मेरी पहली साईकल
मेरी पहली साईकल
ये बात वर्ष १९९० की बात है, जब मैं कक्षा ७ में पढ़ता था। मेरा स्कूल मेरे घर से लगभग ३ किलो मीटर दूर था, जहाँ हर रोज मै गॉंव के अन्य बच्चों के साथ पैदल पढ़ने जाया करता था। उन दिनों तीन चार किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाना आना आम बात हुआ करती थी, क्योंकि ज्यादातर घरों में एक साइकिल हुआ करती थी, जिसे घर के बड़े लोग इस्तेमाल करते थे। जिनके पास मोटरसाइकिल या स्कूटर होता था वो तो बहुत बड़े लोग हुआ करते थे। मेरे घर मे भी एक ही साइकिल हुआ करती थी जिसे पिता जी चलाते थे, वो भी एक अध्यापक थे इसलिए सुबह वो लेकर चले जाते थे। हम लोगो को भी आदत थी अपने दोस्तों के साथ स्कूल जाने की, इसलिए कोई फर्क भी नही पड़ता था। जो भी हमारे घर साईकल लेकर आता, हम लोग उसी की साइकिल को लेकर चला लेते और अगर पिता जी घर पर होते तो उनकी साइकिल चलाया करते।
मेरे ताऊ जी पुलिस विभाग में थे और उस दौरान उनकी पोस्टिंग पुलिस कार्यालय में हुआ करती थी, और बगल में ही उनका आवास भी था, इसलिए उनको आफिस आने जाने के लिए साइकिल की ज़रूरत नही होती थी। उनकी साइकिल बहुत दिनों से उनके आवास पर पड़ी थी। एक दिन जब वो गाँव आए तो उन्होने मुझे दूसरे की साइकिल चलाते हुए देखा, तो वो मुझे अपने पास बुला कर पूछने लगे कि तुम साइकिल चला लेते हो। मैंने जबाब दिया, हाँ ताऊ जी मैं तो काफ़ी दिन से साइकिल चलाता हूँ। फिर दूसरे दिन उन्होंने मुझे पैदल ही स्कूल जाते हुए देखा तो उन्होंने पिता जी से बोला, अगली बार जब मैं आऊँगा तो मेरे पास एक साइकिल पड़ी है, जिसका कोई इस्तेमाल नही है, ठीक करवा कर इसको दे देना, तो स्कूल साइकिल से जाने लगेगा। पिता जी ने हाँ कहा और अगले महीने जब ताऊ जी घर आये तो साइकिल आ गयी।
मुझे साइकिल देखकर खुशी तो हुई लेकिन उसकी हालत देखकर मुझे लगा कि पता नही ये ठीक हो पाएगी या नही। मैंने पिता जी से पूछा ये साइकिल सही हो पाएगी या नही। पिता जी ने कहा मैंने साइकिल बनाने वाले से बात की है, कल साइकिल लेकर उसकी दुकान पर चले जाना। अगले दिन सुबह मैं साइकिल लेकर दुकान पर गया, तो दुकानदार ने बताया कि इसके दोनों पहिये का टायर, ट्यूब और रिम चेंज करनी पड़ेगी, मैं साइकिल वहीं उसकी दुकान पर छोड़कर चला आया और शाम को पिता जी बताया कि उस साइकिल में कितना कुछ चेंज कराना पड़ेगा। पिता जी ने बोला ठीक है, कल जाकर ठीक करवा लेना और मिस्त्री को बोलना जो भी पैसा होगा वो मुझसे ले लेगा।
मैं दूसरे दिन दुकान पर गया और मैंने सब कुछ चेंज करवा के लेकर घर आया, अब मेरी साइकिल बहुत अच्छी चल रही थी, मुझे बहुत अच्छा लग रहा था क्योंकि मेरे पास भी साइकिल हो गयी थी। बस साइकिल में एक ही कमी लग रही थी, वो बहुत गंदी थी और जंग लगी हुई थी, जिसकी वजह से बहुत पुरानी और देखने मे अच्छी नही लग रही थी, मैं अपने मन मे यह सोंच रहा था, कि ऐसे मै कैसे अपने स्कूल लेकर जाऊंगा, मेरे और दोस्त देखेंगे तो क्या बोलेंगे। इसलिए मैंने ये सोंचा की मै अभी पैदल ही स्कूल जाता हूँ। ये देखकर पिता जी ने मुझे अपने पास बुलाकर पूंछा- तुमने साइकिल तो बनवा ली लेकिन अभी भी पैदल ही स्कूल क्यों जाते हो? मैंने कहा कुछ नही बस ऐसे ही सब दोस्तों के साथ चला जाता हूँ।
पिता जी ने समझ लिया कि कोई और बात है, ये कारण तो नहीं हो सकता, कुछ और ही बात है। उन्होंने बड़ी ही चालाकी से पूछा, "तुम्हारी ये साइकिल बड़ी गंदी लगती है।" बस उनका इतना कहना ही था कि मैं बोल बैठा। "हाँ पिता जी इसे तो कहीं ले जाने का भी मन नही करता।घर मे ही रहने दो राशन को ढोने के काम मे आएगी।"
पिता जी ने कहा "नही ये साइकिल तुम्हारे ताऊ जी ने तुम्हे दी है, इसलिए तुम्हे यही साइकिल इस्तेमाल करनी चाहिए। मैं एक पेंटर को जानता हूँ, जो तुम्हारी साइकिल नई बना देगा।" मैं खुश हो गया और अगले दिन ही मैं पेंटर के पास अपनी साइकिल दे आया। पेंटर ने बताया तीन बाद अपनी नई साइकिल ले जाना। मै बहुत खुश हो गया, और बस तीसरे दिन का इंतजार करने लगा। जब मैं चौथे दिन दुकान पर पहुंचा, तो मेरी साइकिल एकदम नई चमक रही थी, मैं बहुत खुश हुआ और अपनी साइकिल लेकर घर आ गया।अगले दिन से मैं अपनी साइकिल से स्कूल आने जाने लगा, अपने साथ दोस्तों को भी साथ मे जाता था, लेकिन शर्त ये होती थी, कि जो भी साथ मे जाएगा वही चलाकर ले जाएगा और मैं बैठकर जाता था।
ऐसी थी मेरी पहली साइकिल की कहानी, जो हमेशा मुझे याद रहती है, क्योंकि उसके लिए मैंने बहुत प्रयास किया था, साथ ही ताऊ जी द्वारा दी गई साइकिल को सही करवाकर इस्तेमाल करने योग्य बनवाना पिता जी की प्रेरणा से ही सम्भव हो पाया था।
