अजय '' बनारसी ''

4.9  

अजय '' बनारसी ''

गूँज

गूँज

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मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनल एक ऐसी जगह जहाँ ३६५ दिन की चहल पहल कभी खत्म ही नहीं होती और न ही ख़त्म होती हैं किसी की उम्मीदें,

यहाँ लोग बड़े सपने को लेकर भी आते हैं और कुछ लोगों के पेट की मजबूरी भी उन्हें यहाँ खींच लाती हैं। सभी के सपने पूरे हो न हो, लेकिन सबका स्वागत मुंबई दिल खोलकर करती है। इसी मुंबई को लेकर कई बड़े सफल उद्योगपतियों से लेकर पूरा का पूरा बॉलीवुड सपनों को लिए यहाँ उतरा है और उनके संघर्ष की कहानियों के साथ वे मुंबई के साथ-साथ इस देश के लिए भी गौरवशाली बन चुके हैं।

ऐसा भी नहीं है कि सभी के सपने साकार हुए भी हैं लेकिन फिर भी मुंबई ने उन्हें अपना सब कुछ दिया और ढेर सारा स्नेह भी, जिससे जो एक बार यहाँ आया फिर वो मुंबई की ममता से दूर नहीं जा सका। मुंबई ने आशीर्वाद के तौर पर उसे कुछ न कुछ दिया ज़रूर है। आज भी रोज़ की तरह चहल पहल, कुलियों की आवाज़, लोगों का आना-जाना, समय यही, कोई शाम के सात बजे, इस समय तो यहाँ तिल रखने की भी जगह नहीं होती क्योंकि सभी दफ्तरों से बाबु से लेकर सारे कर्मचारी,अफसर, लोकल पकड़ने की होड़ में लगे रहते हैं। फिर भी खुशनुमा और काम से थका हुआ किन्तु गतिमान मुंबई का यह टर्मिनल आज भी उसी तरह था जैसा पहले से है।

इसी भीड़ का एक हिस्सा रमन सिंह उम्र लगभग ५९ से ६० वर्ष, औसत कदकाठी एक छोटा सा ब्रिफ़केस और खाने का बड़ा सा थैला लिए पंजाब मेल के प्लेटफार्म पर लगने का इंतजार अपनी पत्नी नयना और दोनों बेटे के साथ कर रहे थे। उनकी उत्सुकता बनी हुई थी। बार-बार ट्रेन की पटरी झांक कर सुनिश्चित भी कर रहे थे कि ट्रेन कब आएगी, लोगों की भीड़ भी उन्हीं की तरह ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी और इस इंतज़ार की व्यथा शब्दों में व्यक्त करना थोडा मुश्किल सा है।

नयना बार-बार उन्हें सहेज रही थी। खाना और दवाइयां समय पर ले लेना, रास्ते में किसी भी अपरिचित से ज्यादा बातें मत करना जैसा की अमुमन आज के परिवेश में सभी अपनों से कहते हैं क्योंकि जहरखुरानी गैंग अक्सर लम्बी दूरी के ट्रेन के यात्रियों को ही अपना शिकार बनाते हैं और सारा माल लेकर चम्पत हो जाते हैं, कभी-कभी यात्री के जान का भी खतरा हो जाता है,एक बार फिर रमन सिंह पटरियों को देखने गए उनके चेहरे की चमक बता रही थी कि पंजाब मेल अब प्लेटफार्म पर लगने वाली है। दूर पटरियों के बीच एक रोशनी जो की इंजन के हेडलाइट थी रमन सिंह को दिखाई दी, वे तेजी से पलटे और नयना के पास आकर बोले– कल तुम सभी का भी इसी ट्रेन से आना होगा,अच्छा होता हम सभी एक साथ जाते। कोई बात नहीं एक ही दिन की बात हैं। अपना ख्याल रखना।

