हरि शंकर गोयल

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हरि शंकर गोयल

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पतझड़

पतझड़

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बड़ा अजीब सा मौसम होता है पतझड़ का । पत्ते डाली से अलग होकर गिरने लगते हैं । गुलशन उजड़ा उजड़ा सा लगता है । वृक्ष इस प्रकार लगते हैं जैसे उनका चीरहरण हो गया हो । पेड़ों की हालत एक ऐसी औरत जिसका सुहाग उजड़ गया हो जैसी हो जाती हैं । गुलशन की समस्त कांति जा चुकी होती है पतझड़ में । कुछ भी अच्छा नहीं लगता है पतझड़ में । ना दिल लगता है और ना दिमाग ही कुछ काम करता है । 

समस्या तो कलियों की होती है । सब कैसे मुरझा कर बेहाल सी हो जाती हैं । धीरे धीरे मरने लगती हैं । उनकी चमक दमक , मुस्कान सब खत्म हो जाती है । शायद कलियों और फूलों की यही नियति है । जब तक खिलते रहो तो बागों में बहार रहती है । सब लोगों के आकर्षण का केंद्र बनती हैं । रूप लावण्य से भरपूर रसभरी की तरह लगती हैं । मगर पतझड़ के मौसम में कचरे का ढेर बन जाती हैं । लावण्य और सुगंध दोनों गायब हो जाती हैं । कृशकाय , नीरस कुरूप नजर आतीं हैं । 


समस्या तो भंवरों की होती है असली । जब तक कलियां हैं , फूल हैं , बहार है तो भंवरे भी आशिक की तरह चारों ओर मंडराते रहते हैं । भंवरों को देखकर कलियों में उमंग फूट पड़ती है । चाहत का रंग भरने लगता है । बदन भरने लगता है । भंवरे उसे और भरमाते हैं । और रसीली बनाते हैं । कलियों के अंग अंग से सौंदर्य के झरने फूटने लगते हैं । शहद की धारा प्रवाहित होने लगती है । ऐसा लगता है कि जैसे सारी कायनात उसके चरण चूमने को आतुर होकर उसके चारों ओर मंडराने लगी है । 


भंवरों की संख्या में वृद्धि होने लगती है । भांति-भांति के भंवरे । कहते हैं कि भंवरे बड़े दिल फेंक किस्म के होते हैं । कभी किसी एक कली पर कहां हमेशा के लिए टिकते हैं । जहां भी कोई और सुंदर सी कली दिखाई देती है , वहीं अपना डेरा जमा लेते हैं । लेकिन पतझड़ के मौसम में तो भंवरों की आत्मा रोने लग जाती है । एक तो कली कहीं दिखाई नहीं देती है , उस पर तुर्रा यह है कि फूल भी सारे गायब हो जाते हैं । फूल और कलियों के बिना भी कोई जीवन कहलाता है "हरि" ? धिक्कार है ऐसे जीवन पर ।


भंवरे बड़े परेशान रहते हैं पतझड़ में । ना तो नैनसुख मिलता है , ना बतरस का आनंद । स्पर्श और कंपन्न तो बहुत दूर की बात है । "संयोग" तो कल्पनातीत है । भला, ऐसे घटिया मौसम को कौन भंवरा चाहेगा ? भंवरों को तो बहार का मौसम ही पसंद आता है । हंसती मुस्कुराती नाचती हुई कलियां और मंडराते , गुनगुनाते , प्रणय निवेदन करते भंवरे । बस , यही जीवन है । पतझड़ तो मौत से भी बदतर है । तिल तिल कर घुटना किसे पसंद आता है । 


मगर , प्रकृति पर किसका जोर चलता है । जो नासमझ भंवरे हैं वे पतझड़ में कलियों को ना पाकर खुद को खत्म कर लेते हैं । गम के समंदर में डूबने लगते हैं । जजबातों के बवंडर में उलझ जाते हैं और अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं । मगर जो ज्ञानी भंवरे हैं , उन्हें पता है कि यह पतझड़ का मौसम कोई स्थायी नहीं है । इसके बाद फिर से बहारें आयेंगी । फिर से कलियां खिलेंगी । फिर से फूल लहलहाएंगे । तब भंवरे भी उन फूलों और कलियों पर फिर से मंडराएंगे । तब दोनों का मिलन भी होगा । प्रणय भी होगा । 


इसी का नाम जिंदगी है । उत्थान पतन सृष्टि का नियम है । बहार और पतझड़ का मौसम परिवर्तनशील है । आज बहार तो कल पतझड़ और फिर पुनः बहार । ज्ञानी लोग पतझड़ के मौसम में अधीर नहीं होते । वे इंतजार करते हैं बहार का । फिर आनंद लेते हैं जिंदगी का । इसलिए पतझड़ के मौसम में संयम से काम लेना चाहिए । 


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