मेरी तरफ भाग रहा था और उसे देखकर मैं भी तेजी से उल्टे तरफ भागने लगा। सबसे आगे मैं था, उसके पीछे बुबाइ था और उसके पीछे उसकी मा दौड रही थी। मां के एक हाथ मे थी एक मोटी से छडी और दुसरे हाथ मे थी उसकी चप्पल। मैं पुरी तेज़ी से भाग रहा था। मुझे बस बुबाइ से आगे रहना था क्युकि अगर उसकी मा ने अपने दोनो मे से कोई भी एक हथियार चला कर मारा तो मैं उसकी पहूंच से दूर रह सकु। हुआ भी ऐसा ही मां ने चप्पल दे मारी और उनका निशाना भी इतना सटिक की चप्पल सीधे बुबाइ के सर पर जा लगी। वो चिल्लाया और पहले से ज्यादा तेजी से भागने लगा। हम दोनो मैदान के पार हो चुके थे और उसकी मां अब थक चुकी थी। मैने  उससे हाँफते हुए पूछा तु भाग क्युं रहा है? हुआ क्या? वो बोला कल मेरे टेस्ट के पेपर आये थे। सर ने कहा था की घर से मां या पापा से दस्तखत करवा कर ला होगा। तो क्या तुने दस्तखत नहीं करवाये- मैंने पूछा। हाँ करवाये ना, पापा से करवाये- वो बोला। तो फिर क्या हुआ? जब मैं दस्तखत करवा रहा था मां पीछे से आ गयी और पेपर देख लिया। पापा को तो मैं बहला सकता हूँ मगर मां ने अच्छे से धुनाइ की मेरी। और जब मैं उससे बचने के लिये भागा तो तु आ गया। मैने  पुछा क्या तेरे मर्क्स अच्छे नही थे क्या? आये थे ना, पुरे दस में से देढ नम्बर मिले थे। पापा को तो मैं देढ का पंद्रह बता सकता हूँ मगर मां को कैसे सझाऊ। फिर हम दोनो हंसने लगे। इस बीच मैं ये बात भुल गया की मैं उसके मिलने क्युं गया था। हम खेलने लग गये और कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला। इतने जब मैने  राखी को स्कूल से आते देखा तब मुझे याद आया की मैं बुबाई से क्युं मिलने गया था। वो रोज़ की तरह मैदान से सटे पगडंडी से निकली और मुझे देखकर मुस्कुरा दी। मुझे कुछ समझ नही आ रहा था की मैं क्या करूं। मतलब मैं हंसु या घबरा जाउं। जबतक वो मेरे पास से होते हुए दूर नही चली गयी मेरे लिये उतना समय बिल्कुल रुका हुआ था। मुझे युं स्तब्ध देखकर कर उसकी और जोर से हंसी छुट गयी। इतने मे बुबाई ने मेरे सर पर एक टपरी दे मारी और बंगाली मे बोला – "फिरे आय भाई, ओ चोले गेच्छे"। तब जाकर मुझे उसके जाने का भान हुआ।

मैं बुबाई के ऊपर टूट पडा और बोला साले तुने कहा था की तु मुझे उससे बात करने का तरिका बताएगा और अब जब मैं पागल हुए जा रहा हूँ तो तू कुछ कर ही नही रहा है। बुबाई बोला – किसने कहा की मैं कुछ नही कर रहा हूँ? मैंने एक मस्त प्लान बनाया है। कल शाम को जब वो स्कूल से वापस लौटेगी तो मैं और तु दोनो गली के अंत मे खडे रहेंगे। उसके आते ही तु उसके साथ चलने लगना और उसे अपनी बात बता देना। मैं देखता रहुंगा, जैसी ही कोई आयेगा मैं तुझे इशारा कर दुंगा और तु कट लेना। उस समय ये प्लान अच्छा लगा। चुकी इससे पहले कभी ऐसा काम किया नही था तो इसके खतरे से वाक़िफ भी नही था। बस ठान लिया की ये तो करना ही है। अगले दिन शाम को हम दोनो एक घण्टे पहले से ही मोड पर खडे थे। उसके आते ही बुबाई ने मुझे इशारा किया। मैं उसके तरफ बढने लगा। जैसे ही उसके पास पहुंचा तो बुबाई को भागते हुए देखा। उसे भागते देख मेरे बदन मे एक करन्ट सा लगा और मैं भी उसके पिछे भागा। मैने  उससे पुछा ही नहीं कि वो क्युं भाग रहा था। बस भागता रहा। पसिने से तर