लो मैं आ गया
लो मैं आ गया
मैं आज भी उन पलों की याद कर रोमांचित हो जाता हूँ, जब मैं पहली बार उसके पास पहुंचा था और कहा था लो मैं आ गया,लो मैं आ गया तुम्हारे पास।
वो मुझे भौंचक्की सी देखने लगी थी,और मेरे अंदर का डर मुझसे कुछ कहने लगा था,शायद मुझे यहां नही आना चाहिये था और आ भी गया तो सीधे यह बात नहीं कहनी चाहिये थी कि लो मैं आ गया।फिर मैंने अपने आप को संयमित किया और अपने ही अंदर से थोड़ा सा विश्वास लिया,और आश्वस्त हुआ कि मैंने जो किया है अच्छा किया है।यह तो बहुत पहले ही हो जाना चाहिये था और अब बिलम्ब से ही सही,मुझे अपने आने की नोटिस उसे देनी ही चाहिये थी।
वह मेरी नोटिस किस प्रकार लेती है इसकी जानकारी तो आने वाले कुछ ही पलों में हो ही जाएगी बावजूद इस बात के कि बिना किसी पूर्व सूचना के मैं उसके पास आ गया था और अतीत में भी मेरी उससे कभी कोई बात नहीं हुयी थी न ही कभी उससे मिलने का कोई वायदा मैनें कभी किया था ,बस मेरे पास उसकी ब्यग्रता की एक सूचना भर थी जैसे कि मैं उसे बहती हुयी दरिया जिसमें वह बह रही थी ,उसे एक टीले तक पहुंचा सकता था जिसके अगल बगल से दरिया उसे छोड़कर निकल जाया करती है।यह उसका एक विश्वास था मेरे प्रति लेकिन यह तो एक सूचना भर थी।इस सूचना की सम्पुष्टि का समय आ गया था और मैं सूचना के प्रति आश्वस्त था।
मुझे अच्छी तरह याद है वो मुझे कलेक्ट नहीं कर पा रही थी।मानसिक सम्बद्धता का व्यवहार कितना अनजान सा होता है।मनुष्य का स्वभाव कभी कभी उसे अजनवी बना देता है।अपनापन बेगानेपन सा लगने लगता है और इस स्थिति को मैं महसूस कर रहा था।वो मुझे अपनी स्मृति में ढूंढने के प्रयास कर रही थी,मैंने उसे सहयोग करने की सोची।
बोला मैं,मैं नम्रता तुम्हारा स्वीकार।मि प्राण ने तुम्हारे बारे में मुझे बताया था।उन्होंने मुझसे तुम्हें सहयोग करने का आग्रह किया था।मैं बिलम्ब से तुमसे मिल पाया।
वो अपनी स्मृति में सफर कर रही थी।हां उसके चेहरे पर उसकी बेचैनी दृष्टिगोचर हो रही थी।असमंजस परिलक्षित हो रहा था।वो अब भी एक चंचल किताब सी लग रही थी ,जाने कितने पन्ने जुड़े हैं उसमें तब से अब तक।उसका जीवन उसकी प्यास से प्रभावित था।प्यास में अभाव कितना असहाय बना देता है मनुष्य को,और यह असहायता उसके शरीर की भाषा बन जाती है।मैं उसके शरीर की भाषा समझ रहा था।मेरे पास इस बात की सूचना थी कि उसे विश्वास है कि मैं उसकी बेचैनी को शांत कर सकता हूँ।पर इस संदर्भ की क्रियाशलता तभी सम्भव है जब वो मुझे कलेक्ट करे।
आजकल तो सूचनायें भी मैनेज होती हैं।पर मुझे नहीं लग रहा था कि मेरी सूचना किसी मैनेजमेंट का हिस्सा है।निश्चितरूप से अपने शुभचिंतक के संवाद ने मुझे उसके पास जाने के लिये प्रेरित किया था और वह उसका भी उतना ही शुभचिंतक था जितना कि मेरा। फिर भी मेरे पास उलझन भरा सन्दर्भ था और उलझन भरा परिवेश था। आजकल यह उलझन समाचार पत्रों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मुख्य खबर जैसी थी।किस तरह एक ईमानदार आदमी के पक्ष में एक बेईमान आदमी खड़ा हो गया था और तब ईमानदारी एक छलावा सी लगने लगी थी और बेईमान एक शक्ति की तरह।
न जाने क्यों मुझे प्राण की सूचनाओं में एक खुमार सा दिखने लगा था।महत्वाकांक्षओं के अनुरूप यदि क्रियाशलता न हो तो एक सक्रिय आदमी भी निष्क्रिय लगने लगता है।मुझे लग रहा था कि प्राण मुझे और नम्रता को खुश देखना चाहता था।शायद वे हमारी बातों को एक दूसरे तक पहुंचाने में कुछ मैनेज किया करते थे।मैं अपनी विवशताओं के कारण उनसे मिल नहीं पाया था।विवशताएँ भी आदमी को लोहे की जंजीरों की तरह बंधक बना देती है।विवशताओं की अपनी सत्ता होती है।
