हत्या
हत्या
आज फिर वसुधा को उसी गहरी पीड़ा से गुजरना था । पता नहीं पुत्र प्राप्ति की ललक कब समाप्त होगी ? पर हर बार यही करवाना कहां तक उचित था ? उसकी सेहत भी खराब होती जा रही थी। पर अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। इन सब की आदी हो चुकी थी वह। अब तो घर जाकर वह आराम भी नहीं करती , तुरंत ही लग जाती काम पर। अपने गुस्से को, अपने दर्द को, अपनी हताशा को कहां निकालती , इसके लिए वह खुद को काम में डुबो देती। पुत्र के नाम पर अबॉर्शन कुछ समय अंतराल पर ही होता था, जो जीव इस दुनिया में आया भी नहीं, उसको आने ही नहीं देना बेहतर था । इस दुनिया में आने के बाद , उम्र का एक हिस्सा जीने के बाद , उसे अपनी सोच की , अपनी इच्छाओं की, सपनों की , आकांक्षाओं की जिस तरह हत्या करनी पड़ती थी वह किसी अबॉर्शन की पीड़ा से कम थोड़े न था ।
दोनो परिवारों के मान सम्मान के लिए अपनी बलि चढ़ा दी, अपनी ही हत्या कर दी । पता नहीं कितनी मजबूत जान होती है हम स्त्रियों में , एक बार में मरती भी नहीं, तिल - तिल कर मरती हैं , हर रोज़। एक बात समझ में नहीं आती जिन लड़कियों को पैदा भी नहीं होने देते उन्हीं के कुछ करने से या न करने से इनकी इज्जत कैसे चली जाती है?
इतने में दरवाज़ा खुला और उसके पति ने प्रवेश किया । वसुधा का पीला चेहरा देखकर बोले," डॉक्टर से पता कर के आया हूं , उस बार ज़्यादा तकलीफ नहीं होगी।" वसुधा ने अपने पति की ओर देखा और आंखों में आंखें डाल कर दृढ़ शब्दों में बोली," बस करो, और कितनी हत्याओं का अपराध अपने सिर पर लोगे। जो इस दुनिया में नहीं आए उनके साथ साथ इस दुनिया में आए हुए को भी हर रोज़ मारा है। अब मैं तुम्हें अपनी हत्या भी नहीं करने दूंगी।"