बतर हम दोनो मैदान मे जाकर गिर पडे। कुछ देर हाँफ़ने के बाद वो मुझसे बोला, तु क्युं भागा? मैने  कहा तु भागा तो मैं भी भागा। वो बोला अबे मैं इस लिये भागा क्युंकी मैंने अपने ट्युश्न टीचर को आते देखा। मैं उसे कस कर एक लात मारा और वो वही धरती पर बैठ गया। फिर हम हसने लगे। इतने मे वो वहां से गुजरी मगर आज वो थोडा गुस्से मे दिख रही थी। मुझे लगा की शायद उसने मुझे देख लिया होगा और इसी कारण चिढी हुइ है। ये सब सोचते हुए मैने  एक और लात बुबाइ को जड दिया। वो आग बबुला हो गया और चला गया। मैं भी अपने घर को लौट गया। 

मै सोच मे पड गया की उससे बात कैसे करुं कोइ रास्ता नही दिख रहा था। उस रात मैंने दूर्दर्शन पर एक फिल देखी। उन दिनो हर शुक्र वार और शनी वार रात को टी.वी पर फिल्मे आती थी। उसमे एक सीन मे एक अधेर उम्र का अदमी हीरो से कहता है की अगर किसी लडकी को पटाना है तो पहले उसके सहेली को पटाओ। शायद वो फिल्म थी "चमेली की शादी"। ये बात मुझे खटक गयी और मैं भी सोचा इस बुबाई के चक्कर मे ना पडकर मुहल्ले की किसी दुसरी लडकी से बात की जाय जो उसकी अच्छी सहेली हो। पुरे तीन दिन लगाकर मैं उसकी एक सहेली ढूंढ निकाली। चुकी मुझे उससे प्यार नही करना था बल्की उसकी मदद चहिये थी तो मुझे उससे बात करने मे डर नही लगा। मैंने सोमा से बात की और उसे एक ही बार मे सब कुछ बता दिया। सोमा सही लडकी थी, वो भी आठवी में थी तो हमारे बीच बात की शुरुआत के लिये पढाई का भी एक बहाना बन सकता था। सोमा हमारे साथ मैदान मे खेलती भी थी। मेरी बात सुनकर पहले तो हंसी और फिर बोली तु अभी तक उससे बात नही कर पाया। मैं तो सोच रही थी कि तु कबका बोल चुका होगा। मैं थोडा चक्कर मे पड गया और पुछा तुझे ये सब मालुम था? वो बोली मुझे क्या पुरे मुहल्ले के बच्चो को पता है की तु उसके चक्कर मे पडा हुआ है। और सभी सोचते है की तेरी-उसकी बात भी तय हो चुकी है। मैने  उसे रोकते हुए पुछा – ये बात तुझे किसने बताई। उसने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कुछ समझना चाहती हो मगर फिर बोलि, तुने ये बात किस-किसको बताई है? मैं बोला मेरे सीवा सिर्फ बुबाई हे ये बात जानता है। उसने अपने कंधे उठाते हुए मुझे इशारा किया। 

तब मैं समझा मैं जिसे एक राज़ समझ रहा था वो तो सभी को पहले से हे मालुम था। पर क्या उसे भी ये मालुम था? क्या इसी वजह से वो मुझे देखकर हंसती थी। और मैं अब तक इसी उधेरबुन मे था की उससे बात कैसे करुन। मैं इसी खयाल मे था मगर एक डर ने मुझे झकझोर दिया। अगय ये बात मुहल्ले से सभी बच्चों के पता है तो उनके मा या बाप तक पहुंचने मे कितना समय लगेगा। फिर तो एक दिन ये बात मेरे घर भी पहुच सकता है। अब जो हो गया था उसे बदलना तो नामुमकिन था मगर जिसने ये बात फैलायी है उसे तो मैं छोडुंगा नही। अब मेरी नज़रे बुबाई की तलाश मे थी। उस समय अगर वो मेरे सामने आ जाता तो वही उसका मूंह तोड देता मैं। तभी सोमा बोल पडी, तुम भी तो ८ मे पढते हो ना, मैने  हाँ मे सर हिला दिया। अच्छा है, उसे मैथ का एक सवाल नही आ रहा है तो अगर तुम उसे हल कर दो तो शायद मैं उससे तुम्हारा परिचय करवा सकती हूँ। वो चेहरे से तो तुम्हे जानती ही है मगर नाम से नही जानती। एक काम करो कल जब मैं शाम को पढने जाऊं तो तुम