पंजाब मेल धीरे-धीरे प्लेटफार्म को छूती हुई अब आकर खड़ी हो गई। एस -२ बोगी सामने थी। उसी में रमन सिंह का ३३ नंबर का बर्थ रिज़र्व था, बोगी में चढ़ते समय एक बार फिर चार्ट में अपना नाम सुनिश्चित करते हुए रमनसिंह ने चार्ट पर अपनी उँगलियाँ फेरी और ३३ नंबर पर अपना नाम देख बोगी में चढ़ गए। साथ में नयना और दोनों बेटे भी चढ़े अभी तक बोगी में ज्यादा लोग नहीं चढ़े थे। अमूमन यात्री दादर-ठाणे और कल्याण से भी अपनी यात्रा प्रारंभ करते हैं। फिलहाल उनके बोगी में उनके कूपे में वे अकेले ही थे साथ में उनका परिवार कुछ देर तक औपचारिक बातें होती रही। समय कब बीता पता हीं नहीं चला। इसी बीच ट्रेन का हार्न बज गया। बड़े बेटे ने घडी की ओर देखा और कहा पिताजी अपना ध्यान रखियेगा, अब चलते हैं, समय हो गया। और दोनों बेटों ने पिता के पैर छुए और अपनी माँ के साथ प्लेटफार्म पर उतर गए।

नयना उन्हें खिड़की से विदा कर रही थी। वह उन्हें ऐसे अकेले नहीं जाने देना चाहती थी। उसकी आँखें भर आई। ऐसा नहीं हुआ है की रमन सिंह कभी अकेले बाहर गए ही नहीं। कई बार कंपनी के काम से उन्हें बाहर जाना पड़ा है, लेकिन आज ऐसे वक्त उनका अकेले जाना नयना को नहीं भा रहा था। उसका दिल भर आया और मोती जैसे आंसूं नयना के आँखों से गालों पर ढलक गए। रमन सिंह कुछ कहते ट्रेन हिल पड़ी और धीरे-धीरे चलने लगी। थोड़ी ही देर में ट्रेन मस्जिद बंदर पंहुच गई।

रमनसिंह जैसे कहीं खो गए उनके सामने एकाएक चालीस साल पुरानी घटना उनका मुंबई में साक्षत्कार के लिए आना और आज के जाने वाले दिन के सारे महत्त्वपूर्ण छण चलचित्र की तरह चल पड़े। आज रमनसिंह मुंबई से हमेशा ले लिए अपने पुश्तैनी मकान में रहने मथुरा जा रहे थे। उनका मुंबई का कार्यकाल समाप्त हो गया था। दोनों बेटों में एक हैदराबाद और दूसरा पुणे में कार्यरत थे और स्थापित भी थे और वहीं अपने परिवार के साथ रह भी रहे थे। वैसे तो वे सेवानिवृति के बाद बेटों के साथ रह सकते थे लेकिन उनके पुश्तैनी मकान से उनके बचपन की यादें जुड़ी थीं और वे अपनी आगे की ज़िन्दगी नयना के साथ वहीं बिताना चाहते थे। दो वर्षो पहले ही पिताजी के स्वर्गवास के बाद रमन सिंह ने निर्णय किया था कि आगे वे यहीं रहेंगे। किसानी भी करेंगे और अपनी पुरानी यादों को ताज़ा भी करेंगे। कल पत्नी भी बेटों के साथ आ ही जाएगी। फिर बेटे कुछ दिन रहकर अपने-अपने घर चले जायेंगे।

आज नयना साथ नहीं आई क्योंकि घर से मूवर्स और पैकर्स वाले कल सारा सामान पैक करेंगे और ट्रक से उनका सारा सामान उनके गाँव जाएगा। रमनसिंह को आज ही निकलना था क्योंकि मथुरा पहुँचकर रहने की व्यवस्था बनानी थी इसलिए वे पहले से जा रहे थे और बेटे और उनकी पत्नी अगले दिन आने वाले थे। ट्रेन ने अपनी गति कम कर दी। शायद दादर स्टेशन आ रहा था। ट्रेन दादर स्टेशन पर रुकी।

