फटे में पैर फँसाना....
फटे में पैर फँसाना....
"अरे मैडम, आप एक बार एस.पी. साहब से मिल लो। बहुत ही बढ़िया आदमी हैं, आपकी बात जरूर सुनेंगे। एक बार थानाधिकारी को हड़का देंगे तो यह आपकी कम्प्लेन भी लिख लेंगे" मुझे थानाधिकारी के ऑफिस के बाहर बैठे कांस्टेबल ने कहा।
अगर दूसरे लोगों की भाषा में कहूँ तो,मुझे दूसरों के फटे में टांग डालने की आदत सी हो गयी है। जबकि मुझे लगता है अन्याय कहीं पर भी हो, हमें उसका विरोध करना चाहिए। दोषी को सजा और पीड़ित को न्याय दिलवाना ही चाहिए। कहीं पर भी होने वाला अन्याय, हर जगह न्याय के लिए खतरा बन जाता है।अतः दूसरों की मदद करना चाहे किसी को फटे में पैर डालना लगे ,लेकिन मुझे अपने आपको मानव ,इंसान ,मनुष्य कहलाने के लिए पहली और सबसे आवश्यक शर्त लगती है।
हमारे पड़ोस के किसी परिवार में बुजुर्ग माता-पिता के साथ बच्चे लम्बे समय से दुर्व्यवहार कर रहे थे। इसी की शिकायत करने मैं थाने गयी थी। ऐसा नहीं है कि मैंने बच्चों को समझाने की कोशिश नहीं की हो, लेकिन हर बार उन्होंने मुझे हमारे घर का मामला है, ऐसा कहकर लताड़ कर भगा दिया था । इसलिए मैं थानाधिकारी से सिर्फ इतना ही चाह रही थी कि वह एक बार आकर बच्चों को धमका दे।अब तो घेरलू हिंसा अधिनियम बुजुर्गों को भी सुरक्षा प्रदान करता है।
कई बार चक्कर लगाने के बाद भी थानाधिकारी मेरी मदद नहीं कर रहे थे। उनका यही कहना था कि जब माँ -बाप को कोई शिकायत नहीं है तो आप बीच में क्यों पंचायती कर रही हैं। खैर मेरी समझाइश का थानाधिकारी पर कोई असर नहीं हो रहा था, होता भी कैसे शायद उनकी जेबें गरम कर दी गयी थी। इसलिए मैंने कांस्टेबल की बात मानकर एस पी साहब से मिलने का निर्णय लिया|
मैं एस पी साहब के ऑफिस पहुँच गयी थी। उनके रूम के बाहर लगी नेम प्लेट ने मुझे किसी की याद दिला दी थी। उनके निजी सहायक को मैंने अपना नाम और मिलने का कारण बताया। निजी सहायक ने एस पी साहब को इण्टरकॉम पर बताया और पता नहीं एस पी साहब ने क्या कहा, निजी सहायक खुद मुझे सर के रूम तक लेकर गया।
जैसे ही मैं उनके रूम में पहुंची, एस पी साहब खड़े होकर मेरे नज़दीक आकर उन्होंने मेरे पैर छुए। मुझे नेम प्लेट पर लिखा हुआ नाम दुष्यंत सिंह याद आ गया, मैंने सिर्फ ख़ुशी और आश्चर्य से इतना ही कहा, "दुष्यंत, तुम्हें आज यहाँ देखकर मुझे बहुत ही ख़ुशी हो रही है। मुझे विश्वास था तुम अपनी ज़िन्दगी में कुछ बेहतर ही करोगे। आज मुझे तुम पर गर्व है।"
"दीदी, यह सब कुछ आपके ही कारण हुआ, नहीं तो पता नहीं आज भी कहीं चोरी -चकारी कर रहा होता।आज जहाँ भी हूँ ,आप ही की बदौलत हूँ। ", दुष्यंत ने जब यह शब्द कहे,उसकी आँखों में मुझे अपने लिए अपार प्यार और सम्मान दिखाई दिया था। आज मुझे अपने फटे में पैर डालने की आदत के कारण बड़ा सुकून महसूस हुआ था।
"खैर बताइये, आप अभी भी समाज को बदलने में लगी हुई हैं ?" दुष्यंत ने पूछा|
"तुम्हें भी तो बदला था न| अभी भी चाहती हूँ कि थोड़ा सा दुनिया को बेहतर बना दूँ| कम से कम अपनी आने वाली पीढ़ियों को वैसी दुनिया तो दूँ, जैसी मुझे मिली थी| इसी सिलसिले में एक बुजुर्ग दंपत्ति कि मदद करना चाहती थी| तुम एक बार थानाधिकारी को बोल दो तो शायद मैं उनकी कुछ मदद कर पाऊं| ",मैंने एक सांस मेंअपनी बात कह दी|
"आप बिलकुल नहीं बदली हो| सीधे मुद्दे की बात कह देती हो| मैं अभी उसे निर्देश दे देता हूँ" दुष्यंत ने कहा|
दुष्यंत के पास से लौटते हुए, टैक्सी को घर का पता बताकर मैं अतीत के सफर पर निकल गयी थी, मेरी मंजिल थी दुष्यंत| मुझे दुष्यंत से मुलाक़ात का पहला वाकिया याद आ गया था|
