करवाचौथ व्रत
करवाचौथ व्रत
मुम्बईया फिल्मों में होली, दीपावली, रक्षाबंधन, दशहरा, करवा चौथ आदि त्यौहारों -उत्सवों का उपयोग प्रायः रहस्य-रोमांच में वृद्धि के लिये होता है। यूं फिल्मकार त्यौहारों को काल्पनिक फिल्मी कथानक के अनुसार फिल्माता है इसी कारण पर्दे पर उनका मूल रुप दिखाई नहीं देता।
‘करवा-चौथ व्रत-पर्व’ का इतना अधिक फिल्मीकरण हुआ है कि उसी को सच मानकर फिल्मी ढंग पर ही करवा चौथ मनाये जाने का चलन बढ़ रहा है।
करवा चौथ यह पूर्णतया स्त्री प्रधान व्रत-पर्व है। स्त्रियों में भी यह सौभाग्यवती स्त्रियाँ का पर्व है। कतिपय कुमारी कन्यायें भी प्रचार तथा देखा-सुनी से प्रभावित हो कर इस व्रत को रखती हैं। इनके अतिरिक्त अक्ल से पैदल कुछ ऐसे पुरुष भी हैं, जो यह व्रत रखते हैं। ऐसे पुरुषों (पतियों) का कुतर्क होता है, कि जब उनकी पत्नी उसके लिए यह व्रत रख सकती है, तब वह अपनी पत्नी के लिए ‘करवा चौथ’ का व्रत क्यों नहीं रख सकता ?
यहाँ उल्लेखनीय है कि प्रत्येक व्रत-उत्सव-पर्व भगवान के किसी न किसी विशेष विग्रह, स्वरुप, शक्ति, अवतार आदि से संबंधित होता है। करवा चौथ व्रत-पर्व का संबंध देवी भगवती पार्वती तथा देवता विघ्नहर्ता श्रीगणेश से संबंधित है।
करवा चौथ में ‘करवा माता’ का पूजन किया जाता है, और करवा चौथ की कथा का वाचन तथा श्रवण किया जाता है। देश में कतिपय स्थानों पर करवा माता का मंदिर भी है।
भू-मंडल में देवी पार्वती विभिन्न रुपों तथा नामों से पूजित होती.हैं। स्थान, भाषा लीला स्वरूप तथा परंपरा भेद के कारण देवी स्थल ऊपरी तौर पर भले ही भिन्न प्रतीत होता हो, किन्तु सर्वत्र एक ही सत्ता सर्वत्र विद्यमान है।
अतः माता के किसी भी नाम-स्वरुप की स्तुति-पूजन-वंदन की जाये वह माता पार्वती की प्रसन्नता के लिए ही होता है, तथा देवी पार्वती भी भक्त की इच्छा तथा विश्वास के अनुरुप ही उसे कृतार्थ कर उसकी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं।
आजकल त्यौहारों का स्वरूप वह नहीं रहा जो कुछ दशक पूर्व था। यह बाजार वाद का दौर है। इसमें आपके लिए खाने, पहनने, देखने-सुनने से लेकर घरों की साज-सज्जा, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर उनका बर्थडे सेलीब्रेशन, शादी-विवाह का तौर तरीका, सैर सपाटे की जगह, मनोरंजन आदि तमाम बातें बाजार तय करता है, बल्कि यह कहा जाये कि वह इसे बाकायदा प्लेट में सजाकर परोसता है।
इतना ही नहीं अब तीज-त्यौहार तथा धार्मिक अनुष्ठान मनाने का ढंग तथा समय भी बाजार ही तय करने लगा है। इसके लिए मार्केटिंग विशेषज्ञ दिन रात कड़ी मेहनत करते हैं। वे अपनी बात ग्राहक जुबान पर लाने की कला में दक्ष होते हैं। करवा-चौथ व्रत-उत्सव भी बाजारीकरण से अछूता नही है।
करवा चौथ से दो हफ्ते पहले से ही टी.वी. सीरियलों में इससे संबधित कहानियां/विज्ञापन दिखाई जाने लगती है। फिल्मों तथा टी.वी.सीरियलों में करवा चौथ तथा अन्य त्यौहारों का उपयोग कहानी को आगे बढ़ाने के लिए अपनी इच्छा नुसार तोड़-मरोडकर किया जाता है।
अतः त्यौहारों को फिल्मों तथा टी.वी.सीरियलों के ढंग पर मनाया जाना उचित नहीं है। उन्हें शास्त्रीय विधि अथवा अपने कुल की परंपरा के अनुसार मनाया जाना चाहिए।
सिनेमा की काल्पनिक दुनिया की चमक-दमक से प्रभावित होकर बहुत सी महिलाएं करवा चौथ का पर्व हूबहू फिल्मी ढंग से मनाती हैं। बात साज-श्रृंगार तथा खरीदारी तक तो ठीक है। लेकिन चंद्र दर्शन के उपरांत उनका ‘डिनर’ के लिये होटलों तथा रेस्तरांओं में जाना यह सिद्ध करता है कि करवा चौथ का पर्व ऐसी स्त्रियों के लिये मनोरंजन के अलावा कुछ और नहीं है ?
