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Pawanesh Thakurathi

Others

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Pawanesh Thakurathi

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कॉलेज के वो दिन

कॉलेज के वो दिन

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कॉलेज में चुनावी माहौल चरम पर था। मैं भी राठौर के साथ चुनाव प्रसार में मशगूल था। हम लोग सुबह दस बजे काॅलेज पहुँच जाते। वहां नये एडमिशन करने वाले विद्यार्थियों की मदद करते। किसी का फार्म भर देते, किसी के प्रमाण पत्र अटैस्ट करवा देते, किसी की क्लास रूम ढूंढने में मदद कर देते। उन दिनों ऐसा लगता था मानो विद्यार्थियों की सभी समस्याओं का ठेका जैसे हम ही ने ले लिया हो। राठौर जी नेता कट कुर्ता-पैजामा और कोट पहने मधुर मुस्कान बिखेरते। वे लड़कों से हाथ मिलाते और लड़कियों के सामने हाथ जोड़ देते। हम लोग सभी से राठौर को वोट देने का आग्रह किया करते। नित्य चुनावी सभाएँ होतीं। रैलियां निकलतीं। हम लोग कक्षाओं में भी छात्र-छात्राओं को संबोधित करने जाने वाले ठैरै। शाम को थके-हारे राठौर के कमरे में पहुंचते। वहीं अगले दिन की योजनाएँ बनती। चिकन बनता। मैकडोनाल्ड खुलती। मैं शराब और मीट नहीं खाता था, लेकिन वह दोस्ती ही क्या जिसकी ख़ातिर आदमी कीचड़ में न कूदा हो। खाना-पीना करने के बाद हम लोग खूब इंजाय करते। गजनी भाई राठौर को उपदेश देते। रणनीति बनाते और कूटनीति सिखाते।


गजनी भाई काॅलेज के भूत पूर्व अध्यक्ष रह चुके थे और वर्तमान में एक नंबर के ठेकेदार थे। उनका वास्तविक नाम तो गजाधर सिंह था, किंतु सब उनके बालों के इस्टाइल को ध्यान में रखकर उन्हें गजनी भाई कहते ठैरै। दरअसल में वे अपने बाल हमेशा गजनी फिल्म के आमिर खान की तरह बनाने वाले ठैरै। उन्होंने ही हमारी पार्टी के नारे भी बनाये ठैरै: ‘‘डायनामाइट डाइनामाइट: ए०बी०सी०डी० डायनामाइट, एटमबम एटमबम: राठौर नहीं किसी से कम।’’ हम जहाँ-तहाँ इन्हीं नारों का प्रयोग करने वाले ठैरै। गजनी भाई का यह भी कहना ठैरा कि तुम घर में जो भी करो, कैसे भी रहो फर्क नहीं पड़ता, लेकिन दुनिया के सामने सज्जन ही बनो। सज्जनता के ही काम करो। इस तरह गजनी भाई के निर्देशन में हमारा प्रचार-प्रसार गति पकड़ रहा था। लेकिन दुर्भाग्य से एक दिन कॉलेज में फ्लैक्सी (बोर्ड) लगाने को लेकर राठौर, दिगंबर और कृष्ण सिंह में विवाद हो गया। उस दिन से इन तीनों में ईर्ष्या भाव और अधिक गहरा हो गया। उस दिन मैंने भी शाम को खूब पी और हम सबने मिलकर दिगंबर और कृष्ण को खूब माँ-बहन की गालियाँ ठोक डालीं। कमरे में खूब हो-हल्ला भी मचाया। मकान मालिक ने विवश होकर राठौर को चेतावनी दे डाली: ‘‘अगर कल से हल्ला हुआ तो तेरा सारा बोरिया-बिस्तर समेटकर बाहर फेंक दूँगा।’’ हम सबने माफ़ी मांगी लेकिन नशे का सुरूर तो हमें अभी शुरू हुआ था। रात को एक बजे हम सोने के लिए अपने-अपने कमरों की ओर चल दिए। उस दिन रात को मुझे कुछ ज्यादा ही चढ़ गई। मैं उठते-गिरते आधे रास्ते में पहुँचा तो मुझे रुचि जोशी का खयाल आ गया।


रुचि एम0एफ0ए0 चित्रकला की छात्रा थी और छात्रा उपाध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रही थी। रुचि को मैंने पहली बार बी0ए0 फाइनल में पढ़ते समय देखा था, जब वह कॉलेज की बास्केटबाल टीम से मैच खेल रही थी। उसे देखते ही मुझे स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी की याद आ गई। उसका सधा हुआ शरीर और गौरवर्ण देखकर मेरी आंखे चकित हो पड़ीं। जब वह बास्केटबाल पकड़कर उछलती तो उसकी आकर्षक देह मेरा दिमाग हिला देती। मैंने उसी पल सोच लिया: ‘‘काश! अगर यह मिल जाए, तो जिंदगी में बहार आ जाय।’’ तब से मैं हर पल उससे बात करने, मिलने-जुलने के बहाने खोजा करता। पंद्रह-बीस बार मुलाकात और हैलो-हाय करने के बावजूद मैं आज तक उससे अपने मन की बात नहीं कर पाया था। उस दिन मेरी दमित इच्छा जाग उठी और मैं नशे में ‘रुचि! आखिर कब तक नहीं लेगी तू मुझ पर रुचि’, बड़बड़ाता हुआ उसके कमरे की तरफ चल दिया। रास्ते में एक जगह अचानक मेरा पैर फिसला और मैं सिन्ना के भूड़ (बिच्छू घास की झाड़ी) में जा गिरा। मेरे हाथ-पैर-मुँह सब जगह झनझनाट होने लगी। जैसे-तैसे उठा और एक शूरवीर सिपाही की भांति रुचि के कमरे की तरफ चल दिया। जैसे ही मैं रुचि के दरवाज़े पर पहुँचा, तो मेरा माथा ठनका। भीतर हल्की रोशनी जली हुई थी। मैंने दरवाज़े के छिंद्रों से भीतर झाँककर देखा तो आंखों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। मैं वहीं पर बेहोश हो गया। भीतर रुचि के साथ कृष्णसिंह भी था।