मुझे गली मे मिलना। हम साथ ही ट्युशन जाती है तो मैं तुम्हे उससे मिलवा दूंगी। हाँ मगर एक बात मेरी मानो तो पहली बार में ही फट नही जाना। थोडा समय दो, पहले दो एक बार मिल लो, उसे जान लो फिर सही समय पर कह देना। पहली बार में ही सब कुछ कह देने से शायद वो तुम्हे कुछ और ही समझ ले। बात मुझे अच्छी लगी तो मैं मान गया। इससे पहले की मैं वहाँ से भागता सोमा ने मेरे हाथों मे एक पन्ना थमा दिया, इसमे एक सवाल था। गणित का सवाल! मैने  हामी तो भर दी थी मगर सच कहूं तो मैं खुद ही गणित से दूर भगता था। क्लास मे पास मार्क्स भी लाने मे मेरे पसीने छुट जाते थे। मगर "लडकी का चक्कर बाबु भैया, लडकी का चक्कर" जो ना करवाये कम है। अब इसे हल कैसे करूं। एक तो उसकी भाषा भी बंगाली थी, जो की कोई समस्या नही थी क्युंकी मैं पढ और समझ तो लेता ही था मगर जब हिंदी मे मुझे गणित समझ नही आती तो भला बंगाली मे कैसे पल्ले पडती। पर मैंने भी एक तरक़िब निकाली और अपने ट्युशन मे जाकर वो सवाल हल करवा लिया। एक बार तो मेरे मास्टर साहब भी चकरा गये की रबी मैथ के सवाल पुछ रहा है? वो लडका जो हमेशा इस विषय के क्लास में गायब रहता था वो आज खुद ही सवाल पूछ रहा था। मेरे मास्टर जी के मूंह से जो पहला सवाल निकला वो था – क्युं रे तु किसी लडकी के चक्कर मे तो नहीं पड गया ना? तेरे लक्षण मुझे सही नही लग रहे है। ये बात सुनकर बाके के सारे बच्चे हंसने लगे। मैं संकोच मे पड गया की इन्हे कैसे पता चली ये बात। मास्टर जी मेरी तरफ देखते हुए बोले चल कोई नही मैं समझा देता हूँ। अब तुने पहले बार हिम्मत दिखये है तो इतना तो करना ही पडेगा। मैं अंदर से बहुत खुश हुआ मगर सर की बात से जैसे एक डर भी लगा। खैर मेरी एक समस्या तो हल हो चुकी थी। मगर तब क्या होता जब उसे मैं ये सवाल समझाता और बीच ही मे खुद अटक जाता तो? ये सोचकर मैंने पहले खुद सवाल समझने का फैसला किया। दो से तीन बार करते ही मैं समझ गया की ये मेरे बस की बात है नही। तो फिर क्या करुं उससे बात करने का मौका गवां दूं? ये तो नही हो सकता था। फिर लगा क्युं ना सवाल को रट लूं इससे मुझे पुरा सवाल यद भी रहेगा और एक झटके मे उसके सामने सवाल हल कर दुंगा तो उसे भी कोई शक नही हो पायेगा। यही सोचकर मैं पढने बैठ गया। मैंने अभी पढना शुरू ही किया था कि मां दरवाजे की पास से गुजरी वो एक पल को वहा ठिठकी और अंदर आकर सीधी मेरे ललाट पर हाँथ धर दिया। फिर मेरे बदन टटोलने लगी। मुझे बडा अजिब सा लगा मैं उन्हे देखने लगा। वो बोली बेटा तेरी तबियत तो ठिक है ना? ये तु क्या कर रहा है? मै उन्हे सवालिया नज़रों से देखने लगा। थोडा रुककर वो फिर बोली, स्कूल मे मार पडी है क्या? और ये कहते हुए हंसने लगी। मैं चिढ गया और जाने लगा तो वो बोली, इसमे मेरी क्या गलती है आज तक कभी तुझे बिना मार खाये पढते हुए नही देखा तो मैं क्या सोचूं? खैर पड रहा है तो अच्छा ही कर रहा है। कम से कम अकल तो ठिकाने आयी तेरी। 