करवा चौथ का व्रत-पर्व कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। यह तिथि विघ्न हर्ता भगवान गणेश को अत्यधिक प्रिय है। क्योंकि इसी तिथि को गणेश जी का जन्म हुआ था। चतुर्थी को चंद्र दर्शन क्यों किया जाता है इसकी कथा इस प्रकार है।
एक बार माता पार्वती ने स्नान से पूर्व अपने बदन पर लगे उबटन से एक पुतले का निर्माण किया। उन्होंने उसमें प्राण फूंक दिया। वह पुतला जीवित हो कर पाँच बरस के बालक की अवस्था में आ गया। माता ने उस बालक आज्ञा दिया कि वह उनके स्नान करते समय किसी को भी भीतर प्रवेश न करने दे !
लीला वश उस समय भगवान शिव कैलाश पर नहीं थे। जब वे लौटे तब पार्वती नंदन पहरे पर तैनात हो चुके थे। बालक ने शिव जी को भीतर प्रवेश करने रोक दिया इससे भगवान शिव कुपित हो गये और अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया।
जब जगदंबा पार्वती ने अपने पुत्र को मृत पाया तब उनके दुख तथा क्रोध का कोई पारावार न रहा। उनके रोष पूर्ण रुदन से सृष्टि में हाहाकार मच गया। उन्हें शांत करने के लिए उनके पुत्र का पुनर्जीवित होना आवश्यक था। त्रिशूल प्रहार से उसका सिर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था। अतः भगवान शिव ने अपने गणों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाओ और उस नवजात शिशु का सिर काटकर ले आओ जिसकी माता उसकी ओर पीठ कर के सो रही हो।
शिव गणों को अधिक नहीं भटकना पड़ा। जल्दी ही उन्होंने जंगल में एक हथिनी को देखा जो अपने नवजात शिशु की ओर पीठ करके सोई हुई थी। शिव गण उस शिशु हाथी का सिर लेकर शिवजी के पास लौट आये।
भगवान शिव ने हाथी के सिर को गणेश के धड़ से जोड़ दिया। बालक गणेश पुनर्जीवित हो गये। माता पार्वती प्रसन्न हुई। देवता पुष्प वर्षा करने लगे। ऋषिगण मंगलाचरण करने लगे। अप्सराएं नृत्य करने लगी। गंधर्व गायन-वादन करने लगे।
बाल गणेश का अद्भुत रुप (आधा मनुष्य तथा आधा हाथी) देखकर चंद्रमा ठठाकर हँसने लगा।
भगवान गणेश ने क्रोध में भरकर चंद्रमा को शाप दे दिया कि तुम्हें अपने रुप पर बहुत घमंड है, अतः तुम्हारी सुंदरता नष्ट हो जाये तथा जो भी मनुष्य तुम्हारा (चंद्रमा) का दर्शन करेगा उसका पुण्य क्षय हो जायेगा !
पार्वती नंदन द्वारा चंद्रमा को शाप देने से चारों ओर हाहाकार मच गया। सब ने चंद्रमा की भर्त्सना की। उसे भी अपनी भूल का बोध हुआ। तब उसने अत्यंत व्याकुल होकर गणेश जी की प्रार्थना की और अपने भूल तथा अहंकार की क्षमायाचना की।
भगवान मंगल मूर्ति शीघ्र प्रसन्न हो गये और अपने शाप को सीमित करते हुए चंद्रमा से कहा कि –‘केवल भाद्र पद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को तुम्हारा दर्शन विपरीत फल देगा। उस दिन तुम्हें देखने वाले के ऊपर कोई न कोई कलंक अवश्य लगेगा। उसके अतिरिक्त अन्य सभी चतुर्थियों को मैं स्वयं तुम्हारे रुप में रहूंगा। तब तुम्हारा दर्शन-पूजन मेरे पूजन के समान फलदायी होगा। जो कोई मनुष्य चतुर्थी को भक्ति भाव सहित तुम्हारा दर्शन-पूजन करेगा। मैं उसकी सभी शुभ मनोकामनाएं अवश्य पूरी करूंगा।
इसी कारण चतुर्थी तिथि को गणेश भक्तों के द्वारा संकष्टी व्रत तथा अनुष्ठान किया जाता है, तथा बालचंद्र का दर्शन और पूजन किया जाता है।
कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को करवा चौथ इसलिए कहा जाता है कि इस व्रत की देवी माता करवा हैं तथा इनकी कथा को हाथ में करवा लेकर सुना जाता है।
‘करवा’ मिट्टी से बने पात्र को कहा जाता है। उसमें चावल,गेहूँ या जौ भरा जाता है। ऊपर ढक्कन में शक्कर रखा जाता है। करवा को कुमकुम आदि से सजाया जाता है। प्रायः तेरह बिंदिंयाँ से सजाने लगाने की परंपरा है। गेहूँ या चावल के तेरह दाने हाथ में लेकर कथा श्रवण की जाती है। समूह में पूजन करने वाली स्त्रियों में जो सब में वरिष्ठ होती है। वही कथा सुनाती है।