यात्रियों का कोलाहल और सामान लादे कुली उनके पीछे यात्री भाग रहे थे, यहाँ ट्रेन थोड़े देर के लिए ही रूकती है। ऐसे में यात्री और कुलियों की चाल थोड़ी तेज़ हो ही जाती हैं, लोग रमन सिंह के डिब्बे में भी चढ़ रहे थे लेकिन अभी तक रमन सिंह के कूपे में कोई भी यात्री नहीं आया था। रमन सिंह खिड़की के बाहर लगातर देख रहे थे और बहुत कुछ अपने अतीत से जुडी यादें महसूस भी कर रहे थे। ट्रेन एक बार फिर चल पड़ी। सहसा रमन सिंह ने देखा एक युवती यही कोई इक्कीस बाईस वर्ष की एक बैग टाँगे सीढ़ियों से बड़ी तेज़ी से उतर रही थी। शायद उसे भी पंजाबमेल ही पकडनी हो। रमनसिंह उत्सुकतावश उसे देखने लगे। उस लड़की ने गजब की फुर्ती दिखाई और सामने उनका ही डिब्बा पँहुचा था। युवती ने तेज़ी से लपककर ट्रेन पकड़ ली रमनसिंह का अंदाज़ा सही निकला वह इसी ट्रेन की यात्री थी। थोड़ी देर बाद रमन सिंह ने देखा वह युवती उनके कूपे में आई और रमनसिंह से हाँफते हुए बोली- एस-२ यही है।

जैसे ही रमनसिंह ने अपनी गर्दन हाँ में हिलाई वह सामने ३६ नंबर बर्थ पर पसर गई उसकी परेशानी देख रमन सिंह अपनी दुनिया से बाहर आये जो अभी तक अपने बीते दिनों और मुंबई की यादों में खोये हुए थे। रमनसिंह ने पानी का बोतल युवती की ओर बढ़ाया। बिना सोचे समझे युवती ने बोतल लपक लिया और तेज़ी से पानी पीने लगी. थोड़ी देर शांत होने के बाद बोतल लौटते हुए शुक्रिया भी कहा। अब वह थोड़ी सहज हो चुकी थी। ट्रेन अपनी रफ़्तार से चल रही थी। टिकट अधिकारी आकर टिकट चेक करके चला गया। उससे ही पता चला, कूपे के अन्य यात्री मनमाड से अपनी यात्रा प्रारंभ करेंगे। ट्रेन में चहल-पहल शुरू हो गई थी। लोग पैसेज में आ जा रहे थे। ठाणे फिर कल्याण स्टेशन आकर जा चूका था। लोग अपने अपने बर्थ और सामान को सहेज रहे थे और सुनिश्चित भी कर रहे थे कि सब ठीक ठाक है।

रमन सिंह थोडा टहलकर टॉयलेट होकर लौट आये थे। घड़ी नौ बजा रही थी। वैसे तो रमनसिंह की खाने की इच्छा नहीं थी फिर भी नयना ने बड़े स्नेह से खाना पैक किया था तो वह अब खाना खाने के लिए सोच ही रहे थे कि वह लड़की बोली– आप कहाँ तक जा रहे हैं।

रमन सिंह ने बड़ी सहजता से कहा- मथुरा और आप।

उसने कहा- नई दिल्ली।

कुछ देर तक औपचारिक बातें हुई जिससे पता चला वह यहीं मुंबई में जियोलॉजिस्ट की मास्टर डिग्री आई.आई.टी. पवई से कर रही है। परीक्षा के दिन चल रहे थे, आज ही आखिरी परचा था और उसने आज की ही टिकट इस गाड़ी में कराई थी जैसा कि सभी छात्र करते हैं। परीक्षा के बाद जल्दी से अपने घर पहुँचना चाहते हैं, जिसके कारण होस्टल से सब कुछ समेटते, लोगों से मिलते-जुलते, उसने किसी तरह उसने यह ट्रेन पकड़ी है।