अगले दिन जब मैं गली मे सोमा जी राह देख रहा था तो उधर से बुबाई निकला। उसे देखते ही मेरा पारा चढ गया। मैंए निचे से एक ढेला उठाया और उसकी तरफ दे मारा। साले के पैर मे लगी और थोडा खुन भी निकलने लगा। पहले तो वो खोजने लगा की उसे मारा किसने, मगर मुझे देखकर वो समझ गया की किसने और क्युं मारा। तभी सोमा गली से निकली, मेरे मन मे हलचल होने लगी। मगर ये क्या राखी तो उसके साथ नही थी। सोमा चल कर मुझ तक आ चुकी थी मगर राखी का कोइ अता पता नही था। मेरे पास आते ही उसने हाथो से पिछे की तरफ इशारा किया। राखि पिछे से आ रही थी। मेरे धडकने तेज़ हो गयी मन मे डर और उत्सुकता एक साथ घुमडने लगी। मैने उसके तरफ देखा मगर हाथ हिला भी नही पाया। अपने इस व्यवहार से खुद ही नाराज़ भी हो गया। मैंए सवाल का पन्ना सोमा को देते हुए कहा की देख ले ये सवाल हल कर दिया है। सोमा ने कागज राखी के तरफ बढाते हुए कहा, ले देख ले मैंए कहा था ना की रबि ये कर लेगा। कागज लेते हुए उसने सोमा से पुछा इसका नाम रबि है? मैंए हाँ मे सर हिला दिया। फिर वो बोलि ठिक है मैं इसे बाद मे देख लुंगी और इतना कहकर वो जाने लगी। इससे पहले की मैं उसे टोकुं वो मुडी और चल पडी पर दो कदम पर रुक गयि और पीछे मुडकर बोली, तुम क्रिकेट बहुत बढिया खेलते हो। देखा मैने कैसे तुम अपनी टिम को जीत दिलवाये थे। 

मुझे लगा चलो इसे मुझमे कुछ तो अच्छा दिखा। ये एक सकारात्मक शुरुआत के लिये काफी है। मैंने भी मौके को हाथ से जाने नही दिया और उसे अपने अगले मैच का न्योता दे दिया। वो हंसी और पुछने लगी की मैच कब है। इसी रविवार को – मैं बोला। ठिक है मा आ जाउंगी। उसके इस जवाब से लगा की थोडी बहुत चिंगारी तो उधर भी लगी थी वर्ना वो एक बार मे आने के लिये तैयार तो नही हुइ होती। वजह चाहे कुछ भी रही हो मेरे लिये उसका मुझसे बात करना ही बहुत था। तो इस तरह से मेरी उसकी बात आगे बढी। अभी मैं सोमा के बताए रास्ते पर चल रहा था यानी पहले जान पहचान और भी प्यार की बात। इसके बाद हम कई बार मिलने लगे कभी खेल के मैदान मे तो कभी बज़ार जाते हुए तो कभी स्कूल आते जाते हुए। अब अक्सर वो मुझे क्रिकेट मैच के दौरान चीयर करने आती थी। मुहल्ले के सभी लडके हैरान और परेशान थे की ये हो क्या रहा है। जिसे वो पटाने के लिये सर पटकते रह गये वो तो मेरी झोली मे किसी मेहनत के बीना ही गिर गई थी। ये देख कर बाकी लडकी मुझसे जलने लगे थी। खास करके बाप्पा और बुबाई दोनो। जले भी क्युं नही एक तो मैं इस मुहल्ले मे उनके बाद आया था और उपर से मैं बंगाली भी नही था फिर भी मैंने उस लडकी को पटा लिया था जिसे वो आज तक पटा नही पाये। तो जलना तो बनता है भाई। अब वो अपनी खुन्नस कैसे निकाले तो उन लोगोन ने हम दोनो का नाम बदनाम करना शुरु कर दिया। अब तक जो बच्चे हमारे बारे मे नहीं जानते थे वे भी सब कुछ जान चुके थे। रही सही कसर हमारी एक गलती ने पुरी कर दी। 

हुआ युं की उस दिन मुझे स्कूल जाने मे देर हो गयी थी तो मैं इसी वजह से तेजी से साईकिल चला रहा था। मन मे खयाल चल रहा था कि अगर देर हो गयी तो क्लास टिचर हाजरी नही देंगे। लेकिन जैसी ही मैं बडे सडक पर आया तो देखा राखी अकेले अपने स्कूल के तरफ जा रही थी। मैंने मजाक मे ही उससे पुछ लिया की तुम्हे स्कूल छोड दूं। मुझे यकिन था की वो ना ही कहेगी क्युंकी मेरा और उसका दोनो का स्कूल एक दुसरे के बिल्कुल उलट दिशा मे था। पर मेरे पुछते ही उसने हाँ कर दिया। और बोली देखो ना मेरे पैर मे कल मोच आ गयी थी जिसके वजह से मैं ठिक से चल भी नही पा रही हूँ। मा से कहा की आज स्कूल नही जाना है तो