इस व्रत प्रचलित कथा संक्षेप में इस प्रकार है:--
किसी नगर में एक साहूकार था उसके छ:पुत्र तथा एक पुत्री थी। उसका नाम करवा था। घटना काल में सभी का विवाह हो चुका था। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को करवा चौथ मनाने साहूकार की पुत्री अपने मायके आई हुई थी। वह अपने भाईयों की दुलारी थी। भाईयों ने बहिन से ठठ्ठा करने का निश्चय किया तथा चंद्रोदय के पूर्व नगर से बाहर लकड़ी से अग्नि जला दिया और घर आकर उसके प्रकाश को उसे दिखाते हुए कहा कि -बहिन ! आओ देखो,चंद्रोदय हो चुका है, तुम शीघ्र पूजन करो तथा अर्घ्य आदि दो। देर न करो।
बहिन बहुत भोली थी, अतः वह भाईयों की बातों में आ गई। उसने अपनी भाभियों को भी पूजन आदि करने को कहा, मगर वे टाल गई। क्योंकि उन्हें सच्चाई का ज्ञान था।
भगवान गणपति विधि का पालन न करने पर रुष्ट हो गये। फलस्वरूप साहूकार की पुत्री का पति रोगी हो गया।
सच्चाई का पता चलने पर साहूकार की पुत्री अत्यधिक दुखी हुई। उसने अपनी भूल के लिए गणेश जी से क्षमायाचना की। भगवान की स्तुति की तथा विधि विधान से करवा चौथ का व्रत करने की प्रतिज्ञा की। भगवान गणेश प्रसन्न हो गये। उनकी कृपा से सब मंगल हो गया।
कथा सुनने के पश्चात् व्रती स्त्रियां अपने करवा पर हाथ फेरकर उसे किसी वरिष्ठ स्त्री को दान कर देती हैं।
इसके पश्चात बालचंद्र को अर्घ्य आदि समर्पित कर छलनी से चंद्र दर्शन किया जाता है। सिनेमा तथा सीरियलों से प्रभावित कतिपय स्त्रियां अपने पति को भी छलनी द्वारा निहारती हैं।
बाल गणेश को नजर न लगे अथवा चंद्रमा अर्थात परपुरुष को नंगी आँखों से सीधे देखने पर पातिव्रत्य धर्म भंग न हो, इस दृष्टिकोण से छलनी में चंद्रदर्शन किया जाता है। यह उत्तम विचार है किंतु अपने पति को जो पत्नी के लिए जनार्दन तुल्य होता है उसे छलनी की ओट से देखना अज्ञानता है या घोर नकलची प्रवृत्ति का उदाहरण है।
इस प्रकार करवा चौर व्रत-पूजा से भगवान गणेश तथा माता पार्वती दोनों की प्रसन्नता प्राप्त होती है और पूजन करने वाले को मनचाहा वरदान देती हैं। विवाहिता स्त्रियों को माता की कृपा से अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इस अवसर पर सौभाग्यवती स्त्रियां माता पार्वती को सौभाग्य संबंधी सामग्रियां भी भेंट करती हैं।
अंत में एक कुप्रथा के बारे में चर्चा, जो न जाने कब से इस पुण्य व्रत-पर्व में आ घुसा है। वह है करवा चौथ के दिन सुबह सूर्योदय से पूर्व ‘सरगी’ खाने की कुप्रथा।
यह इस्लामिक रिवाज की नकल है, या फिर करवा चौथ का इस्लामी करण की कुचेष्टा है ?
इस्लाम को मानने वाले रोजा रखने से पहले ‘सहरी’ खाते हैं, फिर रोजा रखने की नीयत अर्थात संकल्प करते हैं। इस्लाम में बिना सहरी खाये रोजा नहीं रखा जा सकता। यह नियम है।
‘सहरी’ तथा ‘सगरी’ शब्दों की समानता ध्यान देने योग्य है।
हिन्दुओं में किसी भी व्रत के पहले दिन शारीरिक अवस्था/दशा के अनुसार एक या दोनों समय सात्विक भोजन किया जाता है। संयम पूर्वक भूमि पर शयन किया जाता है।
व्रत में ईष्ट को शीघ्र प्रसन्न करने हेतु अन्न-जल का त्याग किया जाता है। अतः पूजन के पश्चात् नियमानुसार फलाहार किये जाने का विधान है। अन्न आदि का सेवन दूसरे दिन सूर्योदय के पश्चात किये जाने का नियम है।
यही नियम करवा चौथ व्रत में भी लागू होता है। सिनेमा आदि की नकल करके सरगी नहीं खानी चाहिए तथा पूजन के उपरांत फलाहार करना चाहिए।
किसी भी व्रत-उत्सव को भक्ति भाव सहित मनाना/करना चाहिए। यह मनोरंजन तथा हास-परिहास का विषय नहीं है।
