एक पल
एक पल
वो भी क्या दिन थे, जब बरसाती नालों में कागज की नाव बनाकर छोड़ना। आम के बाग में कच्चे -पक्के आमों पर पत्थर बरसा कर जेबों में आम
ठूंसना।
पेड़ों से छनती धूप पर पांव रखकर कूदना और अपनी नन्ही हथेलियों में पत्तों से गिरती वर्षा की बूंदों को समेटना। कितना आनंद आता था। इतना ही नहीं सड़क से गुजरती सैनिक जीपों में बैठे सैनिकों को हाथ हिला कर बाय - बाय करना। तब दिल में यही हूक उठती थी कि बड़ा होकर मैं भी
इनकी तरह , अपना तन - मन दाव पर लगा दूंगा।
यह सब पल भर में ही मेरे मस्तिष्क के पट पर
चलचित्र की तरह घूम गए। फिर एक पल के लिए याद आया, वो दिन जब सेना में भर्ती होकर दुश्मनों के छक्के छुड़ाए और बड़े गर्व से अपने गांव के लोगों का सम्मान और प्यार पाया।
गांव क्या --छोटा सा पहाड़ी गांव, चारों ओर बर्फीली चोटियां और चीड़ -देवदार के पेड़ों से घिरे कुछ कच्चे -पक्के घर। पास में बहता दरिया जिसे
किश्ती से ही पार किया जाता था। गांव के बीचो- बीच सपाट मैदान है, जिसकी हरी -भरी घास पर सुबह - सवेरे शबनम की बूंदें मोतियों की तरह चमकती हैं।
यह सब इस पल क्यों याद आ रहा। शायद यही एक पल मुझे मेरे जिंदा होने का एहसास दिला रहा था। मैं कहां हूं, मेरे साथ क्या हुआ , कुछ भी आभास न था , बस इतना याद है कि दुश्मनों की गोलाबारी का जवाब देते एक धमाका फिर सब शांत।
अपने पास कुछ आवाजों को पहचानने का प्रयत्न किया। आंखें खुल नहीं रही थीं, पर मस्तिष्क में इस पल यही सब चल रहा था। एकाएक यह एहसास भी छूट गया जब छुटपुट शब्दों में किसी ने कहा -'सब खत्म, शहीद हो गया। '
दिल को सुकून मिला कि देश के काम तो आया फिर यह सब पल न जाने कहां चले गए।