उन्होने सीधे मना कर दिया और मुझे स्कूल भेज रही है। लगता नहीं है की मैं समय पर स्कूल पहुंच सकुंगी। एक प्रेमी के लिये इससे अच्छा और क्या हो सकता है की उसकी प्रेमिका उसके साथ उसिके साईकिल पर बैठ कर स्कूल जाए। मगर ठहरो मै तो खुद भी लेट था ना? अगर मैं समय पर नही पहुंचा तो मेरी भी हाजिरी नही हो पाएगी। ये सोच कर मैं ठिठ्का पर अगले ही पल मे मैंने फैसला कर लिया-  भांड मे जाए आज की हाजिरी, आज तो मैं अपनी प्रेमिका को उसके स्कूल सही समय पर पहुंचा कर ही रहुंगा, चाहे फिर कुछ भी हो जाए। मैंए उसे झट से साईकिल पर बैठाया और उसके स्कूल की तरफ कूच कर गया। रास्ते भर हमने कई बातें की पर मैंने अपने मन की बात बताई नही। उसके बताये रास्ते पर चलते हुए हम उसके स्कूल तक पहुंच गये। जब उसे उतारा तो उसकी सहेलियां मेरे साथ उसे देखकर हंसने लगी। मुझे अपने सूरत पर थोडा भी भरोसा नही था( मेरी शादी होने तक नही था) तो मुझे लगा शायद वो ये सोच कर हस रही होगी की कैसे बंदर जैसे लडके के साथ राखी आयी है। राखी उतरी और अपने स्कूल के तरफ चल पडी। जाते जाते उसने बंग्ला मे कहा – "तुई की जावार सोमोय आमाके निए जेते पारबी? आज के आमार मा आसबे ना"। मैने उसे ऐसा दिखाया जैसे मैं बहुत परेशान हो जाउंगा मगर उसे हाँ कह दिया। सच तो यह था की मेरे पास उसे वापस ले जाने के अलावा और कोइ दुसरा चारा ही नही था। इसकी दो वजह थी १. मैं अपना स्कूल पहले ही मिस कर चुका था तो इस स्मय घर तो लौट नही सकता था और २. मुझे यहाँ से वापस जाने का रास्ता भी ठिक से याद नही था। चुकी मैं यहाँ पहले बार आया था और पुरे रास्ते मेरा ध्यान सिर्फ उससे बात करने मे था तो मैं रास्ता समझ ही नही पाया। 

अभी बज रहे थे १०:३० और मुझे ३:४५ तक यहा छुप के रहना था। छुपके इस लिये क्युंकी मैं स्कूल के कपडो मे था और मेरा बैज ये चिल्ला-चिला कर कह रहा था कि एक बोय्स स्कूल का लडका इस समय एक गर्ल्स स्कूल के बाहर क्या कर रहा है। फिर किसी जान पहचान वालो का यहाँ से गुजर नाना भी मुमकिन था। एक बार अगर ये बात घर तक चली गयी तो पता नही क्या हो जाता। मैं छुपने की जगह ढूंढने लगा। पास ही में एक मंदीर दिखा जहाँ कोई उत्सव चल रहा था। साईकिल लगाकर मैं अंदर चला गया। लगभग पांच घण्टे के बाद मैं बाहर निकला तो सीधे उसके स्कूल के तरफ भागा। वहा जाकर देखा की एक भी लडकी नज़र नही आ रही थी। मुझे लगा की शायद मुझे देर हो गयी और वो चली गयी। मैं खुद से नाराज़ होने लगा और खुद ही पर चिखने लगा। वहां से गुजरने वाले लोग मुझे देखकर हैरान हो रहे थे। मैं वापस जाने के लिये मुडा तो मुझे स्कूल की घंटी सुनाई दी। तब मेरी जान मे जान आयी। समझ मे आया की छुट्टी तो अब जाकर हुइ है। मेरे परेशान चेहरे पर मुस्कान खिल गयी। एक-एक करके लडकियां बाहर आने लगी जो भी मेरे सामने से निकलती मैं उसमे राखी को खोजने लगता। सारी लडकिया चली गयी मगर राखी नही निकली। ये कैसे हो सकता था। अब मैं घर कैसे जाउंगा, मुझे तो रास्ता भी नही मालुम था। जब स्कूल की आखिरि लडकी भी चली गयी तो मुझे डर लगने लगा। एक बर फिर से मेरे पसीने छुटने लगे लेकिन तभी राखि ने मुझे आवाज़ लगायी। "कि रे कोबे थेके तोके खूंज्छी, तोके आमी कोथाय दाराते बोले छिलाम? आर तुइ कोथाय दारिये आछिस? 

