Priyanka Gupta

Others

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हमने तो खत भी लिखे थे...

हमने तो खत भी लिखे थे...

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मेरे सात वर्षीय भतीजे को उपहार में उसकी खुद की तस्वीर वाले 'माय स्टैम्प' मिले। मेरा भतीजा उस पीढ़ी से सम्बन्ध रखता है, जिसने संवाद के माध्यम के रूप में केवल मोबाइल फ़ोन, संस, चैट इत्यादि को ही जाना है। लोग पत्रों के माध्यम से भी संवाद करते थे, ये वो सोच भी नहीं सकता। जब पत्र नहीं पता, तो स्टैम्प के महत्त्व को भी बच्चा नहीं समझ सका। तो कुल मिलाकर उसे तोहफा पाकर उतनी ख़ुशी नहीं मिली, जितनी आमतौर पर बच्चों को मिलती हैं।


लेकिन उसके स्टैम्प्स ने मुझे गुजरे ज़माने में लौटा दिया। मैं अपने आपको किस्मत की धनी कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्यूंकि हमारी पीढ़ी ने पत्रों से मोबाइल तक के सफर को जिया है। हम संक्रमण के दौर की पीढ़ी हैं। पापा सरकार के नौकर थे ; इसलिए जब तक हम बड़ी कक्षाओं में नहीं आये, तब तक पापा के साथ हमारा भी स्थानांतरण होता था। ऐसे में गांव में दादा, दादी, चाचा आदि को पत्र लिखते थे। हमारी मम्मी की मेहनत की वजह से हमारा सुलेख और श्रुतिलेख दोनों ही बढ़िया था। तो हमारे चाचा हमारे लिखे पत्र पूरे गांव भर में सबको दिखाते थे और खुश होते थे।


दूसरी जगह पर आने के बाद छूटी हुई जगह के दोस्तों को पत्र लिखते थे। जैसे आज भी धीरे धीरे फ़ोन कॉल्स की आवृति कम हो जाती है, वैसे ही पत्रों की आवृति भी समय के साथ - साथ कम हो जाती थी। लेकिन कुछ एक लोगों के साथ संपर्क हमेशा बना रहता है, वैसे ही मेरी एक सबसे अच्छी दोस्त के साथ पत्रों का सिलसिला चलता रहा। तब तो हिंदी और अंग्रेजी भाषा के पेपर में भी पत्र लेखन का एक सवाल होता था। जैसे आज सोशल मीडिया पर वर्चुअल फ्रेंड बन जाते हैं, जिनसे हम कभी न मिले हैं और न ही जिन्हें कभी देखा है। ऐसे ही उस दौर में पत्र मित्र बना करते थे। खैर हमारा तो वैसा कोई पत्र मित्र नहीं था। हम तो हमारी सबसे प्रिय दोस्त को ही पत्र लिखते थे और उसके पत्रों का इंतज़ार करते थे।


घर तक चिट्ठी पहुंचने वाले डाकिये से भी एक अनकहा अनजाना रिश्ता बन जाता था। घर की गली में डाकिये को देखते ही दिल बाग़ बाग़ हो जाता था, डाकिये का दिखना चिट्ठी आने का संकेत होता था। जैसे सावन के अंधे को सब हरा हरा ही दीखता है, चाहे हरा हो या न। वैसे ही हमें डाकिया चाचा को देखते ही अपनी चिट्ठी दिखाई देती थी। जब नहीं मिलती थी तो दुखी हो जाते थे। अगर चिट्ठी मिली तो, हमारे पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। इसीलिए कहते हैं कि चिट्ठी में एक सरप्राइज एलिमेंट होता है, जो आज के फ़ोन कॉल्स और sms में कहाँ?


जेबखर्ची सीमित मिलती थी; तो जो भी पत्र लिफाफे में आते थे, उनकी स्टैम्प्स को बड़ी मुस्तैदी से जांचा जाता था; अगर स्टैम्प पर पोस्ट ऑफिस की मुहर लगने से रह गयी हो तो, उस स्टैम्प को काटकर दोबारा पत्र भेजने के लिए इस्तेमाल कर लें।हम दोनों दोस्त एक दूसरे को पत्र में कभी कभी १ रूपये का सिक्का भी चिपकाकर भेजते थे और साथ में लिखते थे कि, ये अपनी दोस्ती की निशानी है, इसे सम्हालकर रखना।और इतना ही नहीं पत्र के साथ सिक्के भी लम्बे समय तक सम्हाल कर रखे थे।


तब हमारे मामाजी की नई नई शादी हुई थी। मामीजी कुछ समय के लिए हमारे घर आयी थी, तब मामीजी मामाजी को पत्र लिखती थी और हमारे चाचा जी पत्र खोलकर पढ़ने में माहिर। पत्र में लिखी बातें बताकर मामीजी को छेड़ते थे और मामीजी से न तो हँसते बनता था और न रोते। हंसी मजाक होता था, लेकिन अपमान कोई किसी का नहीं करता था। हमारी मामीजी वाली पीढ़ी ने भी कम से कम प्रेम पत्रों का दौर तो देखा। इसी पीढ़ी तक ''हमने सनम को खत लिखा" जैसे गाने प्रासंगिक थे। अब तो खत, चिट्ठी, पत्र आदि जैसे शब्दों का गानों में उपयोग ही बंद हो गया है।


हमारा प्रेम विवाह हुआ है, घरवालों की रजामंदी से। लेकिन जब प्रेम करने की उम्र आई, तब तक सूचना क्रांति हो चुकी थी, तो हम तो प्रेम पत्रों से महरूम रह गए। अपने जीवन साथी को अब भी हम कभी कभी बोलते हैं की हमें एक तो खत लिख दो, जिसे हम अपने सीने से लगाकर रखेंगे। लेकिन अभी तक तो लिखा नहीं और कहते हैं कि आज ईमेल के दौर में खत लिखकर पैसा और समय क्यों खर्चा जाए?


लेकिन हमें महसूस होता है कि पत्र प्यार है, पत्र संवाद है, पत्र रिश्ता है, पत्र रोमांस है, पत्र हाल ए दिल का बयान है, पत्र को अपने गले से लगाकर रख सकती हूँ, पत्र को तकिये के सिरहाने रखकर सो सकती हूँ। लेकिन जाने अब वो दिन कहाँ चले गए, जब हम पत्रों के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हुए थे।अब संवाद तो बहुत तेज गति से स्थापित हो रहे हैं, लेकिन आत्मीयता न जाने कहाँ गायब होती जा रही है।


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