एक महान का दयनीय होना ....
एक महान का दयनीय होना ....
6 फरवरी को लता जी नहीं रहीं। इसके पहले एक माह से उनके अस्पताल में भर्ती होने, कोरोना संक्रमित होने एवं स्वास्थ्य के घट बढ़ सबंधी समाचार सुनने-पढ़ने मिल रहे थे।
जब वे नहीं रहीं तब कुछ इमेजेस एवं वीडियो, सोशल मीडिया पर आए थे। उनमें से कुछ, मुझे मोबाइल पर दिखाते हुए रचना ने मुझसे पूछा - आप पहचान सकते हो ये कौन हैं?
मैं इन्हें पूर्व ही फेसबुक पर देख चुका था। मैंने कहा - ये भारत रत्न लता मंगेशकर जी हैं।
लिखने का अभिप्राय यह है कि अंतिम दिनों में लता जी इतनी कमजोर, इतनी दुबली हो गईं थीं कि उन्हें पहचानना कठिन हुआ हुआ था।
लता जी पर उम्र या रोग ने यह प्रभाव एक दिन में नहीं छोड़ा था। स्वर साम्राज्ञी, भारत रत्न एवं पूरे देश में लोकप्रिय लता जी, जिनके गीतों ने कई दशकों में अरबों अरबों बार, करोड़ों भारतीय एवं शेष विश्व के लोगों के कर्णों को वह मधुरता प्रदान की थी जो किसी अन्य गायक के द्वारा किया जाना, कदाचित! ना पहले संभव हुआ था और ना ही आगे कभी हो सकेगा।
मैं सोचता हूँ इस अनुपम व्यक्तित्व की धनी लता जी पर जब उम्र ने अपना प्रभाव दिखाना आरंभ किया तब यह सब क्या और कैसे हुआ होगा। मुझे स्मरण आता है कि लता जी ने, सर्वश्रेष्ठ गाए गए गीतों से हर वर्ष दिए जाने वाले अवार्ड, आगे नहीं ग्रहण करने संबंधी घोषणा की थी। वे नहीं चाहती थीं, ऐसे अवार्ड जो उन्हें अनेक मिल चुके हैं, अब उनके इस दौड़ में होने से, अन्य प्रतिभाशाली गायिकाएं को इन उपलब्धियों से वंचित रह जाना पड़े।
2001 में जब उन्हें भारत रत्न दिया गया तब वे 71 वर्ष की थीं। उम्र के कारण उनमें तब एक किशोरी या युवती सा रूप लावण्य नहीं रहा था। शायद शारीरिक रूप से उनकी क्षमता में भी, पिछली अवस्था की तुलना में क्रमशः ह्रास (Deterioration) हो रहा होगा। निश्चित ही उनकी गतिविधियां पहले से कम होने लगीं थीं। उनके गाए जा रहे गीत कम होने लगे थे। रंगमंच (Stage) पर किए जाने वाले कार्यक्रमों में भी कमी आने लगी थी। फिर भी तब वे इतनी फिट रहीं होंगी कि कुछ, दूसरों के लिए और कुछ, खुद के लिए कर पाएं।
बढ़ती उम्र के साथ जब क्षमताओं में और गिरावट आई होगी तब उनके परिवार वाले और वे खुद इस बात से संतोष करते होंगे कि चलो वे अभी भी इतनी समर्थ तो हैं कि अपने दैनिक क्रम स्वयं कर लेतीं हैं।
“समय बलवान” कहा जाता है। लता जी ने अपने लड़कपन में, ज्यों ही किशोरवय में प्रवेश किया, ‘समय बलवान’ ने उनके कंधे पर परिवार का दायित्व रख दिया था। उनके पिता नहीं रहे थे।
इसके बाद ‘समय बलवान’ एक छोटी सी संघर्षरत बालिका की क्षमताओं को साक्षात देख कर चकित था। लता जी के साहस, लगन एवं गायन प्रतिभा पर तब ‘समय बलवान’ मोहित हुआ था।
फिर तो लता जी का साथ ‘समय बलवान’ ने यों दिया कि उत्तरोत्तर उपलब्धियाँ और ख्याति लता जी के चरण चूमने को लालायित खड़ी रहतीं थीं।
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था कि गीत के शब्द के अर्थ या भाव अच्छे हैं भी या नहीं मगर यदि गीत को स्वर लता जी का मिला तो उसका श्रवण (Listening) करने वाले को, अपने कर्ण (Ear) से होते हुए हृदय में आनंद रस की अनुभूति होती ही थी/है।
अगर पारस लौह वस्तु को अपने स्पर्श से सोना बनाए तो उसकी तौल की जा सकती है मगर लता जी की वाणी, जिस गीत को छू जाती उसकी मधुरता किसी के हृदय में जो आनंद रस घोलती है, उसका कोई माप (तौल) नहीं किया जा सकता है।