ये शब्द मेरे लिये किसी राहत से कम नही थे मुझे उसके मिलने से ज्यादा मुझे खुशी इस बात के एथी की अब मैं सही समय पर घर पहूंच जाउंगा। मुझे मेरी मां कोइ किसी तरह की कहानी नही सुनानी पडेगी। खैर उसे साईकिल पर बैठाकर हम दोनो घर की तरफ चले। पुरे रास्ते हम बात करते रहे कभी पढाई की तो कभी खेल कुद की तो कभी युं ही इधर उधर की बात। इतना अच्छा मौका हिते हुए भी मै उससे वो बात नही कह पाया जो कहने के लिये मैं मरा जा रहा था। अभी मेरे दिमाग के अंदर  सिर्फ दो बात थी एक मुझे और उसे साथ मे कोइ देख ना ले और दुसरा जितनी जल्दी हो सके मैं अपने घर पहुंच जाऊं। इस बार मैंने उसके स्कूल के रास्ते को अच्छे से देख भी लिया था ताकी अगली बार मुझे उसका रास्ता ना देखना पडे। जब हम घर की गली मे आये तो मैंए उसे उतर कर जाने को कह दिया ताकी हम दोनो को किसी को कोइ जवाब ना देना पडे। लेकिन "अभागो के सुखस्वप्न कभी पुरे नही होते" तो मेरे भला कैसे हो सकते थे। हम दोनो को रास्ते मे तीन लोगोन ने देख लिया था। एक थी सोमा जिसने मुझे उसे छोडते हुए भी देखा और लाते हुए भी देखा था। दुसरा था राखी का बाप जिसने हमे मैं रोड पर देखा था और तीसरा था मेरा मेरा दोस्त बुबाई (साला कमिना)। सोमा ने ये बात किसी को नही बताई। राखे के बाप मुझे भी जानता था और ये भी जानता था की राखी के पैर मे मोच है तो इसने इस बात को गलत तरिके से नहीं लिया। पर साले बुबाई ने तील का तार बना दिया। साले ने पुरे मुहल्ले मे हम दोनों के नाम के पर्चे बंटवा दिये। छोटे से लेकर बडे तक सबको जुबान पर हम दोनो का नाम था। इन सब बातों से मैं डर रहा था मगर राखी को कोइ फर्क़ नही पडता था। बल्कि वो तो इसके बाद और खुलकर मुझसे बात करने लगी। अब मेरे और राखी के बीच बात दोस्ती से आगे बढ सकती थी। जबसे बुबाइ ने ये बात फैलायि थी राखी मेरे साथ और भी मुखर हो गयी थी। पहले वो मैदान मे खेलने नहीं आती थी मगर अब वो मैदान मे आती भी और मेरे साथ खेलती भी थी। एक बार जो हम दोनों ने बैड्मिंटन हाथ मे थम लिया तो फिर किसी और के खेलने की बारी आना बिल्कुल मुश्किल हो जाता। दिन बीतते गये और हमारी दोस्ती भी बढती गयी। दोस्ती बढने के साथ साथ मेरा डर भी बढता चला जा रहा। 

कहते है दोस्ती से प्यार तक का सफर सब्से मुश्किल और खतरे भरा होता है। सही भी है क्युंकि जब आप अपने प्यार के सबसे अच्छे दोस्त बन जाते है तो अपके मन मे ये डर बैठ जाता है की प्यार के इज़हार के चक्कर मे कही अच्छी खासी दोस्ती से भी हाथ धोना ना पड जाये। इसी वजह से अक्सर सच्चा प्यार दोस्ती के नाम पर बली चढ जाता है। मेरे साथ भी वैसा ही कुछ हो सकता था इसके पुरे असार भी थे क्युंकी दिल की बात मैं उससे कर नही पा रहा था और दोस्ती बढती ही जा रही थी। पर मुझे तो उसका दोस्त बनना ही नही था। मुझे तो.................................... बस बहुत हो गया अगर अब भी मैने उससे दिल की बात नही की तो बात हाथ से निकल जाएगी। मगर कैसे करूं कह तो नही पाउंगा तो फिर कैसे कहूं। चिट्ठियों का अस्तित्व अभी तक खतम नही हुआ था। मैंए भी उसे खत लिखने का सोचा। खत लिख भी लिया मगर समस्या ये थी की उसे हिंदी पढना नही आता था। बात समझ लेती थी मगर हिंदी पढ नही पाती थी। तो अब क्या करूंमुझे तो बंग्ला लिखने आता है नातो क्युं ना मैं अपना पहला प्रेम पत्र बंग्ला मे लिखूं। तो मैने अपना तय कर लिया की मैं उसे बंग्ला मे खत लिखुंगा। मैने कलम उठाई और लिखना शुरु किया.... 


