लिखना
लिखना
क्या लिखना है? क्यों लिखना है? कब लिखना है? कहां लिखना है? किसके लिए लिखना है? बस ये कुछ सवाल ही कुछ लिखने से रोक देते है। लेकिन फिर भी लिखना जरूरी हो जाता है। क्योंकि लिखने से खुद को संतुष्टि मिलती है। क्या पढ़ा गया या नहीं पढ़ा गया, क्यों पढ़ा? कब पढ़ा और किसने पढ़ा। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि लगातार लिखते रहना, भले ही लिखने की चाल कछुआ चाल ही हो, लेकिन लिखने का जो क्रम जारी है, वहीं बात मेरे लिए मायने रखती है। वरना लिखने वालों ने इतना लिख दिया है और लिख रहे है कि उसके एक अंश की जानकारी भी तरीके से हो जाए तो बहुत है। लिखने वालों को लिखना कितना अच्छा लगता है और उनकी सोच कितनी खूबसूरत और मजबूत होगी जो हरेक रचना पहली वाली से बेहतर ही साबित होती है। साहित्य के फलक तक पहुंचने के लिए उनके पंखों को मजबूती प्रदान की सोशल और ब्लॉगिंग साइट्स ने। अब तो पब्लिकेशन हाउसेस ने भी अपने वेब पोर्टल पर लिखने वालों के लिए जो दरवाजे खोले है, उनकी तो बात ही निराली है। कुछ वक्त पहले तक पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों तक पहुंचने से पहले दम तोड़ती रचनाओं को वेब-पोर्टल पर जो स्पेस मिला है, वो काबिले-तारीफ है।अब तो पीछे मुड़कर देखने-समझने का भी वक्त नहीं होता। बस अपनी रचना और खुद का ही संपादन।तब ऐसे में न किसी की मान-मुनौव्वल और न ही जी-हजूरी। बस अपनी सोच के दरवाजे खोलो और लिखना शुरू कर दो। बस अभी इतना ही, बाकी फिर कभी।