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Sarita Kumar

Others

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Sarita Kumar

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गांव का रोमांचक सफ़र

गांव का रोमांचक सफ़र

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जीवन के सफ़र में कुछ सफ़र ऐसे यादगार होते हैं कि बरसों बाद भी मन को आनंदित कर देते हैं। बात पैंतीस साल पुरानी है। हम शहर में रहते थे, दीदी की शादी भी शहर में ही हुई थी लेकिन किसी कारणवश वो लोग गांव जाकर रहने का फैसला कर लिया था। चुकी जीजाजी इकलौते बेटा थे तो दीदी को अपने सास ससुर के साथ ही रहना था। 

जीजाजी ने खुशखबरी सुनाई की मैं मौसी बन गई हूं। मां पापा सभी बहुत खुश हुए। छठी में सभी को आमंत्रित किया गया था। लेकिन अस्सी के दशक में लोग अपनी बेटी के घर नहीं जाते थे और ना ही बेटी के घर से आया कुछ भी खाते थे। इसलिए हम चारों भाई बहन ही गये। मुजफ्फरपुर से दरभंगा और दरभंगा से पोहद्दी बेला तक का सफ़र बस से तय हुआ उसके बाद पोहद्दी बेला पहुंचने पर जीजाजी और उनका मैनेजर मिला फिर उन्होंने बताया अभी एक घंटे का सफ़र और तय करना होगा और वो भी बैलगाड़ी से। अरे वाह .... रोमांच और खुशी से चीख पड़ी थी। 

दरअसल "नदिया के पार " मूवी का असर था। बड़े उत्साह और उमंग से बैलगाड़ी पर बैठ गये हम चारों भाई बहन और जीजाजी। जैसे गाड़ी दो चार कदम आगे बढ़ी की फिल्म नशा हवा होने लगा। गांव के कच्चे उबड़-खाबड़ रास्ते और हिलते डुलते बैल ..... भय, दहशत और डर के मारे प्राण सूखने लगे। जब हिल डोल जाता मैं चीखने लगती। एक घंटे के सफ़र में बत्तीस करोड़ देवी-देवता को याद कर लिया और दो चार मंदिरों में प्रसाद चढ़ाने का भी मन्नत मांगी तब जाकर कहीं सफ़र पूरा हुआ। रास्ते जितने ही ख़राब और भयानक थे। थकान भी उतना ज्यादा महसूस हुआ।  

खैर जहां बैलगाड़ी रुकी वहां का नजारा देखकर आंखों को आराम मिला। ढेरों फूल फल के पेड़ पौधों से सजा हुआ दरवाजा किसी महल के द्वार सा प्रतीत हुआ तभी घोड़े की हिनहिनाहट ने ध्यान आकृष्ट किया। हम घर में दाखिल न होकर अस्तबल के तरफ रूख कर लिया। घोड़ा और घोड़ी का एक जोड़ा। बड़ा ही खूबसूरत और आकर्षक लगा। पास जाकर छूने की कोशिश की तो बिदकने लगा। दीदी के ससुर जी ने कहा कल घुमाने ले चलूंगा आज आराम करो। बड़ा लम्बा सफ़र तय कर के पहुंची हो। मैं बहुत खुश हुई। घर में पहुंचना भी बहुत आसान नहीं था। पहले बाहर के गेट से अंदर आई फिर एक दूसरा दरवाजा पार कर के हाल में वहां बाबूजी और अम्मा जी का कमरा था उसके बाद दो चार कमरे फिर आंगन उसके बाद बरामदा फिर एक कमरे से होकर दूसरा कमरा दीदी का था। ‌मुझे लगने लगा यह लखनऊ का भूल भुलैया में आ गई हूं। अगर दीदी के कमरे से बाहर निकलना हो तो बहुत मुश्किल होगी। दीदी चुपचाप बैठी थी सजी-धजी सुंदर सी साड़ी पहने बिल्कुल रानी और महारानी की तरह ढेरों जेवरों के भार से दब सी गई थी शायद इसलिए हमारे आने पर दौड़ कर नहीं मिलने आई थी .... कुछ बदली बदली सी लगने लगी थी खैर मुझे क्या करना है मुझे तो बिटिया रानी से मिलना है सो जल्दी से हाथ पांव धोकर गोद में लेने को मचलने लगी। सासु मां ने बहुत आराम से लेने की हिदायत देते हुए पकड़ाया था मुझे। दीदी की दोनों ननदें बड़ी प्यारी प्यारी सी मीठी मीठी बातें करती थी और सासु मां बड़े अदब से शर्माती हुई मुस्कुराती थी। बहुत अच्छा लगा मुझे। सही सुना था गांव के लोग बड़े भोले भाले मन के कोमल और स्वभाव से मधुर होते हैं।  