रमन सिंह समझ चुके थे ऐसे में उसके पास खाने के लिए घर का कुछ नहीं होगा और नयना ने एक झोला पूरा खाने पीने के सामान से भर कर दिया था। रमन सिंह काफी तजुर्बेकार व्यक्ति थे। उन्होंने खाने का कार्यक्रम थोड़ी देर के लिए टाल दिया। वैसे भी उन्हें अभी खाने की इच्छा भी नहीं थी। उन्होंने उससे बातचीत करनी शुरू की- वैसे आपके घर में कौन-कौन हैं।

उसने ज़वाब दिया मैं अकेली ही, मेरे माता पिता की एकलौती संतान हैं और यह भी बताया की उसके माता-पिता दिल्ली में आर्किटेक्ट है और वे चाहते हैं कि उनकी बेटी जियोलॉजिस्ट बने और पर्यावरणविद बने जिसके फलस्वरूप देश की विभिन्न आई.आई.टी. संस्थानों में से एक मुंबई में पवई संस्थान में उसका एडमिशन हुआ था।

रमन सिंह ने उसे अपने बारे में बताया कि उनके दो बेटे हैं और वे भी अपने क्षेत्र में कार्यरत हैं और वे सेवानिवृत होकर अब अपने पैतृक गाँव डहरुआ, मथुरा से नौ किलोमीटर दूरी पर रहने जा रहे हैं। उनकी बहुत इच्छा थी की उनकी भी एक बेटी हो इसीलिए उन्होंने प्रयास किया था लेकिन ईश्वर को यह मंजूर नहीं था। वैसे बेटियां उन्हें बहुत प्रिय हैं। बातचीत में ही पता चला उसका नाम सलोनी शर्मा है। रमन सिंह उसे अब अपनी जिम्मेदारी समझ चुके थे। वे सलोनी से काफी सहज हो चाहते थे ताकि वह भी अपने आपको सुरक्षित महसूस करें और उसे ऐसा महसूस हो कि वह अकेले यह सफ़र नहीं कर रही है उसके साथ उसके पिता सफ़र कर रहे हैं और काफी हद तक बातचीत करके रमन सिंह आश्वस्त भी हो चुके थे। कभी सलोनी से कॉलेज की बातें, कभी अपनी नयना की बातें कर रहे थे। इसी प्रकार थोड़ी ही देर में वह भी लगभग उनसे घुल मिल सी गई।

रमन सिंह ने अपना खाने के सामान का झोला खोला और सलोनी से कहा- आओ साथ में खाना खाते हैं। सलोनी पहले मना करती रही क्योंकि ऐसा किसी के साथ ट्रेन में किसी भी अपरिचित के साथ खाना उसे अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन सच यह था कि उसे जोरो की भूख भी लगी थी क्योंकि परीक्षा के दिनों वैसे भी खाना-पीना लगभग आधा हो जाता हैं और आज परीक्षा के बाद उसे कहीं कुछ खाने का मौका भी तो नहीं मिला था। रात के ग्यारह बज रहे थे। लगभग सभी लोग खा पीकर सो भी गए थे। उसके पास दूसरा कोई पर्याय भी नहीं था। उनके बार-बार के आग्रह को वह मना भी नहीं कर पाई। रमन सिंह ने दो प्लेटों में खाना रख दिया था और उसने एक प्लेट उठा ली, खाना देखते वह थोड़ा प्रसन्न सी हो गई। बहुत दिनों बाद घर का खाना उसे मिला था और उसकी पसंदीदा मेथी की रोटी-अचार और आलू की सब्जी, साथ में दही, खाना खाते खाते वह बोली- मुझे मम्मी की याद आ गई। वही स्वाद इस पराठे और सब्जी में है। दोनों ने खाना खाया, सलोनी ने बर्थ उठा दिया और सोने की तैयारी करने लगी। उसे जोरों की नींद आ रही थी और वह अब आश्वस्त भी महसूस कर रही थी। रात के बारह बज चुके थे। मनमाड आने वाला था। वह नहीं चाहती थी आने वाले यात्री उसकी नींद ख़राब करे। वह रमन सिंह का धन्यवाद देते हुए जल्दी ही चादर में घुस गई और जल्दी ही उसे नींद भी आ गई।

