मुखौटे
मुखौटे
दो मुखौटे पहन लिए मैंने
चेहरे के दोनों तरफ।
एक तरफ घृणा युक्त धरा-अधिकार।
दूसरी तरह नफरत भरा दीन-ए-हक।
चेहरा असली मेरा
अखबारों में भी छपता नहीं।
मेरी ही पुरानी किताबें बन गयी हैं तेल
मेरे ही सीने पे जलते दीपकों का।
और सवेरे की मेरी ही पुकार
अब लटकी मिलती है मेरी ही सूलियों पे।
मेरे दोनों मुखौटे
ज़मीन से उठा के कचरा
घोल देते हैं हवाओं में
एक कहता है उसे अमृत।
तो दूजा आब-ए-जमजम।
ऐ सवेरे-के-कवि!
तू अगर बन सकता है दर्पण
लिख सकता है तो लिख,
कि परछाइयों पे कैसे ग्रहण लगा रहे मेरे ये मुखौटे?
लेकिन
मुझे मेरे मुखौटों से भी ज़्यादा डर है कि
कहीं तूने भी मेरे मुखौटे न पहन लिए हों।