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैंने कभी विवशताओं की सत्ता को स्वीकार नही किया हाँ उसके दायरे में जरूर रहा हूं और अब उसे तोड़कर यहाँ नम्रता के पास आया हूँ।
मैं उसके चेहरे पर उठते हुये भावों को पढ़ रहा था वो अपनी स्मृतिकोश को खंगाल रही थी,मैं उसे मिल नहीं रहा था।वो मुझे एक अजनबी की तरह देख रही थी और अपनी स्मृति में मुझे ढूंढने का प्रयास कर रही थी।मेरी मानसिक स्थिति इस तरह सेट थी कि वो मुझे देखते ही पहचान लेगी।खुशी से झूम उठेगी।मैं हालात से तालमेल बिठा रहा था। मैं अपने को आश्वस्त कर चुका था कि वो मुझे पहचान नहीं पायेगी।
उसकी समस्याओं से मैं अवगत था,उसकी समस्याओं का समाधान था मेरे पास।अचानक वो बोल
उठी मैं किसी प्राण नामक व्यक्ति को नहीं जानती कुछ गलत बातें किसी ने बतायी होंगी आप को।
मैं उसे पढ़ रहा था।वह अपने परिवेश के अस्तित्व से अपने को अलग करने की कोशिश कर रही थी।।वो अपनी समस्याओं के समाधान के लिए स्वयं प्रयोग करना चाहती थी।
मैंने कहा माफ़ करिएगा मैंने आप का समय बर्बाद किया।वो हल्की सी मुस्कराते हुये बोली "अच्छा किया आपने अपने किसी मित्र के सुझाव पर अमल किया।"
"मुझे दुख है शायद मैं आप के लिए कुछ कर सकता था और यह अवसर अब बिल्कुल कल्पना सा हो गया है।सुंदर सम्भावनाओं की कल्पना भी कभी कभी सुंदर सहयोग कर जाती है।आदमी मन्जिल से दूर होता है और उसे लगता है वह मन्जिल के पास है।इस दुनिया मे जीने की यह एक सुंदर कला है।अगर आप का ब्यवहार इस दृष्टिकोण के अनुरूप है तो मैं समझता हूं आप एक सुंदर उदाहरण बन सकती हैं”।
"वैसे मैं आप को जानती हूँ और बहुत कुछ सीखा है मैने आप से।"
"लेकिन आप तो कह रही थीं कि आप किसी प्राण नाम के आदमी।को नही जानती जब कि उन्होंने ने ही मुझे आप के बारे में बताया था।"
आप उन्हें नहीं मुझे जानती हैं।बिल्कुल उल्टी तस्वीर बनाई थी प्राण ने आप की।जब मैं आप से मिलने आया तो वही बातें थीं दिमाग में "
"मैं प्राण को नही जानती लेकिन उनकी बातें बिल्कुल सही हैं।मैं थी ही बिल्कुल वैसी ।आज से भिन्न।समस्याओं से घिरी हुई ।"
"तो आपने अपने आप को एकदम से बदल डाला है।"
"जी, एक मुश्किल सा काम मैने सहजता से सम्पन्न कर डाला है और कभी कभी मुझे लगता है मैं बिल्कुल वैसी ही हूँ जैसी की बदलने से पूर्व थी।"
"थोड़ी सी विश्वास की कमी आज भी है आप के अंदर।जब आप मुझे देख रही थीं तो मुझे भी लग रहा था आप बिलकुल वैसी ही हैं जैसी प्राण ने मुझे बताया था।"
"प्राण को भूल जाइए मुझे आज भी आप की जरूरत है।जब आप ने मुझसे कहा कि लो मैं आ गया तब मुझे लगा कि मेरी जरूरत को आवाज मिल रही है लेकिन उस आवाज का चेहरा इतना स्थिर है।जैसे उथल पुथल से अप्रभावित कोई पत्थर का टीला। मैं इसमें कुछ उगा सकती हूँ।"
"तो मैं सही जगह पर आ गया हूँ।"
"हाँ ,अब हम दोनों सही जगह पर साथ साथ चलेंगें।"
"यही चाह लेकर तो मैं यहाँ आया था।"
"नहीं, आप मुझे मेरी मंजिल की तरफ रवाना करने की तरकीब लेकर आये थे और साथ चलने का कोई प्रोग्राम नही था आप के पास।"
"तो अगर मैं आप से कहूँ लो आ गया तुम्हारे पास।"
"तो मैं तत्काल कहूंगी चलिये वहां तक साथ साथ चलते हैं।"