यहाँ रमन सिंह के आँखों में नींद का नाम ही नहीं था। मुंबई छोड़ने का दर्द उन्हें साल रहा था जबकि वह उनका अपना निर्णय था कि वे आगे अपने पैतृक गाँव में रहेंगे। फिर भी मुंबई ने उन्हें बहुत कुछ दिया था जिसमें उनकी जीवनसंगिनी नयना प्रमुख थी।

इसी उधेड़बुन में उन्हें कभी नींद आ जाती कभी खुल भी जाती। मनमाड में बाकि यात्री आ चुके थे और अपनी बर्थ पर सो चुके थे। बत्ती बुझी हुई थी। पैसेज की नीली बत्ती ही सिर्फ जल रही थी। रमन सिंह अपनी यादों में खोते रहे। उसी रफ़्तार से ट्रेन भी अपनी रफ्तार बनाये हुए थी और समय से चल भी रही थी। जैसा मनमाड में आये यात्रिओं के बातचीत से पता चला था। सुबह के पांच बज रहे थे। ट्रेन खंडवा पहुँच चुकी थी। रमन सिंह जाग चुके थे, नीचे उतरकर उन्होंने चाय पी। मौसम थोडा ठंडा था। चाय की चुस्की उन्हें बहुत भा रही थी। ट्रेन का सिग्नल हुआ। रमन सिंह फिर से ट्रेन में सवार हो अपने बर्थ पर लेट गए। थोड़ी देर में सुबह की लालिमा लिए उजाला होने लगा था। दूर दूर पहाड़ियाँ छोटे छोटे गाँव पीछे होते जा रहे थे। सूरज अब चढ़ने लगा था। साढ़े सात बजे पंजाबमेल इटारसी स्टेशन पहुँची थी। सलोनी अभी भी सो रही थी। रमन सिंह ने सोचा उसे जगा दे लेकिन कुछ सोचकर वो उसे जगा नहीं सकें। रमनसिंह ने दोबारा चाय पी लेकिन नाश्ता अभी तक नहीं। वो सलोनी के उठने का इंतज़ार कर रहे थे।

रमन सिंह अब अपने बारे में लगभग भूल चुके थे। उन्हें सलोनी की चिंता हो रही थी। वह कब उठेगी, कब चाय पीयेगी, वगैरह वगैरह। करीब सवा नौ बजे सलोनी उठी। वह अभी भी अलसाई हुई थी। शायद उसकी परीक्षा की थकान अब तक खत्म नहीं हुई थी। रमन सिंह बोले- सवा नौ बज चुके हैं, आगे भोपाल स्टेशन आने वाला है। तुम क्यों नहीं ब्रश कर लेती, फिर नास्ता साथ करेंगे।

रमन सिंह की बात सुन आज्ञाकारी लड़की की भांति वह उठी और अपना ब्रश ले बोगी के गेट पर लगे बेसिन की ओर चली गई। भोपाल स्टेशन आ चूका था। चाय वाले और विभिन्न प्रकार के नाश्ते वाले, बच्चों के खिलौने वाले, चलता पुस्तकालय, सब अपनी आवाज़ से लोगों को आकर्षित करके अपना धंधा करने में व्यस्त थे। रमन सिंह ने सलोनी व अपने लिए पहले ही से नयना का दिया हुआ नमकीन, गुलगुले और दो सैंडविच जल्दी से बना लिए। जिसका इंतजाम नयना ने झोले में कर रखा था वह भी उनके मात्र अनुरोध से बैठ गई जैसे दोनों एक ही घर से हो और दोनों ने नाश्ता किया और ट्रेन छुटने से पहले सलोनी ने चाय ले ली। फिर हम दोनों चाय की चुस्कियों में व्यस्त हो गए। सलोनी ने उसी बीच अपनी माँ को फ़ोन किया और यात्रा के बारे में बताया और रमन सिंह का ज़िक्र करना वह नहीं भूली।