প্রিয় রাখি

আমি তোমাকে অনেক ভালোবাসিআর আমি তোমাকে ছাড়া বাঁচতে পারবো নাতোমাকে অনেকবার বলার চেষ্টা করেছি কিন্তু তোমার সামনে আসার সাথে সাথে আমার আওয়াজ বের হয় নাকিন্তু এখন আমি বাঁচতে পারব না আর এই কথাটা না বললে আমার কোথাও মৃত্যু যেন না আসে।  এখন তুমি আমার ভালোবাসা মেনে নেবে কি না সেটা তোমার ব্যাপার। 
তোমার রবি। 
मैंने खत तो लिख डाला मगर लिखावट इतनी गंदी थी की पुछो मत। हिंदी की लिखावट सही ही है मगर दुसरे भाषा में पहली बार लिखना बहुत डरावना अनुभव होता है। अपने हाथ से अपना पहला प्रेम पत्र लिखना बहुत कठिन था पर मैं किसी और पर भरोसा भी तो नही कर सकता था। पहले ही सब मेरे पिछे पडे हुए थे अगर किसी और से खत लिखवाता तो बात फैलने का डर था और इस तरह से बात हम दोनो के बीच ही रह जाती और किसी को कानो-कान खबर नही होता।
खत लिखने की हिम्मत तो मैं कर चुका था और लिख भी लिया था मगर उस तक ये खत पहूंचाना भी तो थाअब ये काम कैसे होगाबहुत सोचने के बाद मैंने खुद ही उसे देने का भी निर्णय कर लिया। थोडी हिम्मत जुटाई और शाम को उससे मिलने का विचार किया। अभी तक हम दोनों के बीच इअतनी बातें हो चुकी थी की अगर वो मेरे प्रस्ताव को नकार भी देती तो भी इस बात का कोई हंगामा नही होता। बस तय कर लिया की अब मुझे देर नही करनी चहिये। उस दिन शाम को जब मैं मैदान पहुंचा तो बेसब्री से उसकी राह तकने लगा। मेरे सब दोस्त खेल रहे थे और मैं एक कोने मे खडे होकर उसके आने की राह देख रहा था। एक-एक पल जैसे एक दिन के तरह बीत रहा था। बेचैनी और डर दोनों एक साथ मेरे मन में गोते लगा रहे थे। मुझे उसके ना कहने का डर नही था मगर ये बात उसे किसी और से पता चले ये भी मुझे गवारा नही था। आज उसे लौटने मे काफी देर हो रही थी। रोज़ करीब साढे चार बजे तक लौट आती थी मगर आज पांच बनजे को थे मगर उसकी कोई खबर नही थी। अब तक सोमा भी घर लौट चुकी थी। तभी मेरी नज़र गली मे घुसते हुए एक साईकिल पर पडी। एक १६-१७ साल का लडका अपने पीछे एक लडकी को बैठाए हुए था। वोप दोनों मैंदान के तरफ ही बढ रहे थे। जब वो दोनो करीब आये तो मालुम पडा की उसके पिछे राखी बैठी हुइ थी। मुझे अजीब तो लगा पर बिना कुछ जाने गलत सोच लेने वाला लडका मैं नही हूँ। मैं उसे देखता रहाराखी साईकिल से उतरी और मेरे तरफ़ बढने लगी। मेरे पास आकर उसने कहाआज तुम खेल नही रहेमेरे कुछ कहने के पहले ही वो पिछे मुडी और उस लडके के तरफ इशारा करके उसे मेरे पास आने को कहा। जब तक वो हमारे पास आता राखी मुझसे बोल पडी रबि मुझे तुमसे एक बात बतानी है। ये जो लडका है ना इसका नाम संजय है। हम दोनों पिछले एक साल से साथ है और आपस मे प्यार करते है। आज मैं इसे तुमसे और अपनी मां से मिलवाने लाई हूँ। 
मुझे झटका तो लगा मगर मैने भी उससे पूछ लिया तुम इसे मुझसे मिलाने क्युं लाई होअपनी मां से मिलवाने की बात मेरे समझ मे आती है मगर मैं इसमे क्या कर सकता हूँ। इतने मे वो लडका भी हमारे पास आ चुका था। आते ही उसने हाथ मिलाया और नाम भी बताया। मुझे उससे मिलने या उसका नाम जानने का थोडा सा भी मन नहीं था। इतने मे राखी बोलि तुमसे मिलवाने की वजह है और बहुत बडी वजह है। और वो वजह तुम भी जानते हो और मैं भी जानती हूँ। मैं समझा नहीं-मै बोलामैं जानती हूँ की तुम मुझसे प्यार करने लगे हो। ये बात मुझे तुम्हारी बातों से साफ साफ पता चलती है। हो सकता है आज या कल तुम कह भी दो