दूसरे दिन मेरी आँख खुली तो मैंने खुद को अपने बिस्तर पर पाया। मेरे पैर में चोट लगी थी। मुँह भी सूजा हुआ था। शरीर में पीड़ा हो रही थी। मैं आज तक यह समझ नहीं पाया कि मैं आखिर उस दरवाज़े से अपने कमरे में कैसे पहुँचा? किसने मुझे घर तक पहुँचाया? खैर उस समय मेरे मन में इन सवालों के अलावा और भी तरह-तरह के विचार कौंध रहे थे। खासकर तीन कहावतें रह-रहकर मेरे दिमाग में घूम रही थीं। पहली, लौंडा-लभारी; गधे की सवारी। दूसरी, आये थे हरिभजन को; ओटन लगे कपास। तीसरी, नौकरी और छोकरी; किस्मत की टोकरी। फिलहाल दो दिन रेस्ट करने के बाद मैं फिर से राठौर के चुनाव प्रचार में जुट गया। इसी दौरान एक और घटना घट गई। हुआ ये कि हम रात को दो बजे शहर के प्रमुख स्थानों पर राठौर के पोस्टर चिपका रहे थे। हम उसके पोस्टर चिपकाने के साथ-साथ दिगंबर, कृष्ण सिंह, धीरेश और राजकुमार के पोस्टर उखाड़ते जाते थे। जहाँ हमें पोस्टर उखाड़ने में सफलता नहीं मिलती, वहां हम उन्हीं पोस्टरों के ऊपर राठौर के पोस्टर चिपकाते जाते थे। ऐसा हम दो-तीन दिनों से कर रहे थे, लेकिन उस दिन दुर्भाग्य से दिगंबर साह के सहयोगियों ने हमें ऐसा करते हुए देख लिया। फिर क्या था? वे हम पर टूट पड़े। राठौर को चार-पांच घूंसे और लातें पड़ीं। मुझ पर भी दो घूंसे और दो थप्पड़ पड़े। हम मात्र छः लोग थे और वे दस- ग्यारह।


किसी तरह हम वहाँ से जान बचाकर भाग खड़े हुए। दूसरे दिन हमने पुलिस में दिगंबर साह के खिलाफ केस दर्ज कराने का निर्णय लिया, लेकिन इससे पहले कि हम कुछ करते दूसरे दिन दस बजे दिगंबर साह सहयोगियों सहित राठौर के कमरे में आ पहुँचा। उसने पचास हजार रुपये नकद राठौर के हाथ में धर दिए और बोला कि अगर तू बैठ जाता है तो डेढ़ लाख नकद दो दिन के भीतर और मिल जाएंगे। राठौर को प्रस्ताव अच्छा जान पड़ा और उसने इसे स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि पार्टी की ओर से टिकट मिलने की संभावना दिगंबर को ही थी। वह पर्याप्त पैसे देकर टिकट ख़रीद सकता था। इसलिए राठौर ने समझदारी का परिचय दिया और फ्री-फंड में दो लाख रुपये कमा लिये। उधर कृष्ण सिंह और धीरेश लाल में भी घमासान छिड़ा हुआ था, लेकिन अंतिम समय में कृष्ण सिंह ने धीरेश को पांच लाख रुपये देकर टिकट अपने नाम करा लिया। अब अध्यक्ष पद हेतु केवल तीन ही प्रत्याशी मैदान में थे दिगंबर साह, कृष्ण सिंह और राजकुमार। राजकुमार का पलड़ा हल्का था। कांटे की टक्कर थी तो दिगंबर साह और कृष्ण सिंह में। हमने भी अब राग-द्वेष भुलाकर दिगंबर का साथ देना शुरू कर दिया। गैदरिंग के दिन दिगंबर साह ने क्षेत्रीय भाषा में लच्छेदार भाषण देकर सभी का दिल जीत लिया और बाद में जीत भी उसी की हुई। हालांकि हमारा उम्मीदवार युद्ध लड़ने से पहले ही मैदान छोड़कर चला गया, किंतु उस साल मेरे पूरे पांच महीने बर्बाद हुये। इस दौरान मैं कुछ पढ़ नहीं पाया और किताबों से काफी दूर चला गया।


कभी-कभी मैं सोचता हूँ, क्या उच्च शिक्षण संस्थान राजनीति करने के लिए ही बने हैं? जवाब मिलता है नहीं। उच्च शिक्षा के केवल दो महत्वपूर्ण लक्ष्य होने चाहिए- पहला ‘शिक्षण’ और दूसरा ‘शोध’। छात्र राजनीति इन दोनों के लिए बाधक है। अतः इसे बंद किया जाना चाहिए अथवा इसका परिकृष्त रूप सामने आना चाहिए।



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