ख़ाली गोद
ख़ाली गोद
अंशिका का आज ख़ुशी का ठीकाना नहीं था,मानों बादलों पर तैर रही हो,पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे ,सातवें आसमान में ख़ुशी से उड़ रही थी।
ताने सुनते सुनते ग्यारह साल बीत गए थे।पीर मज़ार ,मंदिर,मस्जिद मन्नतें करते करते थक गई थी। पंडित ,ताबीज़ ,झाड़ फूंख हरचौखट पर मत्था टेक कर अपनी अर्ज़ी लगा आई थी,दीपक चट्टान की तरह मेरे साथ खड़े ,लड़ते रहे अपने ही परिवार से। मैंने तो आस छोड़ दी थी। दीपक हमेशा कहते "थिंक पॉज़िटिव।"
डॉ इंदिरा के सुझाव ने हमारे जीवन की झोली ख़ुशियों से भर दी,नई तकनीक के सहारे हमारा अपना अंश कोख में विज्ञान के चमत्कार ‘के सहारे साँसें ले रहा था ,एक नारी को संपूर्णता
प्रदान कर गौरवान्वित कर रहा था।
आज पूर्णिमा का चाँद आसमान में मुस्कुरा रहा था और इधर ज़मीन पर मेरी और दीपक की जीवांश मेरे आँचल व गोद को भिंगोते हुए मुझे पूर्ण कर रही थी। सच ही तो है भगवान के घर देर
है अंधेर नहीं। ग्यारह साल के लंबे इंतज़ार का फल सारे जहाँ की ख़ुशियाँ समेटे हुए हमारे बाँहों में समा कर रौशनी बिखेर रही थी हमारी ‘इंदिरा ‘हाँ हम दोनों ने डॉ इंदिरा का ही नाम दिया अपनी परी को।