माँ का त्याग
माँ का त्याग
“बेबी, हइ ले ...दुनु लालटेन। एगो बड़का भैया के कोठली में जा के रख दे आ' दोसर छोटका भैया के कोठली में। तब इ ढिबरी के दालान पर जा के रख दिहे। साँझ हो गइल, सब जगह रोशनी जले के चाही न? ”
माँ ने हिदायत भरे स्वर में कहा।
“माय, स्कूल के होमवर्क बचले हे। घंटा भर के बासते हमरो लैम्प चाहीं।”
“ ले, इ लेम्फ़। जा, जल्दी से होमबरक बना के ले आ। रसोई में हमरा अभी बहुत काम बचल हे। एहि क़स्बा में बिजली के सुधार कभियो नै होएत! हरबखत बिजली कटले रहत हे! ” माँ ने लैम्प के शीशे को चमकते हुए कहा।
माँ के हाथ से लैम्प लेकर बेबी रसोईघर के बाहर... बरामदे के फर्श पर कॉपी, किताब लेकर बैठ गई। ”
कुछ ही देर बाद बेबी ने लैम्प लौटाते हुए सशंकित हो पूछा, “ माय! अधिक लेट तो नै होल ? ”
“ना...हीं रे..! हमर बेटी के होमबरक बन गेल, एकरा से बढके खुशी हमरा लेल कुच्छो नाहीं। बेटी, तू बड़का हाकिम बन। तोहर बाबू के इहे सपना रहे। दुनिया से बिदा होमय घड़ी उ हमरा से इ बात कहि गेल रहे, "सुन, तू केवल दुनु बेटे के नै बड़का लोग बनेम, बेबी के सेहो हाकिम बनेम"।
ओकर बात के हम गाँठ बाँध ले ली चाहे जे दुख उठाबै पड़ी, हम बेबी के बड़का हाकिम बना के रहब। ”
साड़ी के पल्लू से आँखों की आद्रता को पोंछते हुए माँ ने भावुक होकर उसे सुनाया।
आज, जब इन्जीनियर इन चीफ बनकर माँ के साथ बेबी अपने कस्बे में पॉवर प्लांट का उद्घाटन करने पहुँची, तो वहाँ जगमगाते बिजली की रोशनी में बूढ़ी हो चुकी माँ का झुर्रिदार चेहरा पावर प्लांट के उजाले से कहीं अधिक दैदीप्यमान नजर आ रहा था।