दुष्यंत से मैं एक किशोर सुधार गृह में मिली थी। १८ वर्ष से कम उम्र के अपराधियों को सुधारने के लिए किशोर गृह में रखा जाता है। इन गृहों में जहाँ एक तरफ निर्भया काण्ड जैसे दुर्दांत आरोपी रहते हैं ,वहीँ दूसरी तरफ दुष्यंत जैसे वक़्त और हालात के शिकार मासूम बच्चे भी रहते हैं। कई बार मासूम बच्चे गलत संगत में पड़कर इन गृहों से दुर्दांत अपराधियों के रूप में निकलते हैं और कई बार समाज समाज इन किशोर गृहों से निकले बच्चों को अपनाता नहीं है.यह अस्वीकृति और बहिष्कार उन्हें पुनः अपराध की तरफ धकेल देता है।
दुष्यंत भी ऐसे ही एक गृह में साइकिल चोरी के अपराध में रह रहा था। अत्यंत गरीब परिवार का दुष्यंत अपने पड़ौसी रघु के साथ घूम रहा था ;रघु मोटर साइकिल चुराकर भाग गया था और दुष्यंत वहां उस समय उपस्थित था और रघु के इरादों से अनजान दुष्यंत वहीँ खड़ा रह गया था। दुष्यंत एक ऐसे अपराध की सजा काट रहा था ;जो उसने कभी किया ही नहीं था।
मुझे दुष्यंत की कहानी ने बहुत प्रभावित किया था। मैं उसे लगातार एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करती रही। मैंने अपने प्रयासों से उसकी सजा भी कम करवा दी थी।
मैंने दुष्यंत को कैसे भी अपनी पढाई जारी रखने की प्रेरणा दी। उसकी मदद करने के लिए मैंने उसे एक ऑफिस में ऑफिस ब्वॉय रखवा दिया था। वहां नौकरी करते हुए उसने स्वयंपाठी विद्यार्थी के रूप में पढ़ते हुए सेकेंडरी उत्तीर्ण कर ली थी। उसके बाद अपने पापा के स्थानांतरण के कारण मैं वह शहर छोड़कर आ गयी थी। कुछ समय तो दुष्यंत से संपर्क रहा ;फिर संपर्क का सिरा टूट गया था।
लेकिन आज दुष्यंत को इस पद पर देखकर मुझे बहुत ही शांति और संतुष्टि का अनुभव हुआ। कम से कम एक व्यक्ति को तो मैं अपराध की गहरी खाइयों में खोने से बचा सकी थी। अच्छा ही हुआ, जो मैंने लोगो ने की बातों पर ध्यान दिए बिना फटे में पैर फंसाया और आज भी फंसाने से पीछे नहीं हटती।
दुष्यंत ने थानाधिकारी से बात कर ली थी। थानाधिकारी मेरे पास स्वयं चलकर आया और मुझसे पूछा कि ," मैडम ,किस घर में वृद्ध माता -पिता के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है ? अभी जाकर समझा आता हूँ। आगे से आपको कोई भी समस्या आये तो बस मुझे फ़ोन कर देना। "
मैं थानाधिकारी को उस घर तक ले गयी। पुलिस को घर पर आया देखकर उनके बेटों की सिटी -पिट्टी गुम हो गयी थी। हम भारतीय आज भी पुलिस को देखकर डर जाते हैं। अड़ोसी -पड़ौसी का भी डर लगता है कि न जाने हमारे बारे में क्या सोचेंगे ?बदनामी का भी डर लगता है।
"आगे से आप लोगों की शिकायत आयी तो ,पीटते -पीटते थाने तक घसीटकर ले जाऊँगा। तुम्हारे लिए अपना पूरा जीवन होम कर देने वाले माता -पिता को सताते तुम्हे जरा भी शर्म नहीं आती। आगे से इन्हे ज़रा भी तकलीफ नहीं होनी चाहिए। ",थानाधिकारी ने कड़ककर कहा। उनके बेटे बिना कुछ बोले गर्दन झुकाकर खड़े रहे।
"घेरलू हिंसा अधिनियम में अंदर डाला तो जमानत भी नहीं होगी। ", थानाधिकारी ने कहा।
"आगे से कोई शिकायत नहीं आएगी साहब। इन्हें माफ़ कर दो। ", उनके माता -पिता ने कहा.
" देखा ,अभी भी तुम्हारी तरफदारी कर रहे हैं। माँ -बाप का सम्मान करना सीखो। ",मैंने कहा और थानाधिकारी को वहां से निकलने का इशारा कर दिया था।
उसके बाद मुझे दोनों बुजुर्ग हमेशा हँसते -मुस्कुराते ही दिखे। थानाधिकारी की लताड़ शायद काम कर गयी थी। एक बार फिर फटे में पैर फंसाना कारगर रहा था।
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