मेरी इज्ज़त मेरे हाथ में

मेरी इज्ज़त मेरे हाथ में

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सब कह देते हैं भूल जाओ पर क्या इतना आसान होता है सब भूलना? क्यों नहीं समझते सब कि ये बात सिर्फ एक औरत को ही क्यों कही जाती है? आसान है तो सब के लिए आसान है नहीं तो बहू के लिए भी आसान नहीं। कब तक एक बहू बाहर वाली ही बनी रहेगी और कब तक सिर्फ उसकी इज्ज़त / बेइज्जती का फर्क नहीं पड़ेगा? 

आज ऐसे ही सवालों में निशा खुद को घिरा पा रही थी। शादी के ५ सालों बाद भी बेगाना सा महसूस करती वो बहुत उदास थी। शादी के शुरू से अब तक हर कदम पर टीका टिप्पणी, हर कदम ग़लती निकालना और सबका बैठ के उसकी क्लास लेना, थक गई थी वो इन सब से। ससुराल में किसी से मिलने के नाम पर बोझ और डर महसूस होता था बस। पता ही था कि कुछ बुरा बोल कर जायेंगे, तारीफ़ तो कर नहीं सकते। 

कोई कमी नहीं थी उसमें, पढ़ी लिखी, दूसरों का आदर करने वाली, मेहमानों का अच्छे से स्वागत करने वाली। कमी तो बस एक थी कि वो उस घर की बहू थी जहां बहुओं की कद्र नहीं कि जाती थी।


लेकिन अब निशा ने सोच लिया था कि खुद के लिए खड़ा होना ही पड़ेगा। इस बार जब उसकी ननद उसके यहां रहने आयी तो निशा ने बड़े आराम से काम किया, जितना बना उतना किया। जो सुनने लायक बात नहीं थी उस पर पलट के जवाब दे दिया। ननद ने बहुत बुरा माना, साथ में पति ने भी लेकिन निशा ने दोनों को साफ़ साफ़ समझा दिया कि बस अब और नहीं। अब जो मेरी इज्ज़त करेंगे, मैं उनकी इज्ज़त करूंगी। मेरे पास कोई एक्स्ट्रा दिल थोड़ी है जो बेइज्जती सहती रहूं। शुरु में सब ससुराल वालों ने कलेश करा पर अब सब को समझ आने लगी कि निशा अब और नहीं झेलने वाली।

सब लोग अब भी उसके यहां आते हैं बस फर्क इतना है कि अब वो इज्ज़त दे कर अपनी इज्ज़त करवाती भी है। पहले लोग पीठ पीछे और सामने भी बुराई करते थे, अब सिर्फ पीठ पीछे करते हैं। निशा भी अब काफी खुश रहती है क्योंकि उसने ज़िन्दगी जीने का मूल मंत्र सीख लिया था- अपनी इज्ज़त अपने हाथ। उसने सीख लिया कि बहुत सीधे वृक्षों को ही काटा जाता है, टेढ़े वृक्ष को नहीं। 


ये सही है कि हमें अपने से बड़ों का आदर करना चाहिए परंतु वो आदर खुद को पायदान बना कर नहीं किया जाता। आशा है निशा कि तरह हम सब भी अपनी इज्ज़त करवा सकेंगी।



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