दूसरे दिन सुबह से ही लोगों का तांता लगना शुरू हो गया। उन लोगों के लिए हमारा आना भी कौतूहल का विषय बन गया था। गांव भर की औरतें हमें देखने आ गई कि बहुरानी की बहनें आई हैं। मुझे जोर जोर से हंसने बोलने की आदत थी। दीदी बेचारी डर के मारे परेशान थी। दस बार मुझे समझाया की गांव वालों के सामने जोर से मत हंसना जोर से मत बोलना। बंदरिया जैसे कूदते फांदते मत रहना। देखो जैसे मैं बोलती हूं चलती हूं बिल्कुल ऐसे ही तुम भी करना। मैंने कहा हां ठीक है। फिर आप मुझे भी साड़ी पहना दो और यह सब जेवरात मंगा दो फिर उसके वजन से दब जाऊंगी तब धीरे धीरे सब कुछ करने लगूंगी। दीदी की ननदों ने सुन लिया और खूब मज़ाक उड़ाया। कहने लगी फिर तो यही रहना होगा बहु बनकर। बाबूजी ने कहा हां हां बहुत अच्छा एक ऐसी बहुरानी भी चाहिए मुझे और अम्मा जी धीरे धीरे मुस्कुरा रही थी ...। पता नहीं क्यों मुझे बुरा नहीं लगा। छठी का पूजा , पार्टी सब बहुत अच्छे से सम्पन्न हुआ। दूसरे दिन अपने वादे के मुताबिक बाबूजी तैयार होकर बैठ गये घोड़ा को छोड़कर घोड़ी निकाली गई उसे खिलाया पिलाया गया फिर ढेरों साज नवाज कर उन्हें भी सजाया गया। पहले बाबूजी बैठें फिर मुझे चढ़ाया गया मेरे चढ़ते ही घोड़ी नाराज़ हो गई और दोनों पांव उठाकर मना करने लगी। उसने साफ़ इनकार कर दिया। मेरे भाई बहन जीजाजी और उनकी बहनें सब हंसने लगी। मैं रोने को हो गई , बाबूजी बड़े अच्छे इंसान थें वो उतर कर घोड़े को तैयार करवाया फिर कुछ दूर मुझे घोड़े से सैर कराई। मेरा मन बहुत खुश हुआ। सोचने लगी दीदी का कोई देवर नहीं है वरना मैं यहीं शादी कर के आ जाती। बिल्कुल राजा महाराजा की ठाठ है। दीदी कितनी खुशनसीब है चारों तरफ उन लोगों की अमीरी और सम्पन्नता नजर आ रही थी। अगर मां पापा आएं होते तो उन्हें भी बहुत खुशी होती। दीदी बड़े घर में ब्याही गई थी। हमारे घर में दो चार इटालियन सिल्क की चादरें थी जो सिर्फ खास मेहमानों के आने पर बिछाए जाते थें। यहां तो आठ दस कमरे हैं और हर कमरे में इटालियन सिल्क की चादरें , सोफ़ा , डाइनिंग टेबल , गैस चूल्हा , स्टील के आलमीरा वो भी गोदरेज कंपनी का। कहने को ये लोग गांव में थे और हम लोग शहर में लेकिन इन लोगों का रहन सहन बहुत उच्च कोटि का था।

दो चार दिन खूब मज़े किए अब हमें लौटना था। बहुत अच्छी खातिरदारी हुई थी हमारी। हम बहुत खुश हुए। सभी की ढेरों तस्वीरें खींची कुछ सामान , घोड़े और घोड़ी की भी मां पापा को दिखाने के लिए। विदाई की तैयारी की गई दीदी रोने लगी मैं भी फिर अम्मा जी और बाबूजी भी ..... ऐसा लगने लगा की मैं उस घर की बेटी थी जो विदा होकर ससुराल जा रही हो। जीजाजी को मस्ती सुझी उन्होंने कहा ऐसा है तुम्हें जाने का मन नहीं है तो मत जाओ हमारा घोड़ा कुंवारा है अभी तक उससे ब्याह करा कर हम रख लेंगे। घोड़ा तो तुम्हें पसंद भी कर लिया है एक बार सैर भी करवा चुका है बस घोड़ी से बच कर रहना उसने तो पहली दफा में ही नाराजगी जता दी है। इस बात पर हम सब खूब हंसे और फिर बस का टाइम होने को था सो चल पड़े। फिर वही बैलगाड़ी की सवारी .... कलेजा दहल गया मैंने कहा मैं नहीं जाऊंगी बैलगाड़ी से। मैं यहीं रह जाऊंगी घोड़े से शादी कर लूंगी लेकिन बैलगाड़ी से नहीं जाऊंगी ....। मेरे होश उड़ गए थें बैलगाड़ी को देखकर। फिर बाबूजी ने कहा जीजाजी को की मोटरसाइकिल से हम दोनों बहनों को बस स्टैंड तक पहुंचा दें। भैया लोग बैलगाड़ी से ही बस स्टैंड पहुंचे लेकिन जीजाजी मोटरसाइकिल से पहुंचा दिया। बस एक ही बात बहुत ख़तरनाक थी बैलगाड़ी की सवारी बाकी दीदी का ससुराल इतना ज्यादा अच्छा लगा कि मैंने पापा को भी बता दिया कि दीदी का कोई देवर नहीं है वरना मैं भी उसी गांव चली जाती ब यह रिक्शा वाले चाचा को भी ले जाती क्योंकि बैलगाड़ी की सवारी नहीं करनी है मुझे।


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