उसने यह भी बताया किस तरह वह अपनापन महसूस कर रही है और भी बातें उसने की इसके बाद वह मोबाइल में इअरफ़ोन लगा गाने सुनने में मस्त हो गई और और रमन सिंह गुलशन नंदा की मशहूर उपन्यास एक नदी दो पाट पढ़ने में व्यस्त हो गया जो उसने इटारसी स्टेशन पर खरीदा था।

ट्रेन में अब थोड़ी भीड़ हो गई थी। अधिकतर छोटी दूरी के यात्री स्लीपर डिब्बों में चढ़ जाते हैं और उचित जगह देख यात्रियों से अधिकारिक निवेदन से खिसका कर बैठ जाते हैं और उनका एक जुमला होता है भैया दो ही घंटे के बात है, अगले स्टेशन तक जाना है, वगैरह-वगैरह सलोनी भी विंडो सीट पर बैठ गाने सुन रही थी और रमन सिंह उपन्यास में खो चुके थे। छोटे-छोटे स्टेशन बीच में आ रहे थे। लोग चढ़ उतर भी रहे थे। लोकल यात्री बदल रहे थे। भीड़ बनी हुई थी। रमन सिंह ने निर्धारित किया था बीना जंक्शन आने पर दोपहर का भोजन किया जायेगा। ट्रेन अब एक घंटे लेट हो चुकी थी। बीना १२ बजे के बजाय एक बजे पहुँचने वाली थी। कुछ देर बाद ट्रेन बीना जंक्शन के आउटर पर आकर खड़ी हो गई। रमनसिंह ने भी नयना का दिया हुआ झोला निकाल लिया। सलोनी भी इस बार उसकी मदद करने लगी। दोनों ने दोपहर का भोजन किया, सलोनी ने बीना से ठेले वाले से गर्म पुलाव खरीदा और नयना के हाथों की करेले की सब्जी और पूरी के साथ दोपहर का भोजन समाप्त हुआ। इसी बीच दोनों की बातें भी हुई। सलोनी अपने माता-पिता और कैरियर को लेकर काफी खुश थी। कुछ देर रमन सिंह और सलोनी आपस में बातें की जिसमें सलोनी ने रमन सिंह और नयना के मुंबई के पहले मुलाकात और उनके गाँव की चर्चा भी की, आगे वे क्या करने वाले हैं, उनका आगे गाँव के कोई सामजिक सेवा का प्लान है वगैरह-वगैरह, फिर दोनों अपने पुराने अंदाज़ में आ गए। वह गाने सुनने लगी और सलोनी गाना सुनते बैठे-बैठे ही सो गई थी। लगभग चार बजे ग्वालियर स्टेशन आया। वह उठी और दोनों ने चाय पी। ट्रेन चल पड़ी। कुछ लोकल यात्री अपने लिए जगह तलाश रहे थे, उसी में एक युवक जो कि अपने बैठने के लिए बैठने के लिए जगह ढूंढ रहा था थोडा मनचला भी दिखाई दे रहा था अनावश्यक उनके कूपे में आकर बैठ गया अब तक के सफ़र में कई लोकल यात्री उस कूपे में बैठे लेकिन उसका बैठना रमन सिंह के लिए थोडा अखर रहा था क्योंकि वह किसी नियोजन से वहाँ बैठा था जबकि दूसरे कूपे में भी जगह थी। जैसा की मनचले अक्सर किसी लड़की या स्त्री को देख उसके आसपास बैठते है रमन सिंह ने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया।