यह भी ‘समय बलवान’ की एक अनूठी कृतित्व (Unique creation) थी कि लता जी जिनके साथ पूरा देश था, स्वयं ‘समय बलवान’ भी था मगर जो भारतीय नारी के जीवन में सामान्य होता है वह लता जी ले लिए असामान्य हुआ था। लता जी का जीवन साथी कोई नहीं हुआ था। जी हाँ ‘समय बलवान’ ने उनके जीवन में विवाह का संयोग नहीं बनाया था।
यह ‘समय बलवान’ की असमर्थता है कि वह चाहे भी तो, जिसे वह स्वयं प्रेम करता है, उसके भी बल, तेज और कान्ति में, उम्र के साथ कमी आने के क्रम को रोक नहीं पाता है। ‘समय बलवान’ अब असमर्थ हुआ था। लता जी को पराश्रित होना पड़ता था। कभी उनमें साहस होता तो बिस्तर से स्वयं उठतीं थीं, कभी नहीं होता तो दूसरों पर निर्भर होकर उन्हें अपना सब दूसरों से करवाना होता था।
‘समय बलवान’ ने बचपन में जिस कठिन संघर्ष में उन्हें उलझाया था, अब उससे भी कठिन संघर्ष में अपनी प्रियतमा को ला छोड़ा था।
लता जी बिस्तर पर जब अपने परिजन और सेविकाओं को अपना किया जाता देखतीं तो उनका आभार मानतीं मगर स्वयं अपनी दयनीय हुई अवस्था पर विचलित होतीं। वे सोचतीं कि अपनी इस दयनीय अवस्था से भी कदाचित! वह कम कठिनाई से समझौता कर लेतीं अगर ‘समय बलवान’ ने जीवन में उन्हें उत्कृष्ट गौरव के इस उत्कर्ष पर सात दशक तक नहीं सुशोभित रहने दिया होता।
लता जी का मन होता, वे वापस अपने उन गौरवशाली वर्षों में पुनः जाएं। तब ‘समय बलवान’ उनके समक्ष हाथ बाँधे खड़ा होता और कहता - मैं आगे की दिशा में चल सकता हूँ, पीछे लौटने का मेरा स्वभाव नहीं है।
लता जी कहतीं - तो आगे ही चलकर मुझे मेरी इस दयनीयता से निकालो।
‘समय बलवान’ कहता - हाँ आपकी यह दयनीयता मैं मिटा दूँगा। ऐसा होते आप अपने अगले जन्म में देखेंगीं।
लता जी कहतीं - मुझे विश्वास नहीं तुम्हारी इस बात पर। अगले जन्म में तुम मुझे लता की यह पहचान नहीं देने वाले हो।
‘समय बलवान’ हँसकर कहता - आप भूल रही हो कभी आपने ही कहा था, अगले जन्म में मैं लता मंगेशकर नहीं बनना चाहूँगी।
लता जी के कांतिहीन हुए छोटे से मुख पर तब हँसी आती वे कहतीं - चल बातूनी, बड़ी बात करता है।
तब ‘समय बलवान’ लता जी के सामने से हट जाता था।
लता जी को जीवन भर खाईं, प्रिय प्रिय भोज्य सामग्री का स्मरण आता। परिजनों से वे उसे खिलाए जाने को कहतीं। परिजन कहते-
वह खाने से आपको परहेज करना है। आपको दवाएं खानीं हैं। यह लीजिए इसे दो घूँट पानी के साथ निगल लीजिए।
लता जी ने सात दशक में कभी अपनी कही बात पर किसी को इस प्रकार ‘ना’ कहते नहीं सुना था। वे विचलित हो स्मरण करतीं रह जातीं इस निर्दयी ‘समय बलवान’ का।
परिजनों को लता जी के मुख पर निराशा अप्रिय लगती, वे खाने के लिए उनकी चाही सामग्री, उन्हें देते। मगर लता जी को अपनी ही माँगी वस्तु से ही अरुचि अनुभव होती।
फिर 6 फरवरी ‘समय बलवान’ अपनी प्रियतमा लता जी को अपनी आगे की यात्रा में साथ ले गया। उसने इतनी व्यवस्था अवश्य की कि लता जी के द्वारा छोड़े पार्थिव शरीर पर, राष्ट्र ध्वज स्वयं शोभायमान होकर अपने लिए गौरव अनुभव कर पाए। तिरंगे में लिपट कर लता जी ने अपनी अन्त्य यात्रा की।
अब हम कृतज्ञ नागरिक, आशा करते हैं कि -
लता जी की एक महान से दयनीय हो जाने की यात्रा इस दयनीयता पर नहीं रुके। ‘समय बलवान’ ने जैसा उनसे कहा था, अगले जन्म में लता जी पुनः अपने “राष्ट्र भारत” के प्रति प्रेम रखने वाले नए रूप एवं पहचान में निश्चित ही हमारे (या हमारी नई पीढ़ियों) के बीच होंगीं।