मगर इससे पहले की तुम्हारा दिल टुटे मैं तुम्हे सच बता देना चाहती हूँ। मैं संजय से प्यार करती हूँ ये बात मैं आज अपनी मां को भी बता दुंगी। मैं नही चाहती थी की जब तुम मुझसे अपने प्यार की बात कहो तो ये बात जानकर तुम्हे तकलिफ हो। तकलिफ तो हो रही है राखी- मैं बोलाऔर बोलता रहाऔर हाँ तुमने मुझे बताने में देर भी कर दी है। मैं तो आज तुम्हे पत्र देने वाला थाजो की मैं दुंगा भी। क्युंकि मैं ये कभी नही बर्दाश्त कर सकता की मैंने तुम्हे अपने दिल की बात नही बताई। ये मैं तुम्हारे लिये लाया था। ले लोचाहो तो पढना य फिर फेंक देना मगर लेने से इनकार्मत करना। एक बात और ये बात जानते हुए भी की तुम मुझसे प्यार नही करतीमैं तुम्हे प्यार करना नही छोड सकता। तुम्हे अपने हिस्से का प्यार करने का हक़ है और मुझे अपने हिस्से का प्यार करने का हक़ है। मैं इन बातों मे नहीं जाउंगा की मुझमे क्या कमी है या फिर उसमे क्या अच्छाई है क्युंकी तुमने मुझे अपना फैसला सुना दिया है। एक बात और आज के बाद हम दोस्त नही रह सकतेनही मैं ये रिश्ता तोड नही रहा हूँ बल्कि एक नया रिश्ता जोड रहा हूँ। तुम चाहे तो मुझे कुछ भी समझो मगर मेरे लिये आज से बल्कि अभी से तुम मेरी प्रेमिका हो और आज के बाद हमेशा रहोगी। 
इतना कहकर मैं वहां से चला गयाएक बार भी पिछे मुडकर नही देखा। ना तो रोया और ना ही हाय तौबा मचायी। अभी तक अपना जो भी नुकसान कर चुका था ( समय और पढाई का) अब उसकी भरपाई करनी थी। बस मन मे एक बात बैठा ली थी भले ही वो मुझसे प्यार करे ना करे मैं उससे हमेशा प्यार करता रहुंगा। उस दिन के बाद भी हम अक्सर रास्ते मे और मैदान मे मिल जाते थे मगर कोइ बात नही होती थी। एक दो बार मैने उसे स्कूल भी छोडा मगर किसी तरह की बात नही हुई। उस घटना के तीन साल बाद तक (जब तक मैं कालेज नहीं जाने लगा) मैंने कभी किसी और लडकी के बारे में नही सोचा। उसे संजय के साथ देखकर थोडी तकलिफ जरूर होती थी मगर मैंने उसे जाहीर नही होने दिया। हाँ सपनो मे वो आज भी मेरी ही थी। मेरी दुनिया मे मेरे सिवा किसी और का उसपर कोइ हक़ नही था। समय बितता गया और मेरी ज़िंदगी भी बदलती रही। पढाई पूरी की नौकरी करने के लिये शहर तक बदल दिया। धीरे धीरे उस समय की सभी यादें धूंधली हो गयी। करिब बीस साल के बाद  २०१९ मे जब मुझे अपने पुराने घर जाने का मौका मिला तो सोचा एक बार उस मैदान को भी देख आऊं। यही सोचकर उस तरफ निकला था। जो वीरान बस्ती थी वहाँ अब पैर रखने की भी जगह नही थी। कच्ची सडके पक्की हो गयि थी। मैदान तो अब कही दिख ही नही रहा था। वापस मुडा तो एक अधेर उमर की औरत को देखा। जो मेरे पास से होकर निकल गयी। उसके पीछे एक लडका दौरते हुए जा रहा था। और ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था राखी-ओ-राखी ओ दिके जास नासंजय ओ दिके नेई। मैं स्तब्ध रह गया। ये राखि थी जो अब दिमाग से लचार हो गयि थी। कारण क्या था पता नही। शायद संजय ने धोखा दे दियाशायद संजय मर गयाशायद संजय खो गया। क्या हुआ पता नही चला। मैने पता करना उचित भी नही समझा। जो होना था हो चुका था। मेरा पहला प्यार अधुरा रह गया था। तो अगर उस दिन उसने मेरे प्रेम को स्वीकार कर लिय होता तो क्या होताक्या वो अब ऐसी नही होती या फिर शायद मैं उसकी जगह पर होतातो क्या ये मान लिया जाय की जो होता है सब अच्छे के ही लिये होता है। 

समाप्त 
 


Rate this content
Log in