सलोनी को लेकर रमन सिंह का असहज होना स्वाभाविक था आखिर इस समय वह सलोनी को अपनी जिम्मेदारी भी समझ रहा था। थोड़ी देर के बाद वह अन्य विषयों की बातें करने लगा और बातचीत से उनका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करने लगा और कुछ हद तक वह कामयाब भी हो गया और सलोनी से बातें भी करने लगा जैसा की आज के युवा किसी से भी जल्दी असहज महसूस नहीं करते और वह मनचला अपने आप पर खुश भी हो रहा था लेकिन उसकी आँखों की गन्दगी को रमन सिंह नज़रंदाज़ नहीं कर सकते थे लेकिन उसका खुलकर विरोध भी नहीं कर सकते थे क्योंकि सलोनी भी उसकी बातों में सहज महसूस कर रही थी। लेकिन युवक यह समझ चुका था कि रमन सिंह कहीं उसका खेल बिगाड़ न दे सो कुछ विषयों पर वह जानबूझकर रमन सिंह से उलझ भी रहा था। अभी मथुरा आने में २ घंटे बाकी थे। ट्रेन डेढ़ घंटे लेट भी हो चुकी थी। आठ बजे सलोनी बर्थ उठा दिया वह फिर से सोना चाहती थी और चादर ले सो गई। रमन सिंह को थोड़ी तसल्ली हुई। वह युवक अब भी वहीं बैठा था।

रमन सिंह ने बात बात में उसे टटोलने के हिसाब से पूछा वह कहाँ तक जायेगा और क्या करता है उसने बताया फरीदाबाद तक जाएगा। रमन सिंह थोड़ा चिंतित भी हुए कि उनके उतरने के बाद भी यह मनचला यहीं बैठा रहेगा रमनसिंह का मन आशंका से भर उठा लेकिन वह भी विवश थे ,मथुरा अब से कुछ ही देर में आने वाला था। रमन सिंह ने अपना सामान समेटा और बैठ गए। सलोनी अब भी सो रही थी वह उसे जगा भी नहीं सकते थे।

सहसा रमन सिंह ने देखा युवक घूर-घूर वासना से सलोनी की ओर देख रहा था। रमनसिंह का ध्यान सलोनी की ओर गया। सलोनी की चादर सरक चुकी थी और उसकी छाती स्पष्ट दिखाई दे रही थी जिसके कारण वह लड़का उसे वासना की नजर से लगातार घूर रहा था। ट्रेन ने मथुरा स्टेशन पर रेंगना शुरू कर चुकी थी। रमन सिंह के पास पर्याप्त समय नहीं था। उसने सोचा कि वह सलोनी की चादर सही कर दें, रमनसिंह जैसे ही चादर सही करने सलोनी के उपर झुका अपना खेल बिगड़ता देख युवक जोर से चिल्ला उठा- वह आदमी लड़की के साथ गलत कर रहा है.....लगातार चिल्लाने लगा . आवाज सुनते ही सलोनी की बड़ी-बड़ी आँखे खुल गई और उसने अपने ऊपर रमनसिंह को झुके देखा वह कुछ समझ पाती युवक के शब्द उसके कानो में गूंज रहे थे कुछ समझ पाती उससे पहले आवेश में उसने लेटे लेटे ही एक ज़ोरदार चाँटा रमनसिंह के गाल पर जड़ दिया। सब कुछ बड़ी तेजी में हुआ। रमनसिंह के पास सफाई के लिए कुछ था भी नहीं वह अपना सामान ले मथुरा स्टेशन पर उतर चुके थे। एक हाथ उस गाल पर रखे खड़े रहे जिस पर सलोनी ने ज़ोरदार चाँटा मारा था। पंजाबमेल मथुरा स्टेशन छोड़ रही थी। उसकी लाल टेल लाइट अब ओझल होने लगी थी ..


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