STORYMIRROR

Shubhra Varshney

Others

3  

Shubhra Varshney

Others

मौसी

मौसी

4 mins
510

बहुत देर बिना उद्देश्य घूमने के बाद थक कर मैं सड़क किनारे खड़ी कार में आकर बैठ गया। रात गहराती जा रही थी। काली रात को और काला कर दे रहे थे मेरे मन के भाव। सड़क किनारे खंभों से आती रोशनी मानो रात की कालिमा को पराजित करने को प्रतिबद्ध थी। पर मेरे मन को कैसे रोशनी मिले इसका उत्तर नहीं था मेरे पास। तभी शोर मचाती हुई नौजवानों से भरी कार तेजी से वहां से निकली। उनके शोर ने मेरे चेहरे पर कुछ क्षणों के लिए उदासी की जगह मुस्कुराहट ने ले ली। कैसे मैं भी दोस्तों के साथ बेपरवाह अलमस्त देर रात घूमा करता था बिना पिताजी की फटकार की परवाह के।

पिताजी का स्मरण आते ही वर्तमान में फिर आप अटका था मैं। घंटे के घंटे सरक रहे थे, सर्दी सी मालूम हो रही थी।


फोन फिर बजा, मौसी ही थी। शाम से तीसरी बार था तो अब मजबूरन उठाना ही था।

"कहां हो बेटा ...घर भी नहीं पहुँचे हो अभी?" उनकी चिंता आवाज़ नहीं मेरी आँखें नम कर दी।

बड़ी मुश्किल से शब्द निकले, "अभी निकला ही हूं बस ऑफ़िस से।"

"तो फिर यहां आ जाओ बैठ कर बात करते हैं।"

मौसी को तो मैं मना कर ही नहीं पाया था, ना आज ना तब जब हॉस्टल ना जाकर दादी के साथ जाने की ज़िद कर रहा था।


बीस साल पहले की बात रही होगी पर एक एक दृश्य भूला नहीं था मैं। दादी गुस्से में हांफ रही थी मुझे अपने साथ गाँव ले जाने को अटल थी। पिताजी मौन, सर झुकाए कुछ भी ना कहने की स्थिति में थे। दादी किसी भी हाल में पिताजी के पास मुझे छोड़ने को तैयार नहीं थी और मैं तो बस कैसे भी वहां से भाग ही जाना चाहता था। तभी वहां आई मौसी और मेरी कलाई पकड़ कर अपनी ओर खींचती हुई बोली कि, "यह बताइए पढ़ाएंगे कहां यश को आप।" सुनते ही दादी शांत पड़ गई थी, पर मेरे पिताजी के साथ ना रहने के दृढ़ निश्चय ने मौसी ने मेरा दाखिला नैनीताल करा दिया। मेरे हॉस्टल में रहते हुए मेरी छोटी बहन मनी और भाई करण ने जन्म लिया।


छुट्टियों में घर आने पर दोनों भाई-बहन मुझसे जो लिपटते तो मेरा वापसी का समय कठिन बना देते। मौसी भी आती और मुझे ढेरों सामान लातीं।

अब तो मैंने एमबीए भी कर लिया था और अपने निर्णय लेने में पूर्णता स्वतंत्र व सक्षम था।

इसी के चलते अमेरिका से आया नौकरी का ऑफर मैंने पिता जी के शानदार बिजनेस के ऊपर चुन लिया था। पिछले एक हफ्ते से मुझसे किसी ने सही से बात नहीं की थी कोई मेरे निर्णय से प्रसन्न नहीं था। मुझे तो बस घर से दूर भागना था जैसे आज भाग आया था घर से इतनी दूर जबकि मेरे जाने में कुछ ही घंटे बचे थे। विचारों में खोया में कब मौसी के घर आ गया मुझे पता ही नहीं चला। उनके पैर छुए ही थे कि उन्होंने मुझे गले लगा लिया। उनकी आँखें नम थी और मैं भी उनसे नज़रे चुरा रहा था कि मेरी आँखों की नमी उन्हें दिख ना जाए और मैं अपने निर्णय पर कायम न रह सकूँ।


"तो तुम्हारा यह अंतिम फैसला है, यहां तुम्हारे पिताजी को भी तुम्हारी आवश्यकता है" मौसी के कहने पर मैंने बस यह उत्तर दिया ,"उसके लिए मनी और करणी यहां है ही।"

मौसी ने कहा, "तुम्हारा स्थान कोई नहीं ले सकता... पर मैं तुम्हारी प्रसन्नता में प्रसन्न हूं... जब भी एहसास हो तब घर लौटने का पल भर भी सोचना नहीं।"

चलती हुई उन्होंने मुझे अपनी बनाई मठरी उसी तरह से दी जब वह मेरे हॉस्टल जाती हुई देती थी। मैं अपनी रुलाई रोकता हुआ तेजी से वहां से निकल आया। एयरपोर्ट तक करण मुझे छोड़ने आया। विमान में बैठने पर सभी के दुखी चेहरे आँखों के सामने आ रहे थे।


अपने पिता से ज्यादा मुझे अपनी मौसी की याद आ रही थी, जिन्होंने मुझे यह लगने नहीं दिया कि वह मनी और करण की सगी और मेरी सौतेली मौसी थी जो मेरी माँ की असमय गुजर जाने के बाद पिताजी के पुनर्विवाह से मेरे जीवन में आई थी।


Rate